संस्कृतिकिताबें द दोमोस्त्रॉय : जैसे मनुस्मृति का ही कोई संस्करण 

द दोमोस्त्रॉय : जैसे मनुस्मृति का ही कोई संस्करण 

औरत के दोयम सेक्स बनने की कहानी में कितनी समानताएं हैं और कितनी विविधताएं, यह भारत और दुनियाभर में स्त्री संघर्षों को पढ़ते हुए समझ आता है। दुनिया के किसी कोने में स्त्रियों को बराबरी के हक़ ख़ैरात में नहीं मिले बल्कि संघर्षों का नतीजा हैं।

(यह लेख सुजाता की आने वाली किताब ‘दुनिया में औरत’ का एक अंश है)

दुनियाभर की औरतों के संघर्ष जितने एक जैसे हैं उतने ही विविध भी। विकसित कहे जानेवाले पश्चिम से लेकर पूरब तक औरतों को अपनी नाप के जूते पहनने से लेकर शिक्षा और वोट के अपने छोटे से छोटे अधिकारों के लिए लड़ना पड़ा है। औरत के दोयम सेक्स बनने की कहानी में कितनी समानताएं हैं और कितनी विविधताएं, यह भारत और दुनियाभर में स्त्री संघर्षों को पढ़ते हुए समझ आता है। दुनिया के किसी कोने में स्त्रियों को बराबरी के हक़ ख़ैरात में नहीं मिले बल्कि संघर्षों का नतीजा हैं।

यह जानना दिलचस्प है कि मध्यकाल में रूस में एक ऐसी कृति की रचना की गई थी जो रूस के कुलीन घरों की व्यवस्था, स्त्रियों के काम, मर्यादाएं, दासों के कर्तव्य और मालिक पुरुष को एक रूसी कुलीन घर की व्यवस्था को बनाए रखने संबंधी निर्देश देती थी। सोलहवीं सदी की किताब ‘द दोमोस्त्रॉय’ का लेखक अज्ञात है, जो रूसी समाज के भीतर घर-बार चलाने, राज्य और राजा के प्रति कर्तव्य निर्वाह के नियम बताती है। साल 1550 के आस-पास लिखी गई यह किताब, माना जाता है कि किसी बड़े संत या नौकरशाह द्वारा रचित है, या ऐसे पुरुषों के समूह द्वारा जो पुरुषों को उनके घरों को चलाने के निर्देश देती है। 

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सुजाता की आनेवाली किताब का कवर

इसका लेखक स्त्री को पुरुष का ग़ुलाम नहीं मानता बल्कि उसके अनुसार घर को चलाने में स्वामिनी की महत्वपूर्ण भूमिका है और इसलिए उसके व्यवहार को ख़ास तरीके से अनुकूलित और प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। स्वामिनी को पति का आज्ञाकारी, सुशील, पवित्र होना चाहिए, पति से प्यार करना चाहिए। नौकरों के साथ सख़्त होना चाहिए और उनसे काम लेना आना चाहिए। आज्ञाकारिता एक बड़ा मूल्य था जिसकी अपेक्षा पत्नियों और दासों से की जाती थी। खानदान की ‘इज्ज़त’ बाहर बनाकर रखना उसका काम था। बच्चों का ढंग से प्रशिक्षण हो यह उसे देखना था।

पति जब मेहमानों को बुलाए तो उनके आने पर भी वह पति के निर्देशों का पालन करे, उसका काम है कि उनके सामने अपने सबसे अच्छे कपड़े पहन कर उपस्थित हो, जब सब खाना खाएं तो वह शराब न पीए, शराब पीनेवाली औरत की धरती पर कोई जगह नहीं। वह मेहमान महिलाओं से सिलाई के काम और गृह संचालन की बातें बेहद सौम्यता से करे। पति पर कभी ग़ुस्सा न हो। संतान पालन माता-पिता दोनों का काम है। पिता बेटों को अपने व्यवसाय की शिक्षा दें और माताएं बेटियों को महिलाओं द्वारा किए जाने वाले काम सिखाएं। दासों को मारना जायज़ था।   

द दोमोस्त्रॉय का लेखक स्त्री को पुरुष का ग़ुलाम नहीं मानता बल्कि उसके अनुसार घर को चलाने में स्वामिनी की महत्वपूर्ण भूमिका है और इसलिए उसके व्यवहार को ख़ास तरीके से अनुकूलित और प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। स्वामिनी को पति का आज्ञाकारी, सुशील, पवित्र होना चाहिए, पति से प्यार करना चाहिए। नौकरों के साथ सख़्त होना चाहिए और उनसे काम लेना आना चाहिए। आज्ञाकारिता एक बड़ा मूल्य था जिसकी अपेक्षा पत्नियों और दासों से की जाती थी।

जिनके यहां बेटी जन्म ले वे उसके बचपन से ही कपड़े, ब्लाउज़, कीमती पत्थर, गहने, बर्तन जोड़ना शुरू कर दें एक अलमारी में। उसके बड़े होने तक तुम्हारे पास काफ़ी सामान होगा उसकी शादी के लिए। तुम्हारे पास बेटी है तो उसकी पवित्रता का ध्यान रखो। हठी और मनमानी करनेवाली बेटी पर कड़ी निगाह रखो वरना वह पूरे शहर में तुम्हारी आँखें नीची करवा देगी, लोग बाते बनाएंगे, तुम्हारे दुश्मनों को मौक़ा मिल जाएगा। तो कुछ मानी में यह पितृसत्ता स्त्री पर व्यवस्थाबद्ध नियंत्रण रखती थी और कुछ मामलों में उदार थी।  

