इंटरसेक्शनलजेंडर “औरतों को हद में रहना चाहिए” आइए समझें इस हद की हद क्या है?

“औरतों को हद में रहना चाहिए” आइए समझें इस हद की हद क्या है?

पुरुषों की सुविधा, सुख और विशेषाधिकार को ध्यान में रखकर महिलाओं के लिए हद बनाई गई है। पुरुष महिलाओं से जितना बोलने, काम करने, पढ़ने-बढ़ने या निर्णय लेने की उम्मीद करते है वह उम्मीद ही महिलाओं के लिए उनकी हद होती है, जिसे उन्हें पार न करने की सलाह दी जाती है।

“जब भी किसी बात पर मैं अगर तेज़, आवाज़ में बोलती या हंसती हूं तो घर में सभी लोग एक सुर कहते हैं कि लड़कियों की तेज आवाज़ शोभा नहीं देती है। बचपन से ही अक्सर तेज़ बोलने-हंसने पर मुझे यूं ही रोका-टोका जाता था, पर उस समय ये सब उतना समझ नहीं आता। जैसे-जैसे बड़ी होती गई तो घर में पापा और भाई भी तेज आवाज़ पर किसी के भी सामने डांट देते हैं, इसलिए अब मैंने ही बोलना कम कर दिया।” दशरथपुर गाँव की रहने वाली अनु दसवीं में पढ़ती है और एक दिन गाँव की लड़कियों के साथ जेंडर आधारित भेदभाव के मुद्दे पर बात करते हुए उसने अपना यह अनुभव साझा किया।

खड़ौरा गाँव की नीलम अपने घर में पहनावे को लेकर लगाई जाने वाली पाबंदियों के बारे में बताते हुए कहती हैं, “मेरे घर में लड़कियों को जींस पहनने की आज़ादी नहीं है। छोटी बच्चियों को फ़्रॉक और उसके बाद सूट-सलवार पहनना, जैसे हमारे घर का ड्रेस कोड वाला नियम है। एक बार स्कूल के किसी कार्यक्रम में मैंने जींस टी-शर्ट पहन ली थी और स्कूल के कुछ लड़कों ने मेरी तस्वीर खींचकर मेरे पापा को दिखा दी, उसके बाद पापा ने मुझे बुरी तरह डांटा था। उन्होंने कहा कि लड़कियों को अपनी हद में रहना चाहिए और तुम्हें इतना भी नहीं मालूम है। अगर तुमने आगे ऐसा किया तो तुम्हारी पढ़ाई छुड़वा दी जाएगी।” उसके बाद से मैंने परिवार के ख़िलाफ़ जाकर कोई भी कपड़ा पहनने से कान पकड़ लिया।

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देईपुर गाँव में रहने वाली तीस वर्षीय पुष्पा बीए पास हैं और वह अपने परिवार की एकमात्र पढ़ी-लिखी सदस्य हैं। घर के बिजली बिल, बैक फार्म जैसे सभी छोटे-मोटे फार्म भरने का काम पुष्पा से पूछकर किया जाता है लेकिन जैसे ही घर में किसी बड़े निवेश की बात आती है, जैसे टीवी, फ़्रीज़, मोबाइल या ज़मीन ख़रीदने की तो इसकी इजाज़त उन्हें नहीं है। कई बार पुष्पा अपनी राय देने की कोशिश भी करती हैं तो उनके घर के पुरुष उन्हें ये कहकर चुप करवा देते हैं कि घर की औरतों को अपनी हद में रहना चाहिए। उनको ये पता होना चाहिए कि उनकी और उनकी पढ़ाई की हद कहां तक है।

पुरुषों की सुविधा, सुख और विशेषाधिकार को ध्यान में रखकर महिलाओं के लिए हद बनाई गई है। पुरुष महिलाओं से जितना बोलने, काम करने, पढ़ने-बढ़ने या निर्णय लेने की उम्मीद करते है वह उम्मीद ही महिलाओं के लिए उनकी हद होती है, जिसे उन्हें पार न करने की सलाह दी जाती है।

सच में मेरे मन में कई बार यह सवाल आता है कि ‘औरतों की हद’ क्या है? सभी महिलाओं ने अपनी ज़िंदगी ‘हद में रहने वाली नसीहत’ का सामना ज़रूर किया होगा। हालांकि, सवाल यह है कि वास्तव में इस हद की हद कहां तक है? भारतीय संविधान देश के हर नागरिक को बिना किसी लिंग, जाति, जेंडर जैसे भेदभाव से परे बोलने और अपनी ज़िंदगी जीने की आज़ादी देता है, पर हमारा पितृसत्तात्मक समाज आज भी महिलाओं के हिस्से में उनके मौलिक अधिकारों को सरोकार से जोड़ नहीं पाया है। आज़ादी के इतने सालों के बाद भी विकास, समानता और सशक्तिकरण की तमाम बातों, भाषणों और योजनाओं के बीच घरों में महिलाओं को हद के नाम पर समेटना ज़ारी है। आइए समझने की कोशिश करते हैं कि आख़िर महिलाओं को सदियों से बताई जाने वाली हद की हद क्या है?

