इंटरसेक्शनलजेंडर औरतों के लिए मीडिया का पेशा क्यों है आज भी इतना चुनौतीपूर्ण

औरतों के लिए मीडिया का पेशा क्यों है आज भी इतना चुनौतीपूर्ण

मीडिया के हर एक सेक्टर में पुरुष ऊंचे पद पर तैनात है। ऑफिस में महिलाओं की संख्या में पुरुषों के मुकाबले कम देखी जाती है। हालांकि इन पुरुषों के बीच कुछ महिलाएं भी काम करती है लेकिन उनमें से ज्यादातर वर्ग, जाति, धर्म आदि के आधार पर विशेषाधिकार प्राप्त तबके से संबंध रखती हैं।

मीडिया अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण पेशा है। जेंडर की अवधारणा और पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं के लिए इसे और मुश्किल बनाती है। मीडिया एक ऐसा क्षेत्र है जहां काम करने का कोई एक तय वक्त नहीं होता है। वक्त, बेवक्त कभी भी न्यूज़ कवर करने जाना पड़ता है। ख़बर आने का कोई तय समय नहीं होता। कभी भी कोई भी घटना घट सकती है और इसके लिए एक पत्रकार को 24 घंटे तैयार रहना पड़ता है। ख़बर रात के 12 बजे आए या सुबह 3 बजे, एक पत्रकार को उस जगह उसी समय पहुंचना पड़ता है। महिलाओं के लिए पत्रकारिता का क्षेत्र हमेशा से चुनौतियों से भरा रहा है। पत्रकारिता के क्षेत्र में करियर बनाने के लिए पहली जंग घर से ही शुरू होती है। घरवालों को इस फील्ड के बारे में समझाना, उन्हें राज़ी करना, जैसी कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मीडिया एक ऐसा क्षेत्र है जहां संभावनाएं बहुत हैं लेकिन सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं होती है।

बाकी क्षेत्रों की तरह मीडिया के क्षेत्र में भी महिलाओं की तुलना में पुरुषों का अधिक दबदबा है। मीडिया भले ही महिला सशक्तिकरण, लैंगिक समानता, महिलाओं की न्याय की बात करता हो लेकिन इस क्षेत्र में काम करने के लिए महिलाओं को बराबरी का हक नहीं दिया गया है। चाहे वह प्रिंट मीडिया हो इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल मीडिया, हर जगह पुरुषों की अधिक संख्या है। इसका मूल कारण मीडिया के क्षेत्र में महिलाओं के ज्ञान, बौद्धिक प्रखरता को कम आंकना भी है। उनके ग्लैमर, लुक, और बाहरी खूबसूरती के मायने इतने अधिक गिना दिए जाते हैं कि उनके ज्ञान को महत्व ही नहीं दिया जाता है। आज मीडिया चैनल्स में महिला एंकरों का वर्चस्व ज्यादा है। लेकिन मीडिया और समाज का एक वर्ग इसका मूल कारण उनकी बौद्धिक क्षमता को नहीं बल्कि उनके लुक, स्टाइल और सुंदरता को कारण मानता है। चैनल्स को अपने व्यूज, टीआरपी की चिंता होती है, जो भी महिला अपना पूरा समय चैनल्स या संस्थान को देती है चैनल्स उन्हें ही सहयोग देता है।

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मीडिया और लैंगिक असमानता और बात बड़े शहरों की

छोटे शहरों की लड़कियों के लिए चुनौतियां तो और बढ़ जाती हैं। छोटे शहर और गांव-कस्बों की लड़कियों को एक छोटे मुकाम तक सफर तय करने में कई साल लग जाते हैं। हमारे परिवार इन सारी उलझनों से परे एक स्थायी पेशे में करियर बनाने की मांग करते हैं, जहां सुरक्षा भी मिले और आराम की जिंदगी भी हो। एक छोटे कस्बे से बड़े शहर में जाकर मीडिया जैसे अनिश्चितताओं से भरे क्षेत्र में काम करना लड़कियों के लिए काफी चुनौतीपूर्ण है।

