इंटरसेक्शनलजेंडर दूसरी किस्त: पिता के घर में बेटियों की वे चुनौतियां जिन पर बोलना ‘मना’ है

दूसरी किस्त: पिता के घर में बेटियों की वे चुनौतियां जिन पर बोलना ‘मना’ है

ये चुनौतियां कई बार इतनी कठिन और जटिल होती हैं कि लड़कियां खुद भी पीछे हट जाती हैं, परिवार के सभी नियमों को नज़र झुकाकर मानने लगती हैं

भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में बेटियां शादी से पहले पिता के घर और शादी के बाद ससुराल में रहती हैं, जो कि बहुत ही साधारण बात है। चूंकि बेटियां अपने पिता के घर में पैदा होती हैं इसलिए उनके पिता का घर ही उनके लिए सबसे ज़्यादा सुरक्षित माना जाता है। यही सोचकर यह बहुत आसानी से कह दिया जाता है कि बेटियां अपने पिता के घर में सबसे महफ़ूज़ होती हैं और अपनी मर्ज़ी की ज़िंदगी जीती हैं। ये बातें आपने भी कभी न कभी ज़रूर सुनी होंगी पर। आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों में ‘पापा की लाडली’ बेटियां हो सकती हैं, लेकिन वहीं गरीब किसान या मज़दूर के घर या फिर ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाली लड़कियों की ज़िंदगी ऐसी नहीं होती है। वहां की चुनौतियां एकदम अलग होती हैं।

अपनी पहली किस्त में मैंने कुछ उन चुनौतियों की बात की थी जिनका सामना अक्सर हम जैसी लड़कियों को करना पड़ता है, लेकिन इन पर कोई ख़ास बात नहीं होती है। इसकी वजह है हमारी सामाजिक धारणा। सालों से यह धारणा बनाई गई है कि लड़कियों को शादी के बाद ही सबसे ज़्यादा हिंसा का सामना करना पड़ता है। लेकिन शादी से पहले भ्रूण हत्या या बाल विवाह जैसी चुनौतिया लड़कियों को झेलनी पड़ती हैं। लेकिन जब लड़कियों की भ्रूण हत्या नहीं होती या उनका बाल विवाह नहीं होता है तो यह मान लिया जाता है अब उनके साथ सब ठीक है, क्योंकि वे अपने पिता के घर यानी की मायके में होती हैं। तो आइए आज इस लेख की दूसरी किस्त में हमलोग बात करते हैं उन चुनौतियों के बारे जिसका सामना अक्सर हम जैसी लड़कियों को अपने पिता के घर में करना पड़ता है।

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शादी होने तक, शादी की तैयारी

“जैसे तुम्हारी गुड़िया की शादी हो रही है, वैसे एक दिन तुम्हारी शादी भी होगी, चूल्हा-चौका का काम सीख लो, नहीं तो ससुराल में नाक कटवाओगी, ढंग से बोलना और चलना सीखो, नहीं तो शादी नहीं होगी, रंग-रूप पर ध्यान दो वरना कोई लड़का नहीं मिलेगा।” बेटियों को हमेशा पराया धन कहा जाता है और इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए उनकी शादी को लेकर ऐसे ढ़ेर सारी बातें बचपन से सिखाई जाती हैं ताकि वे शादी को अपने जीवन का लक्ष्य बना लें। इस सीख के साथ ही हम बड़े होते हैं।

जेंडर के आधार पर हम लोगों का लालन-पालन जन्म के बाद ही शुरू हो जाता है। पिंक कलर की फ़्रॉक से लेकर गुड्डे-गुड़ियों की शादी वाले खेल तक और फिर माँ का किचन में हाथ बंटाने से लेकर शादी के लिए अपना रूप-रंग संवारने तक, सारा सिस्टम ही जैसे शादी के लिए लड़कियों को तैयार करने में लग जाता है। बचपन से लड़कियों की तैयारी एक दुल्हन और अच्छी गृहणी के रूप में करवाई जाती है और ये तब तक चलता रहता है जब तक उनकी शादी नहीं हो जाती। लड़कियों पर हर वक़्त इस बात का दबाव बनाया जाता है कि उनके जीवन की सार्थकता सिर्फ़ इसी बात पर निर्भर करती है कि उनकी शादी कितनी अच्छी होती है।

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अधिकारों के ऊपर इज़्ज़त का भार

भारतीय क़ानून ने देश के हर नागरिक को शिक्षा का, आज़ादी का और समानता का अधिकार दिया है। हालांकि, ये अधिकार सिर्फ़ तभी तक काम करते हैं जब तक इसकी बात पुरुषों के लिए होती है। जैसे ही बात महिलाओं की और खासकर युवा लड़कियों की आती है तो इन अधिकारों को सीमित कर दिया जाता है ख़ासकर इज़्जत के नाम पर।

