संस्कृतिख़ास बात पूर्णा मालावथः सबसे कम उम्र में माउंट एवरेस्ट फतह करने वाली दुनिया की पहली लड़की

पूर्णा मालावथः सबसे कम उम्र में माउंट एवरेस्ट फतह करने वाली दुनिया की पहली लड़की

मात्र 13 वर्ष 11 महीने की उम्र में दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट के शिखर पर जा पहुंचीं। 2014 में पूर्णा ने यह करिश्मा किया। वह माउंट एवरेस्ट पर पहुंचने वाली दुनिया की सबसे कम उम्र की पहली लड़की पर्वतारोही बनीं।

“यह ज्यादा ऊंची नहीं है। हम इस पर चढ़ सकते हैं।” ये शब्द एक तेरह साल की लड़की ने पहली बार माउंट एवरेस्ट देखने पर अपने कोच से कहे थे। आत्मविश्वास से भरी इस लड़की का नाम हैं पूर्णा मालावथ। पूर्णा मालावथ का नाम जैसे ही गूगल में टाइप करेंगे आपको इनके नाम कि उपलब्धियों से जुड़ी अनेक ख़बरें दिखनी शुरू हो जाएंगी। बता दें कि पूर्णा मालावथ सबसे कम उम्र में दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट फतेह करनेवाली पहली लड़की हैं। एक आदिवासी समाज से ताल्लुक रखने वाली पूर्णा रूढ़ियों को चुनौती देने के बाद दुनिया की ऊंची चोटियों को नापना अब उनके लिए एक आसान खेल बन चुका हैं। आज स्टार बन चुकी पूर्णा मालावथ के गांव से एवरेस्ट तक पहुंचने के सफर की कहानी कैसे शुरू हुई आइए जानते हैं।

जब हुई पूर्णा के सफ़र की शुरुआत

पूर्णा मालावथ का जन्म 10 जून 2000 को वर्तमान के तेलंगाना के निज़ामाबाद ज़िले के ‘पकल’ गांव में हुआ था। वह एक आदिवासी परिवार से ताल्लुक रखती हैं। उनकी माता का नाम लक्ष्मी और पिता का नाम देवीदास है। इनके माता-पिता खेतिहर मजदूर हैं। पूर्णा ऐसे गांव से आती हैं जहां शिक्षा की सुगम व्यवस्था नहीं है। पूर्णा के माता-पिता उन्हें पढ़ाना चाहते थे। इसलिए उनका एडमिशन ‘तेलंगाना सोशल वेलफेयर रेजिडेंशिल एड्यूकेशनल इंस्टिट्यूश सोसायटी‘ में करवाया। सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से वंचित बच्चों की शिक्षा और उत्थान की दिशा में काम करने वाली इस संस्था ने पूर्णा के जीवन में बदलाव की पहल की। पूर्णा के पर्वतारोही की यात्रा तब शुरू हुई जब इस सोसायटी के सचिव और 1995 बैच के आईपीएस अधिकारी डॉ आर.एस. प्रवीण की नज़र पूर्णा की प्रतिभा पर पड़ी। पूर्णा जब कक्षा आठ में पढ़ती थी तभी उनको ‘ऑपरेशन एवरेस्ट’ के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया।

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पर्वतारोही बनने का आगाज़

माउंटेनिअरिंग ट्रेनिंग ऑपरेशन के लिए चयन होने से पहले पूर्णा को इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी। वह नहीं जानती थी कि पर्वतारोहण क्या होता है। उन्होंने इससे पहले कभी भी माउंट एवरेस्ट का नाम नहीं सुना था। फेमिनिज़म इन इंडिया हिंदी से बात करते हुए पूर्णा ने बताया कि वह इससे पहले इस क्षेत्र के बारे में कुछ नहीं जानती थी। जब उनके टीचर ने उनसे पर्वतारोहण के बारे में पूछा तो उन्होंने इसका जवाब ‘नहीं’ में दिया था। टीचर के बताने के बाद पूर्णा ने पर्वतारोहण की जानकारी हासिल कर इसमें अपनी ट्रेनिंग शुरू कर दी थी। 110 बच्चों की टीम में रॉक क्लाइम्बिंग स्कूल, ट्रेनिंग के लिए उनका चयन हुआ था। 20 बच्चों की पर्वतारोहण की ट्रेनिंग की शुरुआत हिमालयन माउंटेनिअरिंग इंस्टीट्यूट, दार्जिलिंग में हुई। एवरेस्ट की चढ़ाई की तैयारियों में उन्होंने दार्जिलिंग और लद्दाख के पहाड़ों में प्रशिक्षण लिया। लद्दाख की तीन महीने की ट्रेनिंग में से केवल 9 बच्चे आगे की ट्रेनिंग के लिए चुने गए थे जिसमें तीन लड़कियों में से एक पूर्णा भी थीं।

फेमिनिज़म इन इंडिया हिंदी से बात करते हुए पूर्णा मालावथ ने बताया,”मेरी उपलब्धियों के बाद मेरे गांव की तस्वीर बदली है। आज मेरा उदाहरण देकर कई लड़कियों को स्कूल पढ़ने भेजा जा रहा हैं। लड़कियों की कम उम्र में शादी नहीं हो रही है। ये बदलाव बहुत अच्छा है।”

यह सफर पूर्णा के लिए आसान नहीं होने वाला था लेकिन वह अपनी हर परेशानी को पीछे छोड़ते हुए बुलंदी की ओर बढ़ती रहीं। तीन महीने के प्रशिक्षिण के बाद आगे की कठिन ट्रेनिंग शुरू हो चुकी थी। इस ट्रेनिंग के दौरान पूर्णा और उनके अन्य साथियों को रोज 20 से 25 किलोमीटर की दौड़ लगानी पड़ती थी। प्रतिदिन योग और बॉलीबाल जैसे खेल खेलकर खुद को शारीरिक और मानसिक तौर पर फिट रखते थे। ट्रेनिंग के दौरान रोज वे कड़ी मेहनत करते थे।

पर्वतारोहण प्रशिक्षण के दौरान पूर्णा ने डर को भी महसूस किया। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपनी चढ़ाई पूरी की वह इसे भूल भी गई। पहली बार भोंगीर चट्टान पर रॉक-क्लाइम्बिंग अभियान के दौरान चट्टान पर पैरे रखते हुए उनके पैर कांप रहे थे। लेकिन जैसे ही वह चट्टान के शीर्ष में पहुंची उनका डर गायब हो गया और वह आगे बढ़ने के लिए दोगुने जोश के साथ तैयार हो गई। अब पर्वतारोहण के लिए उनका डर हमेशा के लिए दूर हो गया था। उन्होंने बहादुरी से 17,000 फीट ऊंचे माउंट रेनोक को फतह किया। यहां से एवरेस्ट के एडवांस बेस कैंप की यात्रा शुरू हो गई थी। पैकेट फूड की वजह से पूर्णा को कई तरह की स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियों का भी सामना करना पड़ा। उन्हें उल्टी की शिकायत का सामना करना पड़ा। डॉक्टर की सलाह और खुद की हिम्मत के बदौलत उन्होंने कभी भी अपनी क्षमता पर संदेह नहीं किया।

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और जब माउंट एवरेस्ट पर पहुंचीं पूर्णा

माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने के अंतिम चरण में लाशों को देखने के दौरान पूर्णा ने अपने भीतर डर और असहायता का भाव महसूस किया। इस स्थिति ने उन्हें एहसास दिलाया कि यहां स्थिति कैसे एक पल में बदल सकती है और इसका कितना बड़ा असर हो सकता है। इन विचारों से गुजर रही पूर्णा की दृढ़ इच्छाशक्ति ही थी कि वह घबराई नहीं। खुद में लगातार आत्मविश्वास रख पूर्णा आगे बढ़ती रहीं और मात्र 13 वर्ष 11 महीने की उम्र में दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट के शिखर पर जा पहुंचीं। 2014 में पूर्णा ने यह करिश्मा किया। वह माउंट एवरेस्ट पर पहुंचने वाली दुनिया की सबसे कम उम्र की पहली लड़की पर्वतारोही बनीं।

तस्वीर साभार: sports matik

फेमिनिज़म इन इंडिया हिंदी से बात करते हुए पूर्णा मालावथ ने बताया, “ये सारी उपलब्धियां हासिल करना बहुत गर्व की बात है। लोग मुझे बुलाते हैं, बात करते हैं यह सब बहुत खुशी भरा होता है। मैं एक छोटे से गांव से आती हूं। जहां पर आगे निकलकर बोर्डिग स्कूल में पढ़ाई कर, ये सब हासिल करना न सिर्फ मेरा जीवन बदला है बल्कि मेरे समाज की भी सोच बदली है। यह बहुत खुशी की बात है। लड़कियां किसी से कम नहीं हैं वे सब कुछ कर सकती हैं। जब मैं कर सकती हूं तो कोई भी कर सकता है केवल सपोर्ट की ज़रूरत है। हर कोई बराबर है उसको केवल समान मौके देने की जरूरत है। मेरी उपलब्धियों के बाद मेरे गांव की तस्वीर बदली है। आज मेरा उदाहरण देकर कई लड़कियों को स्कूल पढ़ने भेजा जा रहा हैं। लड़कियों की कम उम्र में शादी नहीं हो रही है। ये बदलाव बहुत अच्छा है। अपने इस सफर के बारे में पूर्णा मालावथ ने आगे कहा, “मेरे परिवार, मेरे सर प्रवीण कुमार और कोच का मेरी इस जर्नी में बहुत बड़ा योगदान रहा है। मैं आज दुनिया देख रही हूं। सबने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया है। मेरी जिम्मेदारी बनती है कि मैं आगे सब बेहतर करती रहूं और समाज के लिए कुछ अच्छा करूं।”

मात्र 13 वर्ष 11 महीने की उम्र में दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट के शिखर पर जा पहुंचीं। 2014 में पूर्णा ने यह करिश्मा किया। वह माउंट एवरेस्ट पर पहुंचने वाली दुनिया की सबसे कम उम्र की पहली लड़की पर्वतारोही बनीं।

आगे और भी हैं उपलब्धियां

दुनिया की सबसे ऊंटी चोटी माउंट एवरेस्ट को फतह करने के बाद पूर्णा आगे के सफर पर निकल गई। एक के बाद एक पूर्णा ने दुनिया के सात महाद्वीपों में स्थित सात सबसे ऊंचे शिखर को मापने के मिशन को अपना अगला लक्ष्य बनाया। माउंट एवरेस्ट पर फतह करने के बाद 2016 में किलिमंजारो (अफ्रीका), 2017 में एलब्रुस (यूरोप), 2019 एकांकागुआ (दक्षिण अमेरिका), 2019 में कार्स्टेन्ज़ पिरामिड (ओशिनिया क्षेत्र), 2019 माउंट विंसन मासिफ (अंटार्कटिका) को फतह किया है। उनका अगला लक्ष्य माउंट डेनाली को जीतना है, जो उत्तरी अमेरिका की सबसे ऊंची पर्वत चोटी है। इन्हें फतह करने का दुनिया के हर पर्वतारोही का सपना रहता है।

पूर्णा वर्तमान में हैदराबाद के उस्मानिया यूनिवर्सिटी से राजनीतिक विज्ञान में परास्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। इससे पहले वह ग्लोबल अंडर ग्रेजुएट एक्सचेंज प्रोग्राम के फेलो छात्र के तौर पर मिनेसोटा स्टेट यूनिवर्सिटी, अमेरिका से भी पढ़ाई कर चुकी हैं। छोटी सी उम्र में पर्वतारोही के तौर पर कई उपलब्धियां अपने नाम कर चुकी पूर्णा मालावथ पर एक फिल्म भी बन चुकी हैं। इनकी बायोपिक का नाम ‘पूर्णा‘ है। इस फिल्म में उनके जीवन की कहानी को बताया गया है। पूर्णा के जीवन की कहानी को एक किताब में भी दर्ज किया गया है। ‘पूर्णा’ के नाम से अपर्णा थोटा ने उनकी बायोग्राफी लिखी है। साल 2020 में फोर्ब्स इंडिया की ओर से जारी की की गई सेल्फ मेड महिला की सूची में पूर्णा मालावथ का नाम दर्ज किया गया। इसके अलावा देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के हाथों से भी सम्मान हासिल कर चुकी हैं।

आज पूर्णा की उपलब्धियों ने यह साबित कर दिया है कि कोई भी चोटी उसके लिए ऊंची नहीं है। पूर्णा के अपने गांव से बाहर जाकर पढ़ने की यात्रा से पर्वतारोही बनने की यात्रा शुरू की थी उन्होंने खुद इस मुकाम पर पहुंचने के बारे में कभी सोचा नहीं था। माउंट एवरेस्ट को फतह करने के बाद से उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने इस जातिवादी पितृसत्तात्मक समाज की रूढ़ियों को न केवल तोड़ा है बल्कि दुनिया में एक मिसाल बनी हैं।

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तस्वीर साभारः Deccan Herald

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