इंटरसेक्शनलशरीर पितृसत्ता को बढ़ावा देती ‘बॉडी शेमिंग’| नारीवादी चश्मा

पितृसत्ता को बढ़ावा देती ‘बॉडी शेमिंग’| नारीवादी चश्मा

बॉडी शेमिंग प्रभावी ढंग से पितृसत्ता को पोसने का काम करती है इसलिए सुंदर, फ़िट और परफ़ेक्ट जैसे शब्दों के पीछे छिपी पितृसत्तात्मक सोच को अब हमें समझना होगा।

“कितनी मोटी हो, अपने शरीर पर थोड़ा ध्यान दो। फ़िट और शेप में रहने की कोशिश करो।”

“इतनी पतली हो। तुम्हारे शरीर का तो कोई शेप ही नहीं है।”

‘तुम्हें अपनी साँवली रंगत को गोरा करने के लिए कुछ करना चाहिए।‘

अपने शरीर के रंग, बनावट, वजन और शेप को लेकर आपने कभी न कभी हंसी-मज़ाक़ में या कई बार गंभीर तानों में ऐसी बातें ज़रूर सुनी होंगी, जो कि बॉडी शेमिंग कहलाती है। यूं तो ये बातें बेहद साधारण हैं, क्योंकि बचपन से ही शारीरिक बनावट के आधार पर हम अपने आसपास के लोगों को मज़ाक़ उड़ाते और उन्हें फ़िट-अनफ़िट बताते हुए देखते हैं। यही वजह है कि बचपन से हमारा समाज लड़कियों की कंडिशनिंग खुद को सुंदर बनाने की तरफ़ ज़्यादा करता है, क्योंकि पितृसत्ता में महिलाओं का सुंदर होना उनका एक ज़रूरी हिस्सा माना जाता है। इसके लिए वह खेल के ज़रिए लड़कियों को समाज के तय किए गए सुंदरता के मानकों को पहले अपनी गुड़िया को सजाने में लागू करने की कंडिशनिंग करता है और कुछ समय बाद धीरे-धीरे वे खुद इस कंडिशनिंग अपने पर लागू कर खुद को भी समाज के अनुसार फ़िट और परफ़ेक्ट बनाने में लग जाती हैं।

पर वास्तव में ये साधारण सी लगने वाली बातें हमारी सोच में बसी रूढ़िवादी पितृसत्ता को दर्शाती हैं, जिसके तहत अपने भारतीय समाज में महिलाओं के शरीर को लेकर सदियों से अक्सर ऐसी बातें कही जाती रही हैं। गाथाओं-कथाओं में भी महिलाओं के चित्र खुद को सजाते-संवारते ज़्यादा दिखाए गए। यही वजह है कि समाज की बतायी गयी ‘अच्छी औरत’ के गुणों के साथ-साथ उसके शरीर को ख़ास केंद्र में रखा गया है। यही वजह है कि जब भी हम किसी ‘अच्छी और सुंदर औरत’ की कल्पना करते हैं, उसमें समाज के गढ़े गए सुंदरता के मानकों पर खरी उतरती छरहरी बदन वाली और गोरी महिला की छवि ही हमारे मन में आती है।  

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इस सुंदर महिला की छवि में खुद को फ़िट बैठाने के नाम पर बाज़ार ने अपना बड़ा बाज़ार फैलाया है। ये सुंदरता के मानक ही हैं जो कभी गोरे रंग पाने तो कभी दो महीने में वजन घटाने के नाम पर अपने व्यापार को बढ़ा रहे हैं। सुंदरता के नाम पर फैले इस बाज़ार की ही देन है जो इंसानों में अपने शरीर को लेकर असंतोष बढ़ा है, वह अपने शरीर को समाज की बतायी गयी परफ़ेक्ट बॉडी की छवि में फ़िट बैठाना चाहते हैं।

परफ़ेक्ट बॉडी के विचार ने समाज में जेंडर आधारित भेदभाव को बढ़ावा दिया, जिसके चलते महिला-पुरुष के जेंडर से इतर ट्रांस समुदाय व मानसिक व शारीरिक विकलांगता झेल रहे लोगों को हाशिए पर लाया गया।

