समाजकानून और नीति क्यों विधवा औरतों का पारिवारिक ज़मीन पर हक नहीं होता?

क्यों विधवा औरतों का पारिवारिक ज़मीन पर हक नहीं होता?

एकल औरतों की बढ़ती संख्या के सामाजिक प्रभाव को कुछ देर तक नजरंदाज भी कर दें तो कोविड-19 के कारण आने वाले संकट ने ग्रामीण भारत में ‘कृषि के नारीकरण’ की स्थिति को पैदा कर दिया है। इसकी व्याख्या इस रूप में की जा रही है कि चूंकि औरतों के पास अपनी ही जमीन के मालिकाना हक के संदर्भ में किसी भी तरह का फैसला लेने का अधिकार नहीं होता है। ऐसी स्थिति में वे अपनी ही ज़मीन पर काम करने वाली की सूची में शामिल हो जाती हैं वह भी बिना किसी मेहनताने के।

कैरेन पिनेरो, पूनम कथूरिया

अब भी रोज़ अपना नया रूप दिखानेवाली कोरोना महामारी ने अपनी दूसरी लहर के दौरान भारत के ग्रामीण इलाकों को बहुत बुरी तरह चपेट में लिया था। दूसरी लहर के दौरान पहली लहर की तुलना में अधिक लोग मरे थे और ग्रामीण इलाकों में गैर आनुपातिक रूप से पुरुषों की मृत्यु दर महिलाओं की तुलना में अधिक थी। हम लोग गुजरात के ग्रामीण इलाकों में काम कर रहे थे। उन इलाकों में दूसरी लहर के दौरान मृत्यु दर में 22 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। द वायर की एक रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 के कारण मरने वालों की वास्तविक संख्या उपलब्ध आंकड़ों से 27 गुना अधिक है।

आधिकारिक रिकॉर्ड की कमी के बावजूद यह बात स्पष्ट है कि इस महामारी में हज़ारों औरतें विधवा हुई हैं। कईयों ने अपने परिवार के इकलौते कमाने वाले आदमी को खोया है और दुख और आजीविका के दोहरे बोझ के तले जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। भारत के संदर्भ में यह और अधिक गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि अकेले जीवन जी रही औरतों को कलंक के रूप में देखा जाता है। समुदाय और सरकार की नीतियों में इन औरतों की जगह हमेशा हाशिये पर होती है। एकल औरतों की बढ़ती संख्या के सामाजिक प्रभाव को कुछ देर तक नजरंदाज भी कर दें तो कोविड-19 के कारण आने वाले संकट ने ग्रामीण भारत में ‘कृषि के नारीकरण’ की स्थिति को पैदा कर दिया है। इसकी व्याख्या इस रूप में की जा रही है कि चूंकि औरतों के पास अपनी ही जमीन के मालिकाना हक के संदर्भ में किसी भी तरह का फैसला लेने का अधिकार नहीं होता है। ऐसी स्थिति में वे अनजाने ही अवैतनिक कृषि श्रम बल (अपनी ही ज़मीन पर काम करने वाली) की सूची में शामिल हो जाती हैं।

और पढ़ें: तलाकशुदा और विधवा महिलाओं के जीवन को नियंत्रित करता परिवार और समाज

ज़मीन के मालिकाना हक़ को लेकर लिंग-आधारित आंकड़ों की कमी है। कृषि जनगणना ज़मीन के मालिकाना अधिकार के अलावा सामाजिक संरचनाओं को लेकर भी थोड़ी बहुत जानकारी देती है। भारत में कुल कृषि योगी भूमि के सिर्फ 12.8 प्रतिशत पर ही औरतों का मालिकाना हक़ है जिसमें जमीन का क्षेत्र 10.3 प्रतिशत है। गुजरात में यह आंकड़ा और जगहों की तुलना में थोड़ा सा ही अधिक है। यहां के 14.1 प्रतिशत हिस्से पर औरतों का मालिकाना हक़ है जो कुल जमीन का 13.2 प्रतिशत हिस्सा है।

एकल औरतों की बढ़ती संख्या के सामाजिक प्रभाव को कुछ देर तक नजरंदाज भी कर दें तो कोविड-19 के कारण आने वाले संकट ने ग्रामीण भारत में ‘कृषि के नारीकरण’ की स्थिति को पैदा कर दिया है। इसकी व्याख्या इस रूप में की जा रही है कि चूंकि औरतों के पास अपनी ही जमीन के मालिकाना हक के संदर्भ में किसी भी तरह का फैसला लेने का अधिकार नहीं होता है। ऐसी स्थिति में वे अपनी ही ज़मीन पर काम करने वाली की सूची में शामिल हो जाती हैं वह भी बिना किसी मेहनताने के।

