इंटरसेक्शनलजेंडर क्या ग्रामीण भारत में लड़कियों के पास अपनी बात कहने का सेफ़ स्पेस होता है?

क्या ग्रामीण भारत में लड़कियों के पास अपनी बात कहने का सेफ़ स्पेस होता है?

लड़कियों के भी अपने सपने होंगे, उनकी अपनी इच्छा और चाहत होगी। इन सबके बारे में कभी कोई ज़िक्र नहीं किया जाता है। इसलिए कुछ लड़कियां विरोध का रास्ता अपनाती हैं तो कुछ चुपचाप उस पितृसत्तात्मक सिस्टम का हिस्सा बन जाती हैं।

अमीनी गांव की प्रीतम को ज़्यादा बात करना पसंद नहीं है। उसके ज़्यादा दोस्त भी नहीं हैं। घर में बचपन से ही कहीं आने-जाने को लेकर सख़्त पाबंदियों के बीच पली-बढ़ी प्रीतम को उसके पीरियड्स के दौरान काफ़ी दिक़्क़त होने लगी। घर में अनुशासन का इतना माहौल रहता है कि उसने अपनी माँ को भी पीरियड्स के दौरान ज़्यादा ब्लीडिंग और इन्फ़ेक्शन की समस्या नहीं बताई। जब प्रीतम की हालत बिगड़ी तो अस्पताल ले जाना पड़ा और पता चला कि उसका इन्फ़ेक्शन काफ़ी ज़्यादा बढ़ चुका है। इसके बाद घर में सभी ने उसे डांटना शुरू कर दिया कि उसे इतनी दिक़्क़त थी तो बताया क्यों नहीं और उसने बस यही ज़वाब दिया कि– कैसे बताती?

वहीं, नैना को अपने क्लास में पढ़नेवाले एक लड़के से बात करना अच्छा लगता था। कुछ दिनों में उन दोनों की अच्छी दोस्ती हो गई। एक दिन स्कूल के बाहर अपने दोस्त से बात करते हुए नैना को उसके भाई ने देख लिया और घर आकर उसकी शिकायत कर दी। फिर क्या था, नैना के साथ ख़ूब ज़्यादा मारपीट की गई और उसका स्कूल जाना बंद करवा दिया गया। कुछ दिनों बाद नैना ने घर छोड़ने का फ़ैसला लिया। क़रीब पंद्रह दिन बाद नैना वापस लौटी तो फिर से उसके साथ वही बर्ताव किया गया। अगली सुबह उसके साथ पढ़नेवाली एक लड़की ने उसके घरवालों को बताया कि वह किसी लड़के साथ नहीं बल्कि उसके घर आ गई थी, क्योंकि उसकी परीक्षा शुरू हो गई थी और घरवाले उसे स्कूल जाने नहीं देते। इसके बाद घरवालों ने फिर नैना से सवाल किया कि उसने बताया क्यों नहीं कि उसे परीक्षा देनी है? नैना ने वही जवाब दिया– कैसे बताती?

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रोली को हमेशा से सिलाई करना बहुत पसंद था। बसुहन गांव के एक गरीब परिवार में जन्मी रोली ने पाँचवी तक पढ़ाई की और आर्थिक तंगी के कारण न तो पढ़ाई पूरी कर पाई और न ही सिलाई का हुनर सीख पाई। हां, खेत बेचकर अट्ठारह साल की होते ही परिवारवालों ने उसकी शादी कर दी। ससुराल जाने के बाद उसने अपने घर के लोगों के कपड़े सिलना शुरू किया। कुछ दिनों में उससे गाँव की दूसरी औरतें भी अपने कपड़े सिलवाने लगीं। लेकिन कई बड़े ऑर्डर से रोली इसलिए पीछे रह जाती थी कि उसके पास सिलाई का सर्टिफ़िकेट नहीं था। इसे लेकर उसके ससुरालवाले हमेशा उससे सवाल करते कि उसने अपने मायके में अपने इस सिलाई के शौक़ के बारे में क्यों नहीं कभी बात की तो रोली का एक ही ज़वाब था, “घर में कभी कुछ पूछा ही नहीं गया तो मैं कैसे बताती?”

लड़कियों के भी अपने सपने होंगे, उनकी अपनी इच्छा और चाहत होगी। इन सबके बारे में कभी कोई ज़िक्र नहीं किया जाता है। इसलिए कुछ लड़कियां विरोध का रास्ता अपनाती हैं तो कुछ चुपचाप उस पितृसत्तात्मक सिस्टम का हिस्सा बन जाती हैं।