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हद है: पुरुषों के इशारों पर चलने की ‘लक्ष्मणरेखा’

रामायण में दिखाया गया है कि लक्ष्मण ने अपनी भाभी सीता की सुरक्षा के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’ खींची थी, जब वह राम को खोजने जंगल में जा रहे थे। तभी रावण साधु के भेष में आता है और सीता लक्ष्मणरेखा का पालन नहीं कर पाती है और रावण उनका अपहरण कर लेता है। इस घटना से अक्सर महिलाओं को यही सीख दी जाती है कि अगर वे परिवार और समाज के बताए नियमों का पालन करेंगी, उनके तय किए गए दायरों में रहेंगी तभी वे सुरक्षित रहेंगी। अब इन दायरों की हद क्या होगी ये भी एक सवाल है, पर इसका ज़वाब उतना ही आसान है, पुरुषों की सुविधा, सुख और विशेषाधिकार को ध्यान में रखकर महिलाओं के लिए हद बनाई गई है। पुरुष महिलाओं से जितना बोलने, काम करने, पढ़ने-बढ़ने या निर्णय लेने की उम्मीद करते हैं, वह उम्मीद ही महिलाओं के लिए उनकी हद होती है, जिसे उन्हें पार न करने की सलाह दी जाती है। सरल शब्दों में कहें तो, पुरुषों के इशारों में चलना और अपनी कोई बात न कहना और न सुनना ही है, समाज के बनाए महिला के हद की सीमा है।

कुल मिलाकर यह समझ में आता है कि महिलाओं की जिस बात, व्यवहार या सवाल से पितृसत्ता को आंच आती है वहां से महिलाओं की सीमा ख़त्म हो जाती है। यहां महिलाओं को अपनी हद में रहने का मतलब है पितृसत्ता कि कठपतली बनकर जीना, जहां उनके कपड़े, फ़ैसले, खानपान जैसे जीवन के छोटे फ़ैसलों से लेकर जीवनसाथी चुनने और नौकरी करने जैसे बड़े फ़ैसले की कमान पुरुषों को सौंप देना।

हद है: पितृसत्ता के मूल्यों को आगे लेकर जाना, बिना किसी सवाल के

हमारे पितृसत्तात्मक समाज में यह बखूबी तय किया गया है कि महिलाओं को कैसे रहना चाहिए, उनकी भाषा, व्यवहार, ज़िम्मेदारी, अधिकार और पहचान क्या होगी इसके लिए बक़ायदा आदर्श नारी की छवि भी तैयार की गई है, जो पितृसत्ता के मूल्यों को आगे लेकर जाती है, बिना किसी विचार या सवाल के। तो ऐसे में जब भी हम महिलाओं को बताए जाने वाली हद की सीमा चिन्हित करते हैं तो इसमें पितृसत्ता के मूल्यों को अपनी ज़िंदगी में लागू करने और इसे आगे लेकर जाने को पाते हैं।

जैसे, एक पत्नी को हमेशा अपने पति की सेवा करने और उसकी बात मानने जैसी तमाम सीख दी जाती है। साथ ही एक आदर्श पत्नी वही होगी जो अपने सपनों को त्यागकर पूरी ज़िंदगी अपने पति पर बिना किसी स्वार्थ के निभाएगी, बिना किसी शिकायत या सवाल के। भले ही उसका पति हर रोज़ उसके साथ घरेलू हिंसा करे, उसके इसके ख़िलाफ़ एक शब्द नहीं बोलना चाहिए। इसके साथ ही, पत्नी की ज़िम्मेदारी यह भी है कि वो आने वाली पीढ़ी को भी इसी तरह तैयार करें, चाहे वह बेटी हो या बहु। यही महिलाओं की हद होती है।

कुल मिलाकर यह समझ में आता है कि महिलाओं की जिस बात, व्यवहार या सवाल से पितृसत्ता को आंच आती है वहां से महिलाओं की सीमा ख़त्म हो जाती है। यहां महिलाओं का अपनी हद में रहने का मतलब है पितृसत्ता कि कठपतली बनकर जीना, जहां उनके कपड़े, फ़ैसले, खानपान जैसे जीवन के छोटे फ़ैसलों से लेकर जीवनसाथी चुनने और नौकरी करने जैसे बड़े फ़ैसले की कमान पुरुषों को सौंप देना। यह वह हद है, जिसमें महिलाओं को सदियों से समेटने का प्रयास किया गया है, पर अब ज़रूरी है कि हम इसकी पहचान करें और इस पर सवाल करें और इन सभी हदों को चुनौती दें।

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तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए