समाजख़बर नीलोत्पल मृणाल केस: सारे सवाल सर्वाइवर से ही क्यों?

नीलोत्पल मृणाल केस: सारे सवाल सर्वाइवर से ही क्यों?

बात यहां सिर्फ साहित्यिक दुनिया की चुप्पी की नहीं है। बात है उस भीड़ की भी है जो एकदम स्तरहीन भाषा को अपना हथियार बनाकर सर्वाइवर की मोरल पोलिसिंग में जुटी है।

“यदि तुम्हारे घर के 

 एक कमरे में आग लगी हो

 तो क्या तुम दूसरे कमरे में सो सकते हो?

यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में 

लाशें सड़ रही हो 

तो क्या तुम

दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?” 

नयी हिंदी के उभरते सितारे और स्वघोषित ‘गमछा क्रांतिकारी’ नीलोत्पल मृणाल पर कथित रूप से लगे यौन शोषण के आरोप के सन्दर्भ में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की उपरोक्त पंक्तियां एकदम सटीक हैं। हिंदी साहित्य की दुनिया भी चुप्पी में ‘प्रार्थना’ कर रही है। खैर! बात यहां सिर्फ साहित्यिक दुनिया की चुप्पी की नहीं है। बात है उस भीड़ की भी है जो एकदम स्तरहीन भाषा को अपना हथियार बनाकर सर्वाइवर की मोरल पोलिसिंग में जुटी है।

चुप्पी विरोध है या समर्थन?

साल 2018  में #MeToo आंदोलन के तहत सिनेमा, पत्रकारिता आदि क्षेत्र में कई बड़े चेहरों पर यौन शोषण के आरोप लगे। लेकिन उस दौरान भी यही देखने में आया कि अकादमिया और साहित्य के क्षेत्र में चुप्पी तोड़नेवालों की संख्या लगभग नगण्य थी। ऐसा नहीं है कि साहित्य का क्षेत्र इससे अछूता हो और जब कुछ दिन पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक नीलोत्पल मृणाल के ख़िलाफ़ यूपीएससी की तैयारी कर रही एक छात्रा ने अपनी आवाज़ बुलंद करने का साहस किया है तो साहित्य जगत में अजीब खामोशी पसरी हुई है। जबकि लेखक के समर्थन में सर्वाइवर की स्लट शेमिंग करनेवालों की तादाद हर रोज़ बढ़ती नज़र आ रही है। कई लोग यह मान सकते हैं कि जब क़ानूनी कार्रवाई के तहत काम हो रहा है तो अपना मुंह ही क्यों खोलना। 

यह बात अपनी जगह ठीक हो सकती है लेकिन क्या किसी भी मुद्दे पर हम अपने विचार नहीं रखते या किसी भी विषय पर हमारे विचार मायने नहीं रखते या जिस किसी मुद्दे पर क़ानूनी कार्रवाई चल रही है वह सामान्य लोगों में चर्चा का विषय नहीं होना चाहिए। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जब आप इस तरह के किसी मुद्दे पर बात रखते हैं तो सर्वाइवर में सुरक्षा का भाव आता है उसे लगता है उसे सुना जा रहा है, देखा रहा है उसने जो क़दम उठाया वह ग़लत नहीं है।

साल 2018  में #MeToo आंदोलन के तहत सिनेमा, पत्रकारिता आदि क्षेत्र में कई बड़े चेहरों पर यौन शोषण के आरोप लगे। लेकिन उस दौरान भी यही देखने में आया कि अकादमिया और साहित्य के क्षेत्र में चुप्पी तोड़नेवालों की संख्या लगभग नगण्य थी। ऐसा नहीं है कि साहित्य का क्षेत्र इससे अछूता हो और जब कुछ दिन पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक नीलोत्पल मृणाल के ख़िलाफ़ यूपीएससी की तैयारी कर रही एक छात्रा ने अपनी आवाज़ बुलंद करने का साहस किया है तो साहित्य जगत में अजीब खामोशी पसरी हुई है।

अपने विचार रखना जजमेंट देना नहीं है और इस मामले में कम से कम सर्वाइवर की पोस्ट पर आ रही टिप्पणियों पर तो बात की ही जा सकती है। उदाहरण के तौर पर किसी फेसबुक यूजर ने लिखा, “शर्म करो पिछड़े समाज से हो तुम और तुम्हारे मम्मी-पापा अगड़े समाज से लड़ाई के लिए तुम्हे आईएएस बनाकर समाज में समता और समानता लाना चाहते थे और तुम वहां अगड़े समाज के पुरूष की गोद में गोद डालकर सोई और घूमी वह भी दस साल।” इस मामले में धर्म, जाति और क्षेत्र की राजनीति करने वालों की ज़बान भी सिली हुई है जो खेमाबंदी की तरफ़ इशारा करती है।

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ब्रो कोड: सड़क और सोशल मीडिया तक

अकसर ये देखने में आता है कि जब-जब महिलाओं के मुद्दों पर बात होती है तब-तब पुरुष समाज जाति, धर्म, वर्ग सारे भेद मिटाकर एकता का प्रदर्शन करता नज़र आता है। नीलोत्पल मृणाल के केस के संदर्भ में भी इस एकता को देखना ज़रूरी है कि कैसे समर्थकों की भीड़ ‘भैया’ का बचाव करने में लगी हुई है। भैया शब्द का इस्तेमाल मैं यहां जानबूझ कर कर रही हूं। दरअसल अकादमिया /साहित्य  में ‘भैया’ एक शब्द भर नहीं बल्कि एक संस्कृति है जिसमे कुछ मशहूर सीनियर्स या किसी क्षेत्र विशेष में उभरते हुए सितारे अपनी एक फ़ौज तैयार करते हैं जो उनके हर अच्छे-बुरे का न सिर्फ समर्थन करती है बल्कि वैसा ही बनने की कोशिश करती हैं।

या यूं कहूं की भैया लोग जूनियर्स (लड़कों) को अपने जैसा बनने का प्रशिक्षण देते हैं। यह प्रशिक्षण सिर्फ पढाई-लिखाई तक सीमित न रहकर बल्कि रहने, खाने, उठने- बैठने अर्थात जीवन जीने के ढंग को प्रभावित करता है। इन सब बातों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भैया लोग का प्रेम पक्ष है। दरअसल ऊपर लिखी बातों का सार इसी पक्ष में है। भैया अपनी पूरी फ़ौज के साथ चाय की गुमटी या किराये के किसी बंद कमरे में जब अपना लिखा हुआ बांच रहे होते हैं या ज्ञान दे रहे होते हैं तो वे न केवल फ़ौज को मंत्रमुग्ध कर रहे होते हैं बल्कि प्रेम ज्ञान भी साथ-साथ बघार रहे होते हैं जिसमें किसी महिला का ऑब्जेक्टिफिकेशन सामान्य बात है। यह भी चर्चा का विषय रहता है। यह एक पूरी संस्कृति है जो हर रोज़ अपने पांव मज़बूत कर रही है।

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यहां यह भी बताना ज़रूरी है कि ये भैया संस्कृति छात्रों/महिलाओं को कैसे प्रभावित करती है। शुरुआत इसकी भी बहुत प्रेम से होती है। अलग-अलग परीक्षाओं के लिए मार्गदर्शन के बहाने पहले लड़कियों से मिलना-जुलना और जब वे सहज हो जाएं तो फिर उन्हें अपनी हरकतों और शब्दों से असहज महसूस करवाना। हालांकि यह विस्तृत चर्चा का विषय है जिस पर अलग से बात की जानी चाहिए लेकिन आमतौर पर यही देखने में आता है जो लिखा है।

 “एक स्त्री की देह के साथ बलात्कार एक बार होता हैः मगर उसकी चेतना में वह बलात्कार बार-बार होता है। यह एक ऐसा मामला है जिसमें आप दोषी को तो सजा दे सकते हैं लेकिन पीड़िता को न्याय नहीं।” यह लाइन पढ़ने पर लगता है आह! क्या सुंदर बात कही है लेकिन ये लिखा हुआ सच है जिया हुआ सच और होता कुछ है। लिखने और जीने के बीच के अंतर को समझना बेहद ज़रूरी है। सबसे पहले तो यही जो लेखक लिख रहा है लोग उसके लिखे को उसी का सच मान लेते हैं। कई बार यह हो भी सकता है पर यहां बात दूसरी है। अपने लिखे से वह एक आदर्श तस्वीर खींचना चाहता है जबकि निजी जीवन में उसका सरोकारों से कोई लेना-देना नहीं है। 

एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जब आप इस तरह के किसी मुद्दे पर बात रखते हैं तो सर्वाइवर में सुरक्षा का भाव आता है उसे लगता है उसे सुना जा रहा है, देखा रहा है उसने जो क़दम उठाया वह ग़लत नहीं है।

एक और बात जो बार-बार उठती है वह यह कि जब भी कोई लड़की किसी मशहूर व्यक्ति के ख़िलाफ़ लिखती या बोलती है, सवालों के घेरे में भी हम उसी को खड़ा करते हैं और पुरुष के प्रति सहानुभूति का भाव रखते हैं कि “बेचारे को बदनाम करने की साज़िश है, ‘इनका काम निकल गया तो बोलेंगी ही, पहले नज़र नहीं आ रहा था क्या तब तो बिस्तर पर मज़े ले रही होंगी अब सब ग़लत दिख रहा  है, ’भैया तो इतना अच्छा लिखते हैं वो ऐसा कैसे कर सकते हैं?” 

