समाजकैंपस ग्रामीण किशोरियों के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए ज़रूर करें इन बातों को उनकी शिक्षा में शामिल

ग्रामीण किशोरियों के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए ज़रूर करें इन बातों को उनकी शिक्षा में शामिल

हालांकि, जब हम शिक्षा की बात करते है तो इसमें साक्षरता के साथ-साथ आत्मविकास और क्षमतावर्धन भी शामिल है, जो महिलाओं की दिशा और दशा दोनों को प्रभावित करती है।

आज के दौर में शिक्षा के स्वरूप में काफ़ी बदलाव आया है। हिंदी, अंग्रेज़ी, गणित और सामाजिक विज्ञान तक सिमटे विषय के साथ-साथ कम्प्यूटर, कला, नैतिक शिक्षा जैसे कई विषयों ने भी अपनी जगह बना ली है। आंकड़ों के अनुसार भारत जब आज़ाद हुआ था तो राष्ट्रीय महिला साक्षरता दर 8.6% से कम थी। वहीं, 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की महिला साक्षरता दर 1951 में 8.6% से बढ़कर 64.46% हो गई है। ये आंकडे बेहद सकारात्मक हैं लेकिन भारत की वर्तमान महिला साक्षरता दर पुरुष साक्षरता दर से पीछे है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक पुरुषों की साक्षरता दर 82.14% है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह स्थिति अधिक गंभीर है, जहां लड़कों की तुलना में कम लड़कियां स्कूलों में जाती हैं और लड़कियों के बीच ड्रॉपआउट दर की संख्या खतरनाक है।

यह तो बात हुई महिलाओं की, अब जब हम इसमें महिलाओं की जाति, धर्म और वर्ग जैसे अलग-अलग आधारों पर महिलाओं की शिक्षा को देखने की कोशिश करते है तो समाज के हाशिएबद्ध समुदाय की महिलाओं के लिए आज भी शिक्षा पाना किसी सपने से कम नहीं है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि ये सारे आकंडे महिला साक्षरता के हैं मतलब वे महिलाएं जो कम से कम अपना नाम लिखना-पढ़ना जानती हैं। हालांकि, जब हम शिक्षा की बात करते है तो इसमें साक्षरता के साथ-साथ आत्मविकास और क्षमतावर्धन भी शामिल है, जो महिलाओं की दिशा और दशा दोनों को प्रभावित करती है।

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मैं पिछले दो साल से अपने गांव की मुसहर बस्ती में बच्चों को पढ़ाने का काम कर रही हूं। मुसहर, जो कि उत्तर भारत में सबसे दमित जातियों में से है। इसलिए हर गांव में मुसहर बस्ती गांव के बाहर पाई जाती है। ऐसे समुदाय में जब हम महिलाओं की स्थिति की बात करें तो उन्हें और भी ज़्यादा दयनीय पाते हैं। मुसहर बस्ती की महिलाओं के लिए आज भी शिक्षा उनकी पहुंच से कोसों दूर है है, जिसकी वजह से उनका आत्मविश्वास भी प्रभावित होता है। बच्चियों और समुदाय की महिलाओं के साथ काम करते हुए मैंने यह महसूस किया कि जब हम गांव की बच्चियों की शिक्षा और क्षमतावर्धन के लिए काम करते हैं तो यह ज़रूरी है कि उस शिक्षा में में हम उन विषयों और बातों को ज़रूर शामिल करें, जो उन्हें आगे बढ़ने और डटे रहने की प्रेरणा दे।

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लड़कियां भी सीखें गणित

विषय में गणित को कठिन विषय माना जाता है, इसलिए कई बार इसे लड़कों का विषय भी बोल दिया जाता है। वास्तव में इस गणित की भी अपनी सत्ता है, जो जीवन की अर्थव्यवस्था को संभालने-संवारने और बढ़ाने का काम करती है। जब हम लड़कियों को गणित पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं, उन्हें हिसाब-किताब लगाना सिखाते हैं तो ये उन्हें एक आत्मविश्वास देता है। चित्रसेनपुर गांव की मुसहर बस्ती में पाठशाला कार्यक्रम के तहत पढ़ने वाली चौदह वर्षीय पिंकी कहती है, “अब मुझे जोड़ना-घटाना और हिसाब करना आ गया है। इसलिए जब मैं कोई समान लेने जाती हूं तो सही हिसाब-किताब कर लेती हूं और अब परिवारवाले मुझे हिसाब-किताब के काम में शामिल भी करते हैं।”

