इतिहास हौसाबाई पाटिल: स्वतंत्रता संग्राम में लंबे समय तक सक्रिय क्रांतिकारी जो अपने आख़िरी सांस तक जन संवेदना से भरी थीं

हौसाबाई पाटिल: स्वतंत्रता संग्राम में लंबे समय तक सक्रिय क्रांतिकारी जो अपने आख़िरी सांस तक जन संवेदना से भरी थीं

हौसाताई के बारे में डिजिटल मीडिया पर अंग्रेज़ी, हिंदी में बेहद कम जानकारी उपलब्ध है। ये हमारे देश के इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम की स्मृतियों के साथ धोखा है।

एक साक्षात्कार में हौसाबाई ने बताया था, “मैं जब तीन साल की थी मेरी माँ का देहांत हो गया था। उस समय मेरे पिता स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित हो चुके थे। इससे पहले भी वह ज्योतिबा फुले के आदर्शों से प्रभावित थे। बाद में महात्मा गांधी से भी प्रभावित हुए। उन्होंने तलाती (गांव का अकाउंटेंट) की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए। उनका उद्देश्य था हमारी अपनी सरकार बनाना और ब्रिटिश सरकार को भारी नुकसान पहुंचाना, ताकि हम उनसे छुटकारा पा सकें।”

हौसाबाई को अक्सर प्रेम से ‘हौसा ताई’ भी कहा जाता है। मराठी में बड़ी बहन को सम्मान देने के लिए ‘ताई’ कहते हैं। हौसाताई का जन्म 12 फरवरी 1926 में महाराष्ट्र के सांगली ज़िले में हुआ था। उनके पिता का नाम क्रान्ति सिंह नाना पाटिल था। वह एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। हौसाबाई अपने पिता और उनके अन्य पुरुष साथियों के साथ स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में हमेशा अपनी भागीदारी देती रहीं।

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हौसाबाई साल 1943 से 1946 के बीच क्रांतिकारियों की एक महत्वपूर्ण टीम का हिस्सा थीं। इस टीम ने ब्रितानी सरकार की ट्रेन पर हमला करके उनके हथियारों को लूटा था और डाक बंगलों में आग लगा दी थी। साल 1944 में उन्होंने गोवा में हुई भूमिगत कारवाई में हिस्सा लिया था। गोवा तब पुर्तगाली शासन के तहत था। इस संघर्ष में उन्हें और उनके कॉमरेड को आधी रात को लकड़ी के डिब्बे के ऊपर बैठकर मंडोवी नदी पार करनी पड़ी थी। वह इस घटना को याद करते हुए विनम्रता भाव में कहती हैं, “मैंने बापू लाड (उनके मौसेरे भाई) के साथ स्वतंत्रता संग्राम में एक बहुत छोटा काम किया था। मैंने कुछ भी बड़ा या महान काम नहीं किया।”

एक बार उनके पिता और उनके 500 अन्य सहयोगियों के ख़िलाफ़ वारंट जारी हो गया था। उन्हें अपना काम भूमिगत होकर करना पड़ता था। वह गांव-गांव घूमते, लोगों को स्वतंत्रता की लड़ाई में जुड़ने के लिए प्रेरित करते, भाषण देते, बग़ावत के लिए प्रेरित करते फिर उन्हें भूमिगत होना पड़ा। इसके बाद अंग्रेजों ने उन्हें ‘सबक सिखाने’ के लिए उनकी संपत्ति, खेत ज़ब्त कर लिए थे। इसके कारण उनके पीछे परिवार पर आर्थिक संकट आ पड़ा। उस समय को याद करते हुए ताई बताती हैं, “हमारे लिए केवल एक कमरा बचा। उसमें हम कई लोग रहते थे। मेरी दादी, मैं, मेरी चाची।”

हौसाबाई साल 1943 से 1946 के बीच क्रांतिकारियों की एक महत्वपूर्ण टीम का हिस्सा थीं। इस टीम ने ब्रितानी सरकार की ट्रेन पर हमला करके उनके हथियारों को लूटा था और डाक बंगलों में आग लगा दी थी

हौसाबाई तब से एक तरह से अपने पिता की हिम्मत थीं। उन्हें और घर की अन्य महिलाओं को घर चलाने और पेट भरने के लिए कई दिक्क़तें उठानी पड़ीं, क्योंकि खेत ज़ब्त थे, वे खेत नहीं जोत सकती थीं, अनाज़ नहीं उगा सकती थीं। तब उन्होंने दूसरों के घरों और खेतों में काम किया। लेकिन कुछ दिन बाद यह काम भी चला गया। गांववालों को डर रहता कि कहीं अंग्रेज़ सरकार एक ‘फ़रार’ स्वतंत्रता सेनानी के परिवार को काम देने, मदद करने के एवज़ में उन्हें नुकसान न पहुंचाए।

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उनके एक मामा ने उन्हें बैलगाड़ी दी। गुड़, मूंगफली इत्यादि की गाड़ी से ढुलाई करके उससे होनेवाली कमाई से उन्होंने अपना घर चलाया। उनके परिवार की अन्य महिलाएं इन बैलों को तंदरुस्त रखने के लिए खेतों से कुछ उखाड़ लाती और उन्हें खिलातीं। अक्सर स्वतंत्रता सेनानियों पर बात करते हुए हम कुछ बिंदुओं को, जैसे, उनके पीछे उनका घर कैसे चला, घर की महिलाओं ने क्या-क्या सहा, कैसे गृहस्थी को संभाला नज़रअंदाज़ कर देते हैं। हौसाबाई जब अपने अनुभव बताती हैं जो अपनी दादी, चाची के इन काम को बताना नहीं भूलती हैं। 