कानूनी और नीतिगत स्तर पर मिली स्वीकृति के बावजूद औरतों के भूमि अधिकार भेदभाव वाले सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों और पितृसत्तात्मक परंपराओं में गहरे धंसे हुए हैं। लैंगिक असमानताओं को दूर करने के लिए राज्यों द्वारा उठाए गए ठोस कदमों की कमी के कारण कानूनी ढांचे और वास्तविक रूप में इन अधिकारों के प्रयोग को सक्षम बनाने की प्रक्रिया के बीच का अंतर बहुत गहरा है। पुरुषों और लड़कों को बिना किसी विवाद के ज़मीन का मालिकाना हक़ मिल जाता है वहीं ज़मीन पर औरतों द्वारा किए गए कानूनी दावे पर हमेशा ही सवाल उठाया जाता रहा है और अक्सर उन्हे हिंसात्मक विरोध का भी सामना करना पड़ा है।

और पढ़ें: पति की मौत के बाद महिला का जीवन खत्म नहीं होता

वायरस लिंग-तटस्थ हो सकता है लेकिन इसका प्रभाव नहीं

महामारी के प्रकोप के बाद से स्वाति में हम लोगों ने ऐसे अध्ययन किए जिनके माध्यम से हम औरतों और लड़कियों पर महामारी के प्रभाव को समझ सकें। इन जांचों का मुख्य विषय औरतों के भूमि अधिकारों पर कोविड-19 का प्रभाव था। ग्रामीण इलाकों में ज़मीन एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में काम करती है। ग्रामीण इलाकों की आजीविका में भूमि-आधारित आजीविका का योगदान 70 प्रतिशत होता है। 85 प्रतिशत से अधिक औरतें खेती के कामों से जुड़ी होती हैं। इस आंकड़ें को देखते हुए हम लोग उन औरतों के भूमि या विरासत में मिली ज़मीन तक उनकी पहुंच पर पड़ने वाले उस प्रभाव को समझना चाहते थे जिन्होनें अपना पति, पिता, ससुर या परिवार का कोई ऐसा सदस्य खोया है जो ज़मीन का मालिक था।

15 मार्च 2021 से 15 मई 2021 के बीच हम लोगों ने गुजरात के 40 गांवों में तीन जिलों में (सुरेन्द्रनगर, महिसागर और पाटन) के पाँच प्रखंडों (दसड़ा, ध्रंगधरा, संतरामपुर, सिद्धपुर और राधनपुर) में गहरे अध्ययन का आयोजन किया। उस दौरान कोविड-19 के कारण या संभावित कारण से कुल 473 लोगों की मौत दर्ज की गई थी, जिसमें 63 प्रतिशत पुरुष थे और 27 प्रतिशत औरतें। औरतों के साथ किए गए साक्षात्कार और सामूहिक बातचीत से उन विशिष्ट चुनौतियों के बारे में पता लगा जिनका सामना उन्हें अपने भूमि अधिकारों तक पहुंचने के क्रम में करना पड़ता है। ये चुनौतियां ज़मीन के पुरुष मालिकों और परिवार में फैसले लेने वाले सदस्य के साथ महिलाओं के संबंध, उस महिला की उम्र, उसके बच्चे हैं या नहीं, उसका बच्चा लड़का है या लड़की और ऐसे ही विभिन्न कारकों से जुड़ी होती हैं।

और पढ़ें: पगलैट : विधवा औरतों के हक़ की बात करती फिल्म कहीं न कहीं निराश करती है

पुरुषों और लड़कों को बिना किसी विवाद के ज़मीन का मालिकाना हक़ मिल जाता है वहीं ज़मीन पर औरतों द्वारा किए गए कानूनी दावे पर हमेशा ही सवाल उठाया जाता रहा है और अक्सर उन्हे हिंसात्मक विरोध का भी सामना करना पड़ा है।

महिलाओं के भूमि अधिकारों की मध्यस्थता अब भी पुरुषों के साथ उनके संबंध से जुड़ी है

हाल ही में विधवा हुई 26 साल की संगीताबेन का एक चार साल का बेटा है। उनका परिवार पतदी शहर में रहता था जहां बिजली विभाग में उसके पति की सरकारी नौकरी थी। पति की मौत के बाद संगीताबेन को अपने पति के परिवार के साथ मिठगोढ़ा गांव में जाकर रहना पड़ा जो पतदी शहर से 16 किलोमीटर दूर है। संगीताबेन का मानना है कि उसके पास परिवार की ज़मीन से जुड़ी किसी तरह की जानकारी नहीं है। “मैं जानती हूँ कि यह ज़मीन मेरे ससुर की है लेकिन मुझे यह नहीं मालूम कि उस ज़मीन पर किसी और का नाम भी है या नहीं। मैं यह भी नहीं जानती हूं कि मेरे पति का नाम भी उस कागज पर है या नहीं।”