मीडिया क्षेत्र में अगर छोटे शहर की लड़कियां आती हैं तो उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यहां पुरुषों का वर्चस्व महिलाओं से कहीं ज्यादा है। मीडिया के हर एक सेक्टर में पुरुष ऊंचे पदों पर तैनात हैं। ऑफिस में महिलाओं की संख्या में पुरुषों के मुकाबले कम देखी जाती हैं। हालांकि, इन पुरुषों के बीच कुछ महिलाएं भी काम करती हैं लेकिन उनमें से ज्यादातर वर्ग, जाति, धर्म आदि के आधार पर विशेषाधिकार प्राप्त तबके से संबंध रखती हैं। शुरुआत में छोटे कस्बों-शहरों से आने वाली लड़कियां मीडिया कार्यक्षेत्र में असहजता का भी सामना करती हैं। पितृसत्तात्मक समाज अपनी मानसिकता इन महिलाओं पर हावी कर देता है। यही वजह है कि छोटे शहरों की महिलाएं किसी और शहर में जाकर जल्दी घुल-मिल नहीं पाती हैं। उन्हें बड़े शहर के वातावरण में खुद को ढालने में समय लगता है।

मीडिया के हर एक सेक्टर में पुरुष ऊंचे पद पर तैनात है। ऑफिस में महिलाओं की संख्या में पुरुषों के मुकाबले कम देखी जाती है। हालांकि इन पुरुषों के बीच कुछ महिलाएं भी काम करती है लेकिन उनमें से ज्यादातर वर्ग, जाति, धर्म आदि के आधार पर विशेषाधिकार प्राप्त तबके से संबंध रखती हैं।

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मीडिया में लोगों के बीच जाकर रिपोर्टिंग, ख़बर करने का काम इस पेशे की पहली मांग है। ऐसी जगहों पर उनके साथ दुर्व्यवहार भी होता है। आउटडोर असाइनमेंट पर अगर महिलाएं जाती हैं तो सुरक्षा का सवाल उनके सामने आ जाता है। मीडिया में काम करने वाली महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार को ख़बर बनाकर हंगामा तो बहुत होता है लेकिन समस्या का सामाधान नहीं किया जाता है।

अखबार, टीवी चैनल, मैगजीन, वेबसाइट्स सभी पर पोस्ट कर लोगों की राय मांगी जाती है। समाज को उन्हीं के द्वारा किए गए दुर्व्यवहार से रूबरू करवाया जाता है। लेकिन मीडिया की सच्चाई यह है कि वह खुद संगठन और संस्थान के तौर पर महिला पत्रकारों की सुरक्षा सुविधा के लिए कोई काम नहीं करता है। देर रात या दूर-दराज़ इलाकों में रिपोर्टिंग के लिए महिला रिपोर्टर की जगह पुरुष रिपोर्टर को मौका दिया जाता है। मीडिया में महिलाओं के लिए कार्यक्षेत्र में होने वाली समस्याओं का समाधान न निकालकर उनसे आउटडोर असाइनमेंट ही नहीं दिए जाते हैं।

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मेरी कहानी

मैं बिहार से हूं और अपनी शिक्षा यहीं से पूरी कर रही हूं। घर में मीडिया की पढ़ाई पढ़ने के लिए एक अलग जंग लड़नी पड़ती है। मैंने टीवी देखकर मीडिया में करियर बनाने का फैसला लिया था। मैं एंकर बनना चाहती थी। कई लोगों ने अपने विचारों से मेरे फैसले को बदलना चाहा। एक स्थायी नौकरी के लिए पढ़ाई करने का दबाव बनाया। साल 2019 में बारहवीं की परीक्षा देने के बाद ही मेरे माता-पिता ने मुझे मेरे पसंद का कोर्स चुनने में तो कोई बाधा नहीं डाली। मीडिया की पढ़ाई की इज़ाजत के लिए बहुत से सवाल जरूर किए। उस समय मेरे लिए परिस्थिति अलग हो गई थी। लेकिन इससे अलग छोटे शहरों के परिवार में बारहवीं के बाद क्या करना है, किस क्षेत्र में जाना है पहले से ही निर्णय कर लिया जाता है। या तो बच्चा अपने अनुसार किसी स्थायी क्षेत्र में पढ़ाई करने का फैसला करें या फिर माता-पिता जिस क्षेत्र में करियर बनाने को कहे वहीं चुनना पड़ता है।

