इंटरसेक्शनलजेंडर किचन जो भट्टी बनकर महिलाओं के वक़्त और सपने को झोंक लेते हैं

किचन जो भट्टी बनकर महिलाओं के वक़्त और सपने को झोंक लेते हैं

हम लोगों के समाज में बचपन से ही लड़कियों को होश संभालने के साथ-साथ उनके हाथ में किचन की कमान दी जाने लगती है। इसलिए किचन का 'मालिक' भी महिलाओं को ही कहा जाता है। जब हम इस किचन में महिलाओं की स्थिति और उनकी सुविधा को लेकर इसकी पूरी संरचना और उसके पीछे के विचार को देखते हैं तो इसमें पितृसत्ता का रंग साफ़ दिखाई देता है।

घर के छोटे से किचन में खाना बनाते-बनाते अनीता की ज़िंदगी बीत गई। बनारस ज़िले के कटैया गाँव में रहनेवाली अनीता किचन पर चर्चा को लेकर कहती हैं कि उनके घर में कुल सत्रह लोग हैं। बड़े परिवार में सभी की खुराक भी काफ़ी होती है और घर के कोने में बने छोटे से किचन में परिवार के लोगों के लिए खाना बनाते-बनाते वह गर्मियों में अक्सर बीमार पड़ जाया करती हैं। रोशनदान या खिड़की न होने की वजह से किचन खाना बनाते समय भट्टी की तरह हो जाता है। पहले तो पूरा खाना चूल्हे पर बनता था जिसकी वजह से अनीता को सांस की भी दिक़्क़त हो गई। वह बताती हैं, “मैंने अपने मायके और फिर ससुराल में ऐसे ही छोटे से किचन में अपने परिवार के खाना बनाया है, जहां घर के कोने में छोटी-सी जगह में किचन बनाया है और जिसमें कोई भी खिड़की नहीं होती। आज भी घर में मेरा किचन ऐसा ही है।”

हम लोगों के समाज में बचपन से ही लड़कियों को होश संभालने के साथ-साथ उनके हाथ में किचन की कमान दी जाने लगती है। इसलिए किचन का ‘मालिक’ भी महिलाओं को ही कहा जाता है। जब हम इस किचन में महिलाओं की स्थिति और उनकी सुविधा को लेकर इसकी पूरी संरचना और उसके पीछे के विचार को देखते हैं तो इसमें पितृसत्ता का रंग साफ़ दिखाई देता है।

आधुनिकता के दौर में अब टीवी में दिखाए जानेवाले बड़े-बड़े किचन, अब धीरे-धीरे ही सही शहरों में पहुंचने लगे हैं। लेकिन अगर हम बात करें ग्रामीण क्षेत्रों में और ख़ासकर यहां के घरों में पाए जानेवाले किचन के पूरे सिस्टम की तो इसमें पितृसत्ता की वह जड़ता दिखाई देती है, जो आज भी महिलाओं के संघर्ष और समाज की पितृसत्तात्मक सोच को उजागर करती है। किचन की इसी पितृसत्तात्मक संरचना से जुड़े कुछ ज़रूरी पहलुओं पर चर्चा हम इस लेख के ज़रिये कर रहे हैं।

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दूसरों की नज़र से बचाते बिना खिड़की वाले दमघोंटू किचन

गाँव के अधिकतर किचन जो पुराने ज़माने में बनाए गए थे या फिर आज भी किसी मध्यमवर्गीय परिवार के जो किचन हैं, वहां किसी भी तरह की कोई खिड़की नहीं बनवाई जाती है। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि किचन ‘घर की लक्ष्मी’ यानी कि बेटी-बहु की जगह है और उन्हें हमेशा दूसरों की नज़र से बचाना है। अगर किचन में खिड़की होगी तो महिलाओं पर दूसरों की नज़र जाने लगेगी इसलिए किचन में खिड़कियां नहीं बनवाई जाती हैं। इस वजह से खाना बनने के दौरान किचन किसी भट्टी का रूप ले लेता है। यह महिलाओं को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रभावित करता है। कई बार गर्मियों के दिन में भट्टी बना ये किचन महिलाओं को इस तरह थका देता है कि किचन के काम के बाद वह किसी और काम को करने की इच्छा और ऊर्जा खोने लगती हैं।

बचपन से ही लड़कियों को यह बात सिखाई जाती है कि एक अच्छी महिला या गृहणी वह होती है जो किचन में ऐसे काम करें कि किसी को पता भी न चले। इसी सीख के साथ काम और किचन को लेकर शिकायत न करने की सख़्त हिदायत दी जाती थी।

