संस्कृतिकिताबें निर्मला पुतुलः स्त्री के मन की गिरहों को शब्दों में पिरोती एक कवयित्री

निर्मला पुतुलः स्त्री के मन की गिरहों को शब्दों में पिरोती एक कवयित्री

निर्मला पुतुल की कविताएं शुरुआत में समाज का दर्पण रहीं। जहां एक ओर उन्होंने संथाली समाज के भोलेपन, मेहनत, और प्रकृति से जुड़ाव के पक्ष को लोगों के सामने रखा वहीं दूसरी ओर नशा, अशिक्षा और कई बुराईयों को भी उसी बेबाकी के साथ लिखा।

निर्मला पुतुल संथाली भाषा की कवयित्री, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनका जन्म 6 मार्च 1972 को झारखंड के दुमका जिला के दुधनी कुरूवा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम स्वर्गीय सिरील मुरमू तथा माता का नाम कामिनी हांसदा हैं। निर्मला हिंदी कविताओं में आदिवासी समाज से एक बहुचर्चित नाम हैं। इनका शुरुआती जीवन हर ओर से संघर्ष से भरा रहा। उनके पिता और चाचा दोनों ही शिक्षक थे जिस वजह से उनके घर में शिक्षा का माहौल शुरू से ही था। लेकिन आर्थिक समस्याओं के कारण उनका अध्ययन अक्सर बाधित होता रहता था। उन्होंने सबसे पहले राजनीति शास्त्र में ऑनर्स किया और बाद में नर्सिंग में डिप्लोमा भी किया।

आदिवासी जीवन के बारे में तो उनकी जानकारी और समझ थी ही मगर पढ़ाई के बाद उन्होंने महसूस किया कि वास्तविकता अलग है। निर्मला पुतुल अपनी कविताओं के ज़रिये विकास और प्रगति की पूरी धारणा पर सवाल उठाती हैं। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज के उन पक्षों को आगे लाने की कोशिश की है जो आमतौर पर लोगों की नज़रों से ओझल हो जाता है। उनकी कविताओं में आदिवासी महिलाओं की पीड़ा एवं समस्याएं स्पष्ट रूप से नज़र आती हैं।

निर्मला की कविताओं में झारखंड तथा आदिवासी समुदाय की संस्कृति का सौंदर्यपूर्ण चित्रण भी साफ़ दिखता है। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से आदिवासी समाज के अनछुए पहलुओं को सबके सामने रखा है। निर्मला मुख्य रूप से हिंदी और संथाली में लिखती है। उनकी कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। कविताएं लिखने के अलावा निर्मला सामाजिक विकास के कार्यों में भी जुटी हुई हैं। 15 साल से अधिक समय से वह आदिवासी महिलाओं के विस्थापन, पलायन, उत्पीड़न, स्वास्थ्य, शिक्षा, जेंडर संवेदनशीलता, मानवाधिकार, सम्पत्ति का अधिकार, सामाजिक विकास, और आदिवासी महिलाओं के समग्र उत्थान, शिक्षा आदि बातों के लिए व्यक्तिगत रूप से तथा संस्थाओं के साथ जुड़कर भी काम कर रही हैं।

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निर्मला पुतुल की कविताएं शुरुआत में समाज का दर्पण रहीं। जहां एक ओर उन्होंने संथाली समाज के भोलेपन, मेहनत, और प्रकृति से जुड़ाव के पक्ष को लोगों के सामने रखा वहीं दूसरी ओर नशा, अशिक्षा और कई बुराईयों को भी उसी बेबाकी के साथ लिखा। उन्होंने महिलाओं की मन की स्थिति को बहुत ही अच्छे तरह से समझा तथा उसको उसी स्पष्टता के साथ लिखा। 

उनका जुड़ाव राज्य स्तरीय, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से भी हैं। महिला शिक्षा, आदिवासी एवं साहित्य से जुड़े कार्यक्रम और सम्मेलनों में उन्हें मुख्य भूमिका में बुलाया जाता है। उन्होंने कई संस्थाओं की स्थापना भी की है जैसे जीवन रेखा ट्रस्ट और संथाल परगना (झारखंड) की संस्थापक सचिव के अलावा वे जन संस्कृति मंच केन्द्रीय समिति, दिल्ली की उपाध्यक्ष भी हैं। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में भी बहुत कार्य किया। वे ग्रामीण, पिछड़ी, दलित, आदिवासी, आदिम जनजाति महिलाओं के बीच शिक्षा एवं जागरूकता के लिए विशेष रूप से प्रयासरत रही हैं।

