संस्कृतिकिताबें अमृता प्रीतम की रचनाओं में है एक ‘आज़ाद रूह’ की झलक

अमृता प्रीतम की रचनाओं में है एक ‘आज़ाद रूह’ की झलक

अमृता की रचनाओं में उनके लेखन की गंभीरता और उनके जीवन के बेहद गहरे अनुभवों की छाप दिखाई देती है। उनकी अधिकतर रचनाएं महिला पात्रों पर केंद्रित रहीं जो महिलाओं को एक अलग तरह से चित्रित करती हैं। उनकी महिला पात्रों में स्वतंत्रता और अपने अस्तित्व को लेकर सजगता साफ तौर पर दिखाई देती है।

अमृता प्रीतम एक ऐसा व्यक्तित्व जिन्हें जितना पढ़ा और समझा जाए कम है। जब भी एक आज़ाद रूह, एक नारीवाद और एक सशक्त महिला की बात होती है तो अमृता प्रीतम का नाम मेरी ज़ुबान पर सबसे पहले आता है। अमृता, जिन्होंने अपनी कलम से पितृसत्ता, शोषण और समाज में मौजूद रूढ़िवाद पर गहरा प्रहार किया। एक ऐसी औरत जिसने बनी-बनाई सामाजिक मान्यताओं और पैमानों को तोड़ते हुए अपने ढंग से अपना जीवन जीया और इसके लिए दूसरी औरतों को प्रेरित भी किया। 

बीसवीं सदी के साहित्यकारों में अमृता प्रीतम एक बड़ा नाम है। वह पंजाबी भाषा की पहली लेखिका मानी जाती हैं जिन्होंने पंजाबी कविताओं को वैश्विक मंच तक पहचान दिलाई। उनका जन्म लाहौर में हुआ पर बंटवारे के बाद वह भारत आ गईं। यहां आकर उन्होंने पंजाबी और हिन्दी दोनों भाषाओं में लेखन किया। पाकिस्तान में आज भी उनकी लोकप्रियता उतनी ही है। वह उन साहित्यकारों में गिनी जाती हैं जिनकी रचनाओं का विश्व की कई अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद किया गया। उन्होंने अपने जीवन में करीबन एक सौ किताबें लिखी। कविता, कहानी, निबंध सहित उन्होंने लगभग सभी साहित्यिक विधाओं में हाथ आजमाया और साहित्य को अपनी उत्कृष्ट कृतियों से समृद्ध किया है।

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अमृता अपने लेखन के माध्यम से सभ्यता और तथाकथित सभ्य समाज को जोरदार तमाचा मारती हैं। वह लिखती हैं, “सभ्यता का युग तब आएगा जब औरत की म़र्जी के बिना कोई औरत के जिस्म को हाथ नहीं लगाएगा!”

अमृता की रचनाओं में उनकी संवेदनशीलता और भावुकता झलकती है। साथ ही अपनी रचनाओं में वह समाज की सच्चाई को बहुत ही बेबाकी और रोमांचक तरीके से प्रस्तुत करती हैं। बंटवारे की विभीषिका को उन्होंने बेहद करीब से देखा था और उस दर्द को महसूस किया था। उनके जीवन पर इसका इतना गहरा असर हुआ जो उनकी रचनाओं में भी दिखता है। विभाजन के समय पंजाब की दुर्दशा और महिलाओं पर हुए अत्याचारों की पीड़ा से व्यथित होकर उन्होंने पंजाबी भाषा के सूफी कवि वारिस शाह को संबोधित करते हुए, “अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ” कविता लिखी जो बेहद मशहूर हुई। यह कविता यह बताती है कि सरहद के दोनों ओर उजड़े लोगों की टीस एक जैसी है यानी दर्द की कोई सरहद नहीं होती।

अमृता की रचनाओं में उनके लेखन की गंभीरता और उनके जीवन के बेहद गहरे अनुभवों की छाप दिखाई देती है। उनकी अधिकतर रचनाएं महिला पात्रों पर केंद्रित रहीं जो महिलाओं को एक अलग तरह से चित्रित करती हैं। उनकी महिला पात्रों में स्वतंत्रता और अपने अस्तित्व को लेकर सजगता साफ तौर पर दिखाई देती है। उनमें सामाजिक परंपराओं और बंधनों को तोड़ देने का साहस भी है और तथाकथित सामाजिक मर्यादाओं का बोझ उतारकर फेंकने की हिम्मत भी। अमृता अपनी कहानियों में औरत और मर्द के रिश्तों को औरत के नज़रिए से देखने की कोशिश करती हैं।

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उनके उपन्यास ‘धरती, सागर ते सीपियां‘ एक ऐसी लड़की की कहानी है जो बिना शर्त प्यार करती है लेकिन जब सामने वाला प्यार पर शर्त लगाने की कोशिश करता है तो अपनी मोहब्बत को बोझ नहीं बनने देते हुए अपना रास्ता खुद चुनती है। इस पर 70 के दशक में फिल्म भी बनी है, यह किरदार शबाना आजमी ने निभाया है। फिल्म की महिला पात्र समझौतों से जीवनयापन करना नहीं चाहती बल्कि जीवन को अपने ढंग से भरपूर जीना चाहती हैं। वह स्त्री-पुरुष असमानता को नकारती हैं और उस हक को पाने के लिए आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के साथ समाज से लड़ती है। उन्होंने अपनी रचनाओं में समाज के हर तबके से ताल्लुक रखनेवाली महिलाओं के किरदारों को गढ़ा है। तलाकशुदा महिलाओं की पीड़ा और वैवाहिक जीवन के कड़वे अनुभवों को उन्होंने बेहद भावनात्मक तरीके से बताया है। 