प्रीतम, नैना और रोली जैसी कई लड़कियों की ज़िंदगी में कभी न कभी ऐसा मौक़ा ज़रूर आता है जब उन्हें ये कहना पड़ता है कि– मैं कैसे बताती? फिर मुद्दा शरीर से जुड़ा हो या पढ़ाई या फिर उनके सपनों से। हमारे समाज में कभी भी लड़कियों से उनके सपने और उनकी चाहत के बारे में कोई बात तो क्या इसके बारे में सोचता भी नहीं है। ख़ासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां से मैं खुद और ये सभी लड़कियां ताल्लुक़ रखती हैं। लड़कियों के भी अपने सपने होंगे, उनकी अपनी इच्छा और चाहत होगी। इन सबके बारे में कभी कोई ज़िक्र नहीं किया जाता है। इसलिए कुछ लड़कियां विरोध का रास्ता अपनाती हैं तो कुछ चुपचाप उस पितृसत्तात्मक सिस्टम का हिस्सा बन जाती हैं। इन सबके बीच जब हम बात करते हैं लड़कियों और महिलाओं के लिए एक सुरक्षित जगह या सेफ़ स्पेस की, तो इन तमाम समस्याओं के लिए यह एक सही पहल लगती है।

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सेफ़ स्पेस का मतलब है एक ऐसी जगह जहां हम सुरक्षित महसूस करते हैं और अपनी बातों को खुलकर कह पाते हैं। लेकिन ये सेफ़ स्पेस कैसा हो, इससे पहले हम लोगों की इसकी ज़रूरत अच्छी तरह समझनी होगी। मैं अगर अपने अनुभव के आधार पर बात करूं तो पीरियड्स जैसे विषय पर आज भी लड़कियों से उनके घर में खुलकर बात नहीं की जाती, न उन्हें कभी किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक-मानसिक बदलावों के बारे में बताया जाता है। इसकी वजह से अपने शरीर से जुड़ी चीजों पर बात करने के लिए उनकी शर्म हर दिन गहरी होती जाती है। वे इससे जुड़ी किसी भी समस्या पर बात करने से हिचकती हैं। ठीक इसी तरह बात लड़कियों की चाहत और सपनों की करें तो शरीर की तरह ही इस विषय पर भी परिवार में पूरी चुप्पी होती है। परिवार के सोच से भी ये बात परे होती है कि लड़कियों के भी सपने हैं उनकी भी अपनी चाहत है।

अब सवाल यह आता है कि ये सेफ़ स्पेस हो कैसा? इसका ज़वाब भी बहुत आसान है – अपने जैसा। यह सेफ़ स्पेस वह जगह हो सकती हैं जहां गोपनीयता हो, सही-ग़लत समझे जाने का दबाव न हो, उनकी बातें सुनी जाएं, उनके सवालों के ज़वाब मिले और उन्हें कुछ बातें बताई भी जाएं।

लेकिन जिस तरह बिल्ली अपनी आंखें बंद करके ये सोचती है कि उसे कोई देख नहीं रहा, ठीक उसी तरह जब परिवार और समाज इस बात के बारे में सोचता भी नहीं कि लड़कियों की भी अपने सपने और इच्छाएं होंगी, तो इसका ये मतलब बिलकुल भी नहीं होता कि लड़कियों की अपनी इच्छा, सवाल और चाहत न हो। आसपास के माहौल, शिक्षा, अवसर और शारीरिक-मानसिक बदलाव के साथ-साथ लड़कियों का विकास भी होता है जिसमें वे अपने लिए सपने देखना शुरू करती हैं। जैसे ही उन्हें यह एहसास होता है कि इसका पता चलते ही परिवारवाले उनके सपनों को कुचल देंगे तो या तो वे अपने सपनों को बचाने के लिए पूरी कोशिश करती हैं या फिर उन्हें भुला देती हैं। ऐसे में ज़रूरत है कि हम लड़कियों के लिए अपने घर और रिश्तों में ऐसा स्पेस बनाए जहां लड़कियां अपनी बातें रख सके, बिना डरे।

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यहां हमें भी यह समझना होगा कि कई बार इस सेफ़ स्पेस की ज़रूरत जानकारियों और क्षमतावर्धन के लिए भी होती है। जहां लड़कियों के सवालों के ज़वाब मिल सके, उनके शरीर, मन और करियर से जुड़ी उलझनों को दूर किया जा सके और इसके साथ ही उनके आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए काम किया जा सके। सेफ़ स्पेस लड़कियों के लिए एक बेहतर जगह साबित हो सकती है, जहां प्रीतम अपनी समस्याओं को बेहिचक बता सके, नैना अपने रिश्ते और ज़िंदगी के सपने को समझा सके और रोली अपनी चाहत बात सके।

अब सवाल यह आता है कि ये सेफ़ स्पेस हो कैसा? इसका ज़वाब भी बहुत आसान है– अपने जैसा। यह सेफ़ स्पेस वह जगह हो सकती हैं जहां गोपनीयता हो, सही-ग़लत समझे जाने का दबाव न हो, बातें सुनी जाएं, सवालों के ज़वाब मिले और कुछ बातें बताई भी जाएं। ये स्पेस कुछ दोस्तों का अपना स्पेस हो सकता है, ये स्पेस घर की महिलाओं का अपना स्पेस हो सकता है या ये स्पेस समुदाय से जुड़ी महिलाओं और लड़कियों का भी हो सकता है। आसान भाषा में कहूं तो जिसमें आप अपने मन की बात कहने में सहज हो वह सेफ़ स्पेस होगा।

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तस्वीर साभार: Global Living

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