ये ठीक है आप एक समय में किसी के लिखे से जुड़ाव महसूस करते हैं जिसकी एक वजह आपका भी ठीक उसी क्षेत्र विशेष से होना हो सकती है जिससे लेखक आता है लेकिन सवाल यह है कि आप किसी के लिखे को आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ते हैं या आस्था की दृष्टि से? सवाल यह भी है कि किसी का लिखा उसका मोरल कंपास कैसे निर्धारित कर सकता है। कोई महिला बहुत अच्छा लिखती है और उसके एक से अधिक पुरुष के साथ संबंध रहे हैं तो बात उसके लेखन पर कम व्यक्तिगत जीवन पर अधिक होती है। इस मामले में भी यही क़िस्सा है। सर्वाइवर की पोस्ट पर एक यूज़र का कॉमेंट कुछ इस तरह था- “एक बात बताओ तुम यूपीएससी की तैयारी कर रही थी और तुम्हारे पास इत्ता सा दिमाग नहीं था? रेप? बिना तुम्हारी मर्ज़ी के हुआ? दस साल?।।।मजबूरी का फ़ायदा? ऐसी क्या मजबूरी थी? ज़बरदस्ती!! और तुम सहती रही? वाह!!क्या लिखा है किसी को लांछन लगाने के लिए शायद काफ़ी महिला हो अटेंशन मिल जाएगा, अबोध थी तुम? जिससे खुद की ज़िंदगी नहीं संभल रही वो ज़िला संभालेगी?” 

और पढ़ें: #MeToo से भारतीय महिलाएं तोड़ रही हैं यौन-उत्पीड़न पर अपनी चुप्पी

मोहब्बत में सवाल करना मना है 

असल दिक्क़त प्रेम के ढांचे में ही है। प्रेम में बराबरी की बात करना या उसकी प्रकृति पर सवाल खड़े करना तो जैसे मना है। अपने यहां तो एक दूसरे में विलय हो जाने का का नाम प्रेम है इससे बाहर आकर यह सोचना मुश्किल है कि प्रेम में किसी व्यक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व भी हो सकता है। सारी दिक्क़त यहीं से पनपती है प्रेम के मामले में स्त्री की स्थिति दोयम दर्जे की है जिसके तहत वह बहुत बार असहज बातों को भी सहज ढंग से स्वीकार करती चली जाती है या बर्दाश्त करती है। 

प्रेम में जैसे ही कोई स्त्री यह महसूस करती है कि उसे झांसे में रखा गया या प्रेम की सामन्ती प्रकृति को समझना शुरू करती है उस पर सवाल खड़े करती है उस पर गालियों की बौछार होना एकदम सामान्य है। इससे इतर प्रेमी पुरुष द्वारा भावनात्मक चाशनी में लिपटा हुआ पैंतरा आजमाया जाना आम बात है। यह एक तरह की ब्लैकमेलिंग है जो लड़की को ज़हनी तौर पर हिलाकर रख देती है। सालों लग जाते हैं इन सब से बाहर आने में और लोग सवाल खड़े करते हैं, “तब क्यों चुप थी?” 

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क्यों बचती हैं महिलाएं शिकायत दर्ज करने से?

अकसर देखने में आता है कि महिलाएं शिकायत दर्ज करने से बचती हैं या फिर देर से सामने आती हैं। ज़्यादातर तो बहुत सारी वजह से चुप रह जाती हैं। इसके बहुत सारे कारण हैं जैसे परिवार और समाज का डर। महिलाओं को लगता है कि अगर वे बोलीं तो उनके परिवार का क्या होगा, लोग परिवार को उलाहना देंगे, उनका अपना परिवार उनके पक्ष में खड़ा होगा भी या नहीं? ये सारी बातें दिमाग़ में इस तरह घर कर लेती  हैं कि इससे बाहर निकलकर शिकायत दर्ज करवाना मुश्किल हो जाता है। एक वजह महिलाओं की आर्थिक स्थिति भी है ऐसे में बार-बार कोर्ट के चक्कर लगाना हर बार संभव नहीं। एक वजह शिकायत पर कार्रवाई में देरी या उसकी लंबी प्रक्रिया हो सकती है, लेकिन यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जब सर्वाइवर अपने अनुभव के साथ बाहर आती है तब जिस तरह का दबाव उसे झेलना पड़ता है वह सर्वाइवर को अपने ही निर्णय पर संदेह करने के लिए मजबूर करता है, नौबत केस वापिस करने तक आती है।

लेखिका गीता श्री अपने फेसबुक पोस्ट में लिखती हैं कि कोई आश्चर्य नहीं होगा हमें अगर लड़की केस वापस ले ले। जिस तरह से उसे डराया-धमकाया जा रहा है, वह कितनी देर टिकेगी? एक तो उसके साथ फरेब हुआ, उसे प्रेम के नाम पर ठगा गया, ऊपर से उसे धमकाया जा रहा है। ये सब देखते हुए बहुत सारी महिलाऐं सिर्फ़ ख़ामोश हो जाती हैं। बोलने के लिए ज़हनी तौर पर तैयार रहना ज़रूरी है जो एक लंबे इंतज़ार की मांग करती है।

और पढ़ें: तराना बर्क : #MeToo आंदोलन की शुरुआत करने वाली एक्टिविस्ट


(Tajver is a ph.d scholar in the Hindi department of the University of Delhi. She has done a post-graduation diploma in Hindi -English translation(vice-versa) and also done an advanced diploma in modern Persian. Currently enrolled in a certificate course in the Arabic language offered by the department of Arabic(DU). She is a language enthusiast and knows five languages, Hindi, English, Urdu, Persian and Punjabi. Presented paper in the national seminar,  works as a freelance translator)

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