शुरुआत में संगीताबेन ने ज़मीन के कागज पर अपने नाम को शामिल करने में किसी भी तरह की चुनौती की आशंका से इनकार कर दिया था। “इसमें किसी तरह की दिक्कत नहीं होगी क्योंकि मेरा एक बेटा है,” लेकिन बाद में अपनी बात आगे बढ़ाते हुए उसने कहा, “लेकिन यह काम जल्दी नहीं होगा क्योंकि मेरी उम्र अभी कम है और मेरे देवर की अभी तक शादी नहीं हुई है। जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती है तब तक मेरा नाम ज़मीन के कागज में नहीं जोड़ा जाएगा।” बहुत हद तक इस बात की संभावना दिख रही थी कि संगीताबेन की शादी उसके देवर से कर दी जाएगी।

मिठगोढ़ा में रहने वाली 48 वर्षीय ललिताबेन ने कोविड-19 के कारण अपने पति को खो दिया। वह पारिवारिक ज़मीन से जुड़े कागजों पर अपना नाम शामिल करने की प्रक्रियाओं के लिए पूरी तरह से अपने देवर पर आश्रित होने के कारण चिंतित हैं। प्रोटोकॉल के अनुसार उत्तराधिकारी के नाम जोड़ने की प्रक्रिया एक महीने के अंदर पूरी हो जानी चाहिए। इस अवधि के बीत जाने के बाद इस मामले को जिला दफ्तर में ले कर जाना पड़ता है जो एक जटिल और खर्चीली प्रक्रिया भी हो सकती है जबकि परंपरा के अनुसार एक विधवा औरत अपने पति की मौत के बाद कम से कम छह महीने तक घर से बाहर नहीं जा सकती है। 

और पढ़ें: संपत्ति में आखिर अपना हक़ मांगने से क्यों कतराती हैं महिलाएं?

औरतें अपने भूमि के अधिकार को सुरक्षित करना चाहती हैं लेकिन उन्हें सामाजिक समर्थन नहीं मिलता है

उपरियाला गाँव की 43 वर्षीय नीलाबेन अपने पति और तीन बच्चों के साथ अहमदाबाद में रहती थीं। कोविड-19 के कारण उनके पति की मौत हो गई। पति की मौत के बाद वह अपने बच्चों के साथ अपने गाँव वापस लौट गई। नीलाबेन के देवर ने पारिवारिक जमीन में उन्हें उनका हक़ देने से मना कर दिया। आमदनी का कोई और स्रोत होने के कारण उन्हें दूसरों के खेत में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करना पड़ता है और वह और उनका परिवार उनके सास-ससुर के घर में रहते हैं। किसी भी तरह के समर्थन की कमी के कारण वह अपने हक़ की लड़ाई लड़ने से कतराती हैं। 

औरतों को उनका परिवार ‘दूसरे घर से आई हुई लड़की’ के रूप में देखता है और उनके दावों को सीमित कर दिया जाता है 

महामारी के दौरान 29 साल की काजलबेन के ससुर की मौत हो गई और अब जमीन के कागज में परिवार के सभी सदस्यों का नाम जोड़ा जाएगा। जब उससे यह पूछा गया कि क्या उसका नाम भी इस सूची में जोड़ा जाएगा तब उसने कहा, “अरे, नहीं। दूसरे घर से आई कल की बहू पर कौन भरोसा करेगा?” जीतिबेन की उम्र 50 साल है और अपनी मौत के बाद उनके पति अपने पीछे तीन बच्चे और 25 एकड़ जमीन छोड़ कर गए हैं। जीतिबेन के ससुर उनके पति की ज़मीन के कागज़ पर उसका और उसकी बेटियों के बदले उसके देवर का नाम जोड़ने का दबाव दे रहे हैं। उसके ससुर का कहना है, “हम तुम्हारा ख्याल रखेंगे लेकिन जमीन परिवार के लोगों के पास ही रहना चाहिए।”

और पढ़ें: संपत्ति में अपना हक़ मांगकर पितृसत्ता को चुनौती दे सकती हैं महिलाएं

औरतों को ‘स्वेच्छा’ से अपने अधिकारों को छोड़ देने के लिए मजबूर किया जाता है 

गोरियावाड़ गाँव में रहने वाली पचास वर्षीय लसुबेन ने दूसरी लहर के दौरान कुछ ही दिनों के अंतराल पर अपने पति और सास-ससुर तीनों को खो दिया। परिवार की परंपरा के अनुसार लसुबेन अगले एक साल तक घर से बाहर कदम नहीं रख सकती हैं। उनके ससुर के पास 30 बीघा जमीन थी जिसे उसके पति और देवर दोनों में बराबर रूप से बांटा गया था। मृत्यु के बाद लसुबेन के देवर ने लैंड म्यूटेशन प्रोसेस (स्थानीय नगर निगम के राजस्व अभिलेखों में जमीन के कागज पर लोगों का नाम जोड़ने या बदलने की प्रक्रिया) शुरू कर दी और इसके तहत अपना, लसुबेन और उनके बच्चों का नाम कागज में जुड़वा दिया। 