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साल 1870 से पहले तक रूस में स्त्रियों के लिए न उच्च शिक्षा थी न व्यावसायिक प्रशिक्षण। साल 1850 तक माध्यमिक शिक्षा उपलब्ध नहीं थी किसी भी वर्ग की लड़कियों के लिए। साल 1764 से साल 1858 के बीच माध्यमिक स्कूल सिर्फ कुलीन लड़कियों के लिए थे। ये भी साल 1764 में तब बने जब कैथरीन द ग्रेट ने ऊंचे खानदान की लड़कियों के लिए पारंपरिक और जेंडर भूमिका के अनुकूल शिक्षा के लिए खोले। इन्हें इंस्टीट्यूट कहा जाता था और सेना और नौकरशाहों की पुत्रियों के लिए इनमें जगह थी। लड़कों के बीच इन इंस्टीट्यूट्स का पर्याप्त मज़ाक बनता था क्योंकि ये शिक्षण संस्थान नहीं थे बल्कि ‘कुलीन पत्नी’ के ट्रेनिंग के केंद्र थे। 

औरत के दोयम सेक्स बनने की कहानी में कितनी समानताएं हैं और कितनी विविधताएं, यह भारत और दुनियाभर में स्त्री संघर्षों को पढ़ते हुए समझ आता है। दुनिया के किसी कोने में स्त्रियों को बराबरी के हक़ ख़ैरात में नहीं मिले बल्कि संघर्षों का नतीजा हैं।

अविवाहित लड़की के लिए कहा जाता था ने ज़ेनत ने चेलोवेक (नॉट मैरिड, नॉट ह्यूमन) जो शादीशुदा नहीं वह मनुष्य नहीं, या ओल्ड मेड। उन्हें पाला ही आज्ञापालन के लिए जाता था। लेव तॉल्स्तॉय के विश्व प्रसिद्ध रूसी क्लासिक उपन्यास ‘आन्ना कारेनिना’ में भी इसके कई संदर्भ मिलते हैं। यूं तो ये सब यूरोपियन नियम संहिता ही थी स्त्री के लिए लेकिन हां, वे सम्पत्ति की मालिक हो सकती थीं, यह बाकी यूरोप से अलग था। पत्नी अपनी सम्पत्ति भी रख सकती थी और पति की सम्पत्ति का एक सातवाँ और उसकी चल सम्पत्ति का एक चौथाई हिस्सा उसे मिल सकता था। बेटियों को बेटों के बराबर तो नहीं लेकिन हिस्सा मिल सकता था। एक संक्रमणकालीन अवस्था में समाज था जो तय नहीं कर पा रहा हो कि स्त्री के प्रति उदार होना है या उसे  नियंत्रण में रखना है?

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‘आन्ना कारेनिना’ में तॉल्स्तॉय लिखते हैं, “उन्होंने देखा कि कीटी की हमउम्र लड़कियां कुछ अपने संगठन बनाती हैं, कई तरह के कोर्सों में जाती हैं, मर्दों के साथ आज़ादी से मिलती-जुलती हैं, सड़कों पर अकेली सवारी करती हैं, बहुत-सी अभिवादन करते हुए घुटने नहीं झुकातीं और सबसे बड़ी बात तो यह है कि सभी यकीन रखती हैं कि अपने लिए पति चुनना उनका अपना काम है और माँ-बाप का इससे कोई वास्ता नहीं है। ‘अब तो पहले की तरह लड़कियों की शादी नहीं की जाती’, ये सभी युवतियां सोचतीं और कुछ बड़े-बूढों का भी यही हाल था। लेकिन अब बेटियों की शादी कैसे की जाती है, प्रिंसेस किसी से भी यह मालूम नहीं कर सकती थीं। फ्रांसीसी प्रथा, जिसके मुताबिक माँ-बाप बच्चों के भाग्य का निर्णय करते हैं, मान्य नहीं थी, उसकी आलोचना की जाती थी। अंग्रेज़ी प्रथा कि लड़कियों को पूरी आज़ादी दी जाए, यह भी अमान्य थी और रूसी समाज में असम्भव थी। सगाई की रूसी प्रथा बेहूदा मानी जाती थी और ख़ुस प्रिंसेस उसका मज़ाक उड़ाती थीं। लेकिन कैसे और किस तरह लड़की की शादी की जाए कोई नहीं जानता था।”

लेकिन शिक्षा तो शिक्षा है, कहीं न कहीं से वह किसी दिमाग़ को रौशन कर जाती है। डोरा डी इस्टीरिया नाम से लिखने वाली डचेस एलेन घिचा बेहद प्रसिद्ध लेखक रही, स्त्रीवादी थी, कई तरह की संस्कृतियों के बीच पली। समाज-सेवा लेकर स्त्रियों के प्रति आधुनिक विचारों को रूस में लाने में भी इसकी भूमिका थी। स्त्रीवादी आंदोलनों के दूसरे चरण यानी 1960-70 का दशक, जब इस वक़्त, विशेष रूप से शीत युद्ध के चलते, रूस के इतिहास की ओर विशेष ध्यान गया तो मालूम हुआ कि वहां ऐसी कई स्त्रियां हैं, जो फेमिनिस्ट इतिहास-लेखन के नज़रिए से बेहद महत्वपूर्ण किरदार रही हैं।  

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तस्वीर साभार: ABC News

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