अमृता की नारीवादी सोच उनके समय के हिसाब से बहुत आगे की है। उनका लेखन बताता है कि किस तरह से हमारी सामाजिक व्यवस्था और पितृसत्ता एक महिला के जीवन को प्रभावित करती है। अपने पात्रों की पीड़ा और मानसिक वेदना को वह जिस तरह से रचनाओं में उकेरती हैं, उससे उनकी मनोवैज्ञानिक सोच का अंदाजा लगाया जा सकता है। कहते हैं कि किसी भी लेखक की वास्तविक जिंदगी की छाप उसके लेखन में भी दिखाई दे जाती है। अमृता भी इसका अपवाद नहीं है। उनकी बहुत सी कहानियां बीच में छूट जाती है या यूं कहें कि पूरी नहीं हो पाती है। उनमें भी उसी तरह का अधूरापन दिखता है जैसा उनका अपना जीवन रहा। सब कुछ होते हुए भी कुछ ना होना। उन्होंने जो लिखा खुद उसे जिया भी है।

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उन्होंने अपनी रचनाओं में स्वच्छंद प्रेम को स्थान दिया है। वह अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में साहिर और इमरोज के साथ अपने संबंधों के बारे में खुलकर लिखती हैं। इमरोज, जिसके साथ वह बिना शादी किए एक ही छत के नीचे अलग-अलग कमरों में रहीं। जब समाज ने इस बारे में उनसे पूछा और उनके रिश्ते पर सवाल उठाया तो उन्होंने कहा,  “हम दोनों ने प्रेम के बंधन को और मजबूत किया है। जब शादी का आधार ही प्रेम है तो हमने कौन सा सामाजिक नियम या बंधन तोड़ा है? हमने तन, मन, कर्म और वचन के साथ निभाया है, जो शायद बहुत से दूसरे जोड़े नहीं कर पाते। हमने हर मुश्किल का सामना किया है, इकट्ठे और पूरी सच्चाई से इस रिश्ते को जिया है।”

अमृता स्त्रियों के स्वतंत्र अस्तित्व को बहुत महत्व देती हैं। वह लिखती हैं, “जिसके साथ होकर भी तुम अकेले रह सको, वही साथ रहने योग्य है।” अमृता अपने लेखन के माध्यम से सभ्यता और तथाकथित सभ्य समाज को जोरदार तमाचा मारती हैं। वह लिखती हैं, “सभ्यता का युग तब आएगा जब औरत की म़र्जी के बिना कोई औरत के जिस्म को हाथ नहीं लगाएगा!”

अमृता की रचनाओं में उनके लेखन की गंभीरता और उनके जीवन के बेहद गहरे अनुभवों की छाप दिखाई देती है। उनकी अधिकतर रचनाएं महिला पात्रों पर केंद्रित रहीं जो महिलाओं को एक अलग तरह से चित्रित करती हैं। उनकी महिला पात्रों में स्वतंत्रता और अपने अस्तित्व को लेकर सजगता साफ तौर पर दिखाई देती है।

प्रेम और रिश्तों पर अमृता का लेखन हमें एक नयी दृष्टि देता है। वह प्रेम के लिए विवाह जैसे बंधनों को जरूरी नहीं मानती। उनकी प्रेम की धारणा स्त्री और पुरुष दोनों को प्रेम के लिए स्वतंत्र रखती है। वह अपने लेखन में स्त्रियों के हक की बात तो करती है पर सिर्फ एक पक्ष में ही खड़ी नहीं हो जाती। पुरुषों को लेकर भी उनमें वही कोमलता दिखाई देती हैं। लेकिन जब बात सामाजिक कुरीतियों की आती है तो वह आक्रामक होती दिखती हैं। वह पुरुषों की रूढ़िवादी सोच पर प्रहार करते हुए लिखती हैं, “भारतीय मर्द अब भी औरतों को परम्परागत काम करते देखने के आदि हैं, उन्हें बुद्धिमान औरतों की संगत तो चाहिए होती है, लेकिन शादी के लिए नहीं, एक सशक्त महिला के साथ की कद्र करना अब भी उन्हें नहीं आया है।” उनकी यह पंक्तियां आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है। 

अमृता प्रीतम ने अपने कलम और रचनाओं के माध्यम से औरतों को आवाज़ देने का काम किया है। साहित्य में उनके योगदान को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। वह साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली पहली महिला बनी। उन्हें 1969 में पद्म श्री, 1982 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार और 2004 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से नवाजा गया। उनके उपन्यास ‘पिंजर’ पर हिन्दी फ़िल्म निर्माता चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने 2003 में फ़िल्म भी बनाई जिसने खासी लोकप्रियता हासिल की।

अमृता प्रीतम ने एक पुराने इंटरव्यू में कहा था, “कोई भी लड़की, हिंदू हो या मुस्लिम, अपने ठिकाने पहुंच गई तो समझना कि ‘पूरो’ की आत्मा ठिकाने पहुंच गई।” इसके अलावा उनकी उपन्यास कोरे कागज़, आशू, पांच बरस लंबी सड़क, उन्चास दिन, अदालत, हदत्त दा जिंदगीनामा, सागर, नागमणि, और सीपियाँ, दिल्ली की गलियां, तेरहवां सूरज, रंग का पत्ता, धरती सागर ते सीपीयां, जेबकतरे, पक्की हवेली, कच्ची सड़क इत्यादि उल्लेखनीय हैं। उनके कहानी संग्रह ‘कहानियों के आंगन में’ और ‘कहानियां जो कहानियां नहीं हैं’ नाम से प्रकाशित हुए।

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तस्वीर साभार: The Friday Times

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