कुछ ही दिनों बाद राजस्व तलाती (अधिकारी) की सलाह पर, लसुबेन के देवर ने लसुबेन को मजबूर कर दिया कि वह लसुबेन के बेटे के पक्ष में अपने और अपनी बेटियों के अधिकारों को छोड़ दें। उनसे कहा गया कि अगर जमीन के मालिकों की संख्या कम होगी तो योजनाओं और ऋणों का फायदा उठाना आसान होगा। हालांकि, लसुबेन और उनकी बेटियां अपना कानूनी हक़ छोड़ने के लिए अदालत के सामने बयान देने के लिए राजी हो गई लेकिन उनका ऐसा मानना था कि जमीन के कागज में उनका नाम होने से उन्हें अपने भविष्य को लेकर सुरक्षा का एहसास होता।  

और पढ़ें: आर्थिक हिंसा : पुरुष द्वारा महिलाओं पर वर्चस्व स्थापित करने का एक और तरीका   

परंपरागत प्रथाएं और पितृसत्तात्मक राज्य 

बंटवारे को रोकने के लिए और परिवार को संयुक्त रखने के नाम पर ज़मीन को बड़े बेटे या भाई के नाम पर रखने जैसी परंपराओं का अब कोई फायदा नहीं है और औरतों को इससे ज्यादा नुकसान होता है। कांताबेन (63) और विजूबेन (65) नाम की दो भाभियां अपने परिवार के 15 बीघा जमीन पर जोताई का काम करती थीं। यह ज़मीन उनके सबसे बड़े जेठ के नाम पर है। जब उनके पति जिंदा थे तब अनाधिकारिक रूप से उनके पतियों को पांच-पांच बीघे जमीन का मालिकाना हक़ मिला हुआ था। अब उनके सबसे बड़े जेठ ने दोनों ही औरतों को जमीन का हक़ देने और उसपर फसल पैदा करने से मना कर दिया है। अब उन्हें गांव में दूसरों के खेत में मजदूरों की तरह काम करना पड़ता है। इस बार के मौसम में इन विधवा औरतों ने मुश्किल से 3–4 हज़ार रुपए की कमाई की है और अब अगले साल तक उन्हें और काम नहीं मिलेगा। 

सक्षम कानूनी ढांचे और महिलाओं के भूमि अधिकारों का वास्तविक उपयोग करने के बीच का अंतर बहुत गहरा है। नागरिक समाज संगठनों के साथ-साथ सरकार को इस समस्या की पहचान का बीड़ा उठाना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि एक समावेशी, न्यायसंगत और सतत विकास हेतु और महामारी से दीर्घ अवधि में उबरने के लिए, ग्रामीण औरतों की संपत्ति की ताकत और उसकी पिछड़ी स्थिति को मजबूत बनाना जरूरी है।

इसे करने के लिए नीचे दिये कदम उठाए जा सकते हैं:

  • भूमि और कृषि के क्षेत्र में पहले से मौजूद लिंग-आधारित और न्यायसंगत नीतियों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करन। साथ ही परंपराओं और औपचारिक कानूनी प्रणाली से पैदा होने वाले अंतर्विरोधों को कम करने का प्रयास करना
  • छोटे और हाशिये की ज़मीनों के लिए मूल्यों की समीक्षा और सहायता के साथ ही न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करना।
  • महिलाओं की कार्यकाल सुरक्षा, क्रेडिट तक पहुंच को बढ़ावा देने के लिए सकारात्मक कार्रवाइयां और नीतियां, कठिन परिश्रम कम करने वाले उपकरण, और बाजारों तक महिलाओं की पहुंच को सुविधाजनक बनाना
  • महिलाओं को उनके भूमि अधिकारों के बारे में बताने और भेदभाव पूर्ण प्रथाओं की जानकारी देने के लिए बड़े पैमाने पर अभियानों की शुरुआत करना।
  • महिलाओं के लिए भूमि पर उनके दावों के लिए मार्गदर्शन, परामर्श और कानूनी प्रशासनिक सेवाओं की तलाश के लिए समयबद्ध, लिंग-संवेदनशील और एकल-खिड़की निकासी तंत्र स्थापित करना।

और पढ़ें: महिलाओं के पैतृक संपत्ति में बराबरी के अधिकार की ज़मीनी हकीकत क्या है?


तस्वीर साभार: Daily Pioneer

यह लेख मूल रूप से IDR हिंदी पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं। अंग्रेज़ी में इस लेख को पढ़ने के लिए क्लिक करें।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content