वैसे तो इज़्ज़त का सवाल समाज की हर लड़की के लिए है, लेकिन जब बात बिना शादीशुदा लड़कियों की आती है तो उनकी चुनौतियां और भी अधिक हो जाती हैं। अगर कोई लड़की किसी लड़के से बात कर ले तो बात परिवार की इज़्ज़त चली जाती है। लड़कियों का दुपट्टा अगर नीचे हो जाए तो बात इज़्ज़त पर आ जाती है। लड़कियों ने अगर पिता-भाई के शासन या हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो बात इज़्ज़त की आ जाती है। कहने का मतलब लकड़ियों की हर छोटी-बड़ी बात को इज़्ज़त से जोड़कर उन्हें उनके अधिकारों से दूर करने का प्रयास किया जाता है, जिससे अधिकारों के ऊपर अक्सर इज़्ज़त भारी पड़ जाती है।

कमाई होते ही घर की शान और ज़रूरत का सवाल

ग्रामीण परिवेश में मध्यम या निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की यह बड़ी दिक़्क़त है कि भले ही उनके यहां ग़रीबी बड़ी समस्या हो पर उनके घर की महिलाएं कहीं बाहर काम करने जांए यह उन्हें बिल्कुल भी मंज़ूर नहीं होता। खासकर तब जब लड़की शादीशुदा न हो। इन परिवारों में जब लड़कियां कोई काम करने लगती हैं, जिससे वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने लगती हैं तो इस बात को परिवार की शान से जोड़ दिया जाता है। इसके बावजूद परिवार इस बात से पूरी तरह पल्ला झाड़ लेता है कि अगर वह अब कमाई कर रही है तो उसे अपने सभी छोटे-बड़े खर्च खुद उठाने होंगे। कई बार उन पर अपने छोटे भाई-बहन का खर्च वहन करने का भी बोझ डाल दिया जाता है। इतना ही नहीं, परिवार के भी छोटे-बड़े ख़र्चों को उठाने का उन पर दबाव बना रहता है।

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अगर कोई लड़की किसी लड़के से बात कर ले तो बात परिवार की इज़्ज़त चली जाती है। लड़कियों का दुपट्टा अगर नीचे हो जाए तो बात इज़्ज़त पर आ जाती है। लड़कियों ने अगर पिता-भाई के शासन या हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो बात इज़्ज़त की आ जाती है। कहने का मतलब लकड़ियों की हर छोटी-बड़ी बात को इज़्ज़त से जोड़कर उन्हें उनके अधिकारों से दूर करने का प्रयास किया जाता है

कई बार परिवार की यह सोच हिंसा का रूप लेने लग जाती है। जैसे हाल ही में मेरे साथ काम करनेवाली एक लड़की की तबीयत ख़राब हो गई थी। गर्मी में फ़ील्ड में जाने की वजह से उसकी तबीयत ख़राब हुई थी। वह अपने काम की वजह से बीमार पड़ी थी इसलिए उसके पिता और भाई ने कहा कि अपने काम के कारण वह बीमार पड़ी है तो वह अपना ख्याल खुद रखे। ऐसे में वह अपनी माँ के साथ डॉक्टर के पास गई। दवा के बावजूद उसे आराम नहीं मिला तो डॉक्टर ने उसे भर्ती कर लिया और इसके लिए पहले उसे इस बीमारी की हालत में ही जाकर बैंक से पैसे निकालने पड़े और तब जाकर एडमिट हुई और पूरे दिन सिर्फ़ उसकी माँ उसके साथ रही। यह किसी हिंसा से कम नहीं है।

शादी से पहले पिता के घर में लड़कियों से जुड़ी हुई ये कुछ ऐसी समस्याएं हैं जिसका सामना अक्सर लड़कियों को करना पड़ता है। ये चुनौतियां कई बार इतनी कठिन और जटिल होती हैं कि लड़कियां खुद भी पीछे हट जाती हैं, परिवार के सभी नियमों को नज़र झुकाकर मानने लगती हैं और इसकी वजह एक ये भी है कि वो ऐसा होते अपने आसपास और अपने घरों में होता हुआ देखकर बड़ी होती हैं पर यह कभी भी बेहतर विकल्प नहीं बन सकता है। इसके लिए ज़रूरी है इन मुद्दों को उजागर करके इसपर बात की जाए और इस पर काम किया जाए जिससे लड़कियों के अधिकारों को सुरक्षित किया जा सके। 

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तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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