अधिकतर माता-पिता विज्ञान लेने के लिए बच्चों पर दबाव डालते हैं ताकि आगे चलकर उनका बच्चा डॉक्टर, इंजीनियर, बैंक या टीचर की नौकरी करें। ये सब पहले से तय कर लिया जाता है। अक्सर सभी घरों में ऐसा ही होता है। अगर घर का कोई बड़ा इंजीनियरिंग कर रहा है तो छोटे बच्चों पर इसका दबाव ज्यादा हो जाता है। मेरे घर में मेरी बड़ी बहन ने बारहवीं के बाद इंजीनियरिंग की। ऐसे में मेरा बड़ी बहन से अलग अपने भविष्य के लिए मीडिया क्षेत्र का चुनाव करना बहुत अलग फैसला था। घरवालों को मेरे इस क्षेत्र में पढ़ाई करने की इच्छा से कोई समस्या नहीं थी। लेकिन हमारे जिले में मीडिया का कोई संस्थान नहीं होना और बाहर जाकर पढ़ना बहुत बड़ी बाधा थी। घरवाले बाहर भेजने से डरते थे। “छोटी है, कैसे घर से दूर रहेगी,” और सुरक्षा का सवाल उनके लिए बहुत ज्यादा परेशानी करने वाला विषय था। यह शायद हर माता-पिता के मन में आता है। घर से नज़दीक मौजूद एक संस्थान में मेरा पत्रकारिता के कोर्स में दाखिला हुआ। अभी मैं पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की तीसरे वर्ष की छात्रा हूं।

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मेरे जीवन में मुश्किल ने उस वक्त अपनी जगह बनाई जब इंटर्नशिप करने की बारी आई। कई मीडिया संस्थान बड़े नामी संस्थानों के बच्चे को ही अपने यहां काम करने की इज़ाजत दी। पढ़ाई के दौरान ही यह पाया कि किसी मीडिया संस्थान में पहले काम के मौके में असमानता का सामना किसी बड़े संस्थान से न पढ़े होने की वजह से भी करना पड़ता है। आज के दौर में बड़ी जगह, नामी संस्थान का नाम आपके नाम से जुड़ जाए तो वह आपकी योग्यताओं को बढ़ाता है। इससे अलग हर मीडिया संस्थानों में नौकरी पर रखने से पहले पिछले अनुभव की भी मांग करता है। वहीं मीडिया संस्थानों में महिलाओं को अनुभव देने से भी इनकार कर दिया जाता है। बड़े संस्थानों से डिग्री लेने के बाद अनुभव का कोई महत्व नहीं रह जाता है। नामी संस्थानों का नाम ही काफी है, मीडिया के क्षेत्र में ऐसा भी एक चलन है।

इस लेख को लिखने से पहले मैंने कई लड़कियों से बात की जिसमें छोटे शहर से आने वाली लड़कियों के द्वारा मीडिया की पढ़ाई पढ़ने और काम पाने जैसे विषयों पर खुलकर बात हुई। किसी के माता-पिता को उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे, तो कोई अपनी बेटी को खुद के मुताबिक करियर बनाने की सलाह दे रहे थे। तो वहीं, कुछ महिलाओं ने कई मीडिया हाउस की करतूतों के बारे में बात की। उनके ज्ञान से ज्यादा बल्कि वे कैसी दिखती हैं, इस पर ध्यान केंद्रित किया गया। कैमरा के लिए चेहरा ठीक है या नहीं आदि पहलुओं पर बातचीत हुईं। इन्हीं वजहों से कई लड़कियों के माता पिता और रिश्तेदार मीडिया को सुरक्षित करियर का विकल्प नहीं मानते हैं।

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तस्वीर साभार: Daily Sabah

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