छोटा-सा दिखने वाला जोड़-घटाव इन बच्चियों की ज़िंदगी में बड़े बदलाव का आधार बनता है। जब बच्चियां अपने माता-पिता की मज़दूरी का हिसाब उन्हें जोड़कर बताती है तो उनके परिवार का विश्वास बच्चियों पर बढ़ता है और इससे बच्चियों का न केवल आत्मविश्वास बल्कि पढ़ाई को लेकर रुचि भी बढ़ती है। इसलिए ज़रूरी है कि लड़कियों को गणित पढ़ाने के लिए प्रेरित किया जाए, जिससे वह अपनी ज़िंदगी का हिसाब-किताब करना सीख सकें।

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खेलकूद में लड़कियों की सुनिश्चित भागीदारी

खेलकूद बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी है। लड़कियों के आत्मविश्वास और जेंडर आधारित भेदभाव को चुनौती देने का सशक्त माध्यम भी। लड़कियां जब खेलकूद में हिस्सा लेना शुरू करती हैं तो वे अपने आपको अभिव्यक्त करना शुरू करती हैं और उस दौरान उनका पूरा ध्यान सामाजिक पाबंदियों की बजाय खेल पर होता है, जिससे धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास भी बढ़ता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में खेलकूद अभी भी लड़कों का काम समझा जाता है। ऐसे में जब लड़कियां खेलकूद में अपनी भागीदारी तय करती हैं तो ये जेंडर समानता और संवेदशीलता को बढ़ावा देने में मदद करता है। मैंने खुद बच्चों को पढ़ाते यह महसूस किया कि शुरुआती दौर में लड़कियां खेलने से हिचकती थीं और लड़के उन्हें अजीब नज़र से देखकर हमेशा असहज महसूस करवाते थे पर धीरे-धीरे ये सामान्य होता गया। आज हर खेल में लड़के-लड़कियां बराबर से भागीदारी कर रहे हैं।

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नेतृत्व में लड़कियों की तय भागीदारी

बचपन से ही लड़कियों को नेतृत्व की दिशा में आगे बढ़ाना ज़रूरी है, क्योंकि समाज बचपन से ही उन पर पाबंदी लगाकर उन्हें दबाने का काम करती है। वे क्या करेंगी, क्या पहनेंगी, क्या खाएंगी, क्या पढ़ेंगी जैसे सभी छोटे-बड़े फ़ैसले परिवार और समाज करता है, जिससे महिलाएं नेतृत्व में आगे बढ़ने का कदम सोच भी नहीं पाती है। जब हम शिक्षा केंद्र के नेतृत्व से जुड़े कामों में लड़कियों की भगीदारी तय करते है तो इससे उनकी नेतृत्व क्षमता का विकास होने लगता है। प्रार्थना करवाने से लेकर क्लास को बेहतर बनाने के प्लान तक में लड़कियों को शामिल करना और उन्हें नेतृत्व के लिए लगातार प्रेरित करना उन्हें स्वावलंबी होने की दिशा में भी प्रेरित करता है।

ये सभी कदम देखने में काफ़ी सामान्य है, लेकिन यक़ीन मानिए इसका प्रभाव उतना ही ज़्यादा और दूरगामी है। बेशक अंग्रेज़ी स्कूलों में इससे भी बेहतर प्लान के साथ पढ़ाई होती है, पर अंग्रेज़ी तो दूर सरकारी स्कूलों से भी दूर ग्रामीण बच्चियों के संदर्भ में शिक्षा के लिए सिर्फ़ साक्षरता ही नहीं उनकी सक्षमता के लिए काम करना बेहद ज़रूरी है।  

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तस्वीर साभार: मुहीम

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