ज़्यादा समय लेने वाले किचन के दो चूल्हे

गाँव में पहले चूल्हे पर खाना बनाया जाता था। आज भी लगभग हर घर में चूल्हा ज़रूर मौजूद होता है। हम सब इस बात से वाकिफ़ है कि चूल्हे पर खाना बनाने में काफ़ी ज़्यादा समय लगता है और इसका महिलाओं के शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। सरकारी योजनाओं के चलते अब कई घरों में गैस सिलेंडर पहुंच चुका है, पर वास्तविकता यही है कि महंगाई के चलते इनका इस्तेमाल न के बराबर होता है।

अधिक सदस्यों वाले परिवार में खाना बनाने का आधा भार आज भी चूल्हे पर होता है, जिसमें समय और शरीर दोनों की खपत ज़्यादा होती है। अगर हम गांव में महिलाओं की दिनचर्या को देखें तो उनका दिनभर के समय का आधे से अधिक हिस्सा सिर्फ़ किचन में बीत जाता है, क्योंकि सीमित और जटिल चूल्हे की व्यवस्था उनका ज़्यादा समय ले लेती है और इसके बाद उन्हें और किसी भी काम के बारे में सोचने का ज़रा भी समय नहीं मिल पाता है।

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घर के नक़्शे से कटा कोने वाला छोटा-सा किचन

आज भी जब गाँव में कोई घर का नक़्शा तैयार किया जाता है तो उसमें पहले सभी रहनेवाले लोगों और मेहमानों के कमरों को ज़्यादा जगह दी जाती है। इसके बाद बची हुई छोटी जगहों में किचन का नक़्शा तैयार किया जाता है। यह दिखाता है कि भले ही कहने को महिलाएं ‘किचन की मालिक’ होती हैं और उनके पकाए खाने से पूरे परिवार को ऊर्जा मिलती है, लेकिन इसके बावजूद घर के नक़्शे में उनकी जगह सबसे आख़िरी और कम होती है, जो पितृसत्ता की ग़ैरबराबरी वाली सोच को दिखाता है।

मुझे याद है कि मेरी एक रिश्तेदार में जब अपने घर के बनते वक्त किचन के साइज़ को बड़ा करने या फिर इसमें दीवार न बनाकर ओपन किचन बनाने की बात कही थी तो इसको लेकर उसके घर में ख़ूब लड़ाई हुई और यह कहा कि ये कितनी बुरी बात होगी कि घर की महिलाओं को किचन में काम करते घर के बाक़ी सदस्य देखें।

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हम शिकायत करते हैं कि महिलाएं तो कुछ करना नहीं चाहती और न ही समय निकाल पाती हैं। सच्चाई यही है कि समाज ने बड़ी होशियारी साथ किचन को ऐसा बनाया है कि महिलाएं चाहकर भी अपने बारे में सोच नहीं सकती हैं। असलियत यही है कि इस किचन में वह एक इंसान होने के भी अधिकारों को क़ायम रखने के लिए हर दिन संघर्ष कर रही होती हैं।

इज़्ज़त की परत को मोटा करते किचन

बचपन से ही लड़कियों को यह बात सिखाई जाती है कि एक अच्छी महिला या गृहणी वह होती है जो किचन में ऐसे काम करे कि किसी को पता भी न चले। इसी सीख के साथ काम और किचन को लेकर शिकायत न करने की सख़्त हिदायत दी जाती थी। इन बातों का मतलब साफ़ है कि इज़्जत के नाम पर महिलाओं को छोटे किचन में समेटने की साज़िश पितृसत्तात्मक है जो उनके श्रम को किसी के सामने भी ज़ाहिर नहीं होने देना चाहती। उन्हें यह एहसास है कि अगर महिलाओं की मेहनत को सामने लाया गया तो कहीं वो मेहनताने की बात न करने लगे।

ग्रामीण क्षेत्रों में ये कुछ ऐसी बातें है जो हमेशा किचन तक ही रह जाती हैं और हम शिकायत करते हैं कि महिलाएं तो कुछ करना नहीं चाहती और न ही समय निकाल पाती हैं। सच्चाई यही है कि समाज ने बड़ी होशियारी साथ किचन को ऐसा बनाया है कि महिलाएं चाहकर भी अपने बारे में सोच नहीं सकती हैं। असलियत यही है कि इस किचन में वह एक इंसान होने के भी अधिकारों को क़ायम रखने के लिए हर दिन संघर्ष कर रही होती हैं।

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तस्वीर साभार: iDiva

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