निर्मला पुतुल की कविताएं शुरुआत में समाज का दर्पण रहीं। जहां एक ओर उन्होंने संथाली समाज के भोलेपन, मेहनत, और प्रकृति से जुड़ाव के पक्ष को लोगों के सामने रखा वहीं दूसरी ओर नशा, अशिक्षा और कई बुराईयों को भी उसी बेबाकी के साथ लिखा। उन्होंने महिलाओं की मन की स्थिति को बहुत ही अच्छे तरह से समझा तथा उसको उसी स्पष्टता के साथ लिखा। उनकी कविता “मेरे एकांत का प्रवेश द्वार” और “क्या तुम जानते हो” में उन्होंने एक स्त्री के एकांत और उसके मन के बारे में चर्चा की है।

उनकी ये कविताएं यह बताती हैं कि रिश्तों के गणित से परे भी स्त्री का एक अस्तित्व है, एक ज़िंदगी है। वह जिंदगी जो वह असल में जीना चाहती हैं, वह ज़िंदगी जो यह समाज कभी नहीं समझ सकेगा। उन्होंने स्त्री को रसोई और बिस्तर से परे उनके असल स्त्रीत्व को शब्दों में सजाया है। वहीं उनकी दूसरी कविता “संथाल परगना” में उन्होंने अपने जन्मभूमि में आ रहे दुखद बदलाव के बारे में लिखा है। कैसे तथाकथित आधुनिकरण उनकी संस्कृति निगल गया तथा वहां ओहदों पर बैठे बड़े लोग केवल अपना ही स्वार्थ साधते रहे।

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निर्मला पुतुल की रचनाएं स्त्रियों खासकर आदिवासी स्त्रियों के लिए गहरी संवेदना है। उन्होंने उनकी मनोस्थिति को समझकर और उसको ठीक उसी तरह शब्दों में पिरोया। आदिवासी समाज तथा स्त्रियों के बारे में लिखी गयी, उनकी कविताएं उनके संघर्ष तथा संवेदनाओं को बहुत ही मार्मिक और सरलता से आम जनमानस तक पहुंचाती है।

उनकी कई किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें से ओनोंड़हें (संथाली कविता संग्रह), नगाड़े की तरह बजते शब्द, अपने घर की तलाश में, फूटेगा एक नया विद्रोह इत्यादि प्रमुख हैं। इसके अलावा उनकी रचनाएं कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन, रांची, भागलपुर और दिल्ली से अनेक कहानियां, कविताएं और आलेखों का प्रसारण भी हुआ है। एन.सी.ई.आर.टी, नई दिल्ली द्वारा झारखंड, बिहार, जम्मू-कश्मीर के ग्यारहवीं तथा एनसीईआरटी, केरल द्वारा नवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक में निर्मला की कविताएं शामिल की गयी हैं।

उनकी कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उड़िया, कन्नड़, नागपुरी, पंजाबी व नेपाली भाषा में किया गया है। उन्हें कई सम्मान से भी सम्मानित किया जा चुका हैं। जिनमें साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा ‘साहित्य सम्मान’( 2001), झारखंड सरकार द्वारा ‘राजकीय सम्मान’, ( 2006), हिन्दी साहित्य परिषद, मैथन द्वारा सम्मान (2006) “भारत आदिवासी सम्मान’ (2006), विनोबा भावे सम्मान’ नागरी लिपि परिषद, दिल्ली (2006), ‘राष्ट्रीय युवा पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद, कोलकत्ता (2009) इत्यादि मुख्य हैं।

निर्मला पुतुल की रचनाएं स्त्रियों खासकर आदिवासी स्त्रियों के लिए गहरी संवेदना है। उन्होंने उनकी मनोस्थिति को समझकर और उसको ठीक उसी तरह शब्दों में पिरोया। आदिवासी समाज तथा स्त्रियों के बारे में लिखी गयी, उनकी कविताएं उनके संघर्ष तथा संवेदनाओं को बहुत ही मार्मिक और सरलता से आम जनमानस तक पहुंचाती हैं। उनकी कवितायें समाज में व्याप्त बुराई, संघर्ष और कुरीतियों के खिलाफ बोलने का एक ज़रिया है। वे अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में बदलाव की ओर एक सशक्त कदम रखती हैं।

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तस्वीर साभारः Poshampa.org

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