हौसाबाई के जीवन में एक और घटना जो उनके साहस और कलात्मकता के बारे में बताती है। एक बार वह पुलिस स्टेशन पहुंची। उनका पति उन्हें बेरहमी से पीट रहा था। यह सब सांगली से पुलिस थाने के सामने हो रहा था। थाने में दो पुलिसकर्मी मौजूद थे। जब पति ने बड़ा सा पत्थर उठाया और उनकी जान लेनेवाला था तब पुलिसकर्मी थाने से बाहर आए। उन्होंने झगड़ा शांत करवाने और दंपत्ति के बीच सुलह करवाने की कोशिश की। वहां उनका भाई भी मौजूद था, जिससे वह उन्हें घर ले जाने की गुजारिश कर रही थीं, पति से मुक्त करवाने की गुहार लगा रही थीं। लेकिन उनका भाई ऐसा करने के पक्ष में नहीं था। पुलिसवालों ने पति को समझाया और उन्हें दो टिकट देकर विदा किया। 

यह एक नाटक था। इसी बीच हौसाबाई के अन्य साथियों ने थाना लूट लिया। भाई और पति असली नहीं बल्कि किरदार थे। वह इस घटना को याद करते हुए नाराज़ भी होती हैं, क्योंकि नाटक असली दिखाने के लिए ‘पति’ के उन्हें जोर से मार दिया था। ये सभी ‘कलाकार’ तूफ़ान सेना के सदस्य थे। तूफ़ान सेना, प्रति सरकार की सशस्त्र शाखा थी। साल 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के एक सशस्त्र हिस्से के रूप में उभर आए इस समुदाय के क्रांतिकारियों ने सतारा में (जिसका हिस्सा सांगली भी था) में अंग्रेजी सरकार के समांतर अपनी सरकार की घोषणा की थी। रामचंद्र श्रीपति लाड उर्फ कैप्टन भाऊ एक अहम सदस्य थे।

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अक्सर स्वतंत्रता सेनानियों पर बात करते हुए हम कुछ बिंदुओं को, जैसे, उनके पीछे उनका घर कैसे चला, घर की महिलाओं ने क्या-क्या सहा, कैसे गृहस्थी को संभाला नज़रअंदाज़ कर देते हैं। हौसाबाई जब अपने अनुभव बताती हैं जो अपनी दादी, चाची के इन काम को बताना नहीं भूलती हैं। 

हौसाबाई के पिता ‘प्रति सरकार’ के प्रमुख थे। साल 1940 के आसपास इसकी स्थापना की गई थी। 600 गांव में यह सरकार के तौर पर काम करती थी। हौसाबाई ‘प्रति सरकार’ और ‘तूफ़ान’ सेना के बारे में कहती हैं, “मेरे मौसेरे भाई बापू मुझे संदेश देते थे, घर मत बैठना!” बापू लाड प्रति सरकार के प्रमुख नेता थे। शादी के बाद भी वह बापू लाड के साथ सक्रिय होकर काम करती थीं।  हौसाबाई गिरफ्तार साथियों को संदेश पहुंचाने का काम करती थीं। जैसे, जब गोवा में एक कॉमरेड को पुर्तगाली सरकार ने गिरफ्तार किया था तब वे उनकी बहन बनकर उनसे मिलने जेल गई थीं। उन्होंने फ़रार होने की योजना की जानकारी लिखकर पर्चा उनतक पहुंचाया था। 

साल 2021 में 95 साल की उम्र में हौसाताई ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। सितंबर के महीने में मृत्यु के समय वह कराड में थी। महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजीत पवार ने उनकी मृत्यु पर जारी अपने बयान में ताई को महाराष्ट्र राज्य के निर्माण, गोवा को पुर्तगाली शासन से मुक्त करने में उनके अहम रोल के लिए याद करते हुए शोक व्यक्त किया था।

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‘इंडीई जर्नल’ की स्नेहल वारेकर हौसाताई के साथ अपनी मुलाकात याद करते हुए बताती हैं कि आख़री समय तक वे जनहित के बारे में सोचती थीं। “जब मैं उनसे पहली बार मिली थी तब उन्होंने गन्ने काटने वालों के बच्चों के बारे में चिंता जाहिर की थी। दीवाली का समय था। उन्होंने कहा था कि कैसे हम कोई त्योहार मना सकते हैं जब कहीं कोई इंसान अपने बच्चों के साथ मजदूरी कर रहा है। उन्होंने मिठाईयां नहीं खाईं, वह तब 93 साल की थीं। वह ऊर्जा और प्रेरणा का स्त्रोत होने के साथ साथ प्रेम और उदारता से लबरेज़ थीं।”

स्नेहल बताती हैं कि हौसाताई को ‘तूफ़ान सेना’ की महिलाओं पर गर्व था। इस दौर में महिलाओं की स्थिति पर उन्होंने कहा था, “हम तब घरों से बाहर निकलीं थीं जब औरतों को चारदीवारी में कैद रखा जाता था। आज की औरतों को चुप बिल्कुल नहीं रहना चाहिए, उन्हें स्वयं को बच्चे संभालने और खाना पकाने तक सीमित नहीं रखना चाहिए, उन्हें अपने अधिकारों के लिए पुरुषों के साथ लड़ना चाहिए।” उन्होंने अंत समय तक हमेशा अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ खड़े रहने की बात की।” अगर आपको सरकार से संतोषजनक जवाब नहीं मिले तो लड़ने के लिए तैयार रहें।” हौसाताई के बारे में डिजिटल मीडिया पर अंग्रेज़ी, हिंदी में बेहद कम जानकारी उपलब्ध है। ये हमारे देश के इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम की स्मृतियों के साथ धोखा है।

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तस्वीर साभारः Wire

स्रोतः

People’s Archive of Rural India

The Times of India

IndieJournal.in

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