परफ़ेक्ट बॉडी वाली पितृसत्तात्मक नीति

सदियों से पितृसत्ता ने हमारे समाज में परफ़ेक्ट बॉडी को ही मान्यता दी है और इसे ही योग्य बताया है। वह परफ़ेक्ट बॉडी जिसकी परिभाषा और मानक पितृसत्ता ने तैयार किए है। इसलिए जब भी हम बॉडी शेमिंग की बात करते है तो इसके साथ पितृसत्ता पर चर्चा करना ज़रूरी हो जाता है। बॉडी शेमिंग और पितृसत्ता के संबंध को बताते हुए कमला भसीन कहती हैं कि ‘पितृसत्ता में शरीर को हमेशा से अत्यधिक महत्व दिया गया है और चूंकि केवल शरीर को अहमियत दी जाती है, इसलिए इसकी निंदा भी अधिक होती है।

वह कहती हैं कि पितृसत्ता में ना सिर्फ महिलाओं को बल्कि पुरुषों की शारीरिक बनावट को भी बराबर महत्व दिया जाता है। इसलिए दोनों ही वर्गों का शारीरिक बनावट के प्रतिमानों पर सटीक ना बैठने से उनका शरीर निंदा और हंसी का पात्र बन जाता है। किसी भी महिला के शरीर के लिए सिर्फ कोमल, सुंदर जैसे पर्यायवाची का इस्तेमाल किया जाना और पुरुष को काबिल, ताकतवर, सोचने और फैसले करने की क्षमता रखने वाला बताया जाना पितृसत्तात्मक सोच है। पितृसत्ता नारी के शरीर को प्रकृति का हिस्सा मानती है और उसका तन ही उसकी विशेषता बन जाती है तो दूसरी ओर पुरुष की विशेषता उसकी संस्कृति, विचार और मन है।‘

परफ़ेक्ट बॉडी के विचार ने समाज में जेंडर आधारित भेदभाव को बढ़ावा दिया, जिसके चलते महिला-पुरुष के जेंडर से इतर ट्रांस समुदाय व मानसिक व शारीरिक विकलांगता झेल रहे लोगों को हाशिए पर लाया गया। पितृसत्ता ने परफ़ेक्ट का विपरीत हमेशा अजीब गढ़ा है और वो अजीब रहा उसे समाज ने सिरे से नकारा है। यही वजह है कि ट्रांस समुदाय और विकलांग लोगों को आज भी बॉडी शेमिंग का बुरी तरह शिकार होना पड़ता है, कई बार उनके साथ हिंसा उनका मज़ाक़ उड़ाकर तो कई बार उनकी यौनिकता पर अपना शिकंजा कसकर किया जाता है।

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जातिगत भेदभाव, लैंगिक हिंसा और यौन उत्पीड़न जैसी समस्याओं को हम गंभीर समस्याओं के रूप में देखते हैं। पर हमारे घर में बच्चे के जन्म लेने से लेकर शुरू होने वाली बॉडी शेमिंग (कभी बच्चे के सांवले रंग को केंद्रित कर उनका नामकरण तो कभी घरेलू नुस्ख़ों से उसके रंग को गोरा करने की जद्दोहजहद) आजीवन ज़ारी रही है, जो लगातार मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। वहीं, पितृसत्ता के बताए परफ़ेक्ट बॉडी के खांचे में फ़िट न बैठने वाले लोगों को हिंसा का शिकार बना मुख्यधारा से अलग करने का काम करती है।

बॉडी शेमिंग प्रभावी ढंग से पितृसत्ता को पोसने का काम करती है इसलिए सुंदर, फ़िट और परफ़ेक्ट जैसे शब्दों के पीछे छिपी पितृसत्तात्मक सोच को अब हमें समझना होगा कि किस तरह ये समाज के हर दूसरे-तीसरे इंसान में असंतोष बढ़ाने का काम कर रही है, जिससे मानसिक तनाव और खुद को कमतर मानने की समस्या बढ़ती जा रही है। हमें समझने की ज़रूरत है कि हर इंसान अपने आप में ख़ास होता है। पर ये ख़ासियत हम सिर्फ़ तभी देख पाएंगें जब अपने मन में बैठे सुंदरता के मानकों को हम चुनौती देना सीखेंगें। हम अपने आपको स्वीकार करें और प्यार करें।

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तस्वीर : सुश्रीता भट्टाचार्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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