इंटरसेक्शनलजेंडर वैश्विक शांति स्थापित करने में महिलाओं की भूमिका

वैश्विक शांति स्थापित करने में महिलाओं की भूमिका

आज की वर्तमान परिस्थिति यह है कि अब कोई भी देश शांति और सुरक्षा के एजेंडे में महिलाओं की भूमिका की अनदेखी नहीं कर सकता, भले ही वह लड़ने की भूमिका की बात हो या फिर शांति स्थापित करने का या इससे जुड़े फ़ैसले लेने की। आज के दौर के युद्ध में महिलाओं की पूरी भागीदारी और इससे उनकी जुड़े होने की अपेक्षा की जाती है।

रूस-यूक्रेन विवाद ने एक बार फिर से युद्ध की स्थिति में महिलाओं की भूमिका को आज विश्व पटल पर लाकर खड़ा कर दिया है। दो विश्व युद्ध और उसके बाद लंबे समय तक चले शीत युद्ध और अलग-अलग देशों में हुए अलग-अलग प्रकार के गृह युद्धों ने शांति स्थापित करने में महिलाओं की भूमिका को लेकर ध्यान खींचा है। इसके बाद ही समय-समय पर यह बात उठती रही है कि सुरक्षा और शांति के विषयों में महिलाओं के होने से स्थति बेहतर हो सकती क्या? क्या फौज में महिलाओं के बराबर की भागीदारी सुनिश्चित करने से युद्धों पर विराम लगाया जा सकता है? अगर यूनाइटेड नेशंस और अन्य वैश्विक संगठन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी तो क्या हालात शांतिमय हो सकते हैं?

हालांकि यह और बात है कि इन सब बातों की अभी तक कल्पना ही की गई है। अमेरिका, रूस, चीन, और भारत जैसे बड़े-बड़े सुपरपावर के तथाकथित पावरफुल नेता महिलाओं को अपने राजनीतिक मुकाम हासिल करने का एक ज़रिया या यूं कहे कि सीढ़ी के रूप में ही इस्तेमाल करते आ रहे हैं। अगर एक नज़र इन कल्पनाओं को वास्तविकता में परिवर्तित होने के आसार पर डाली जाए तो विभिन्न प्रकार के शोधों से पता चलता है कि अगर लैंगिक समानता हो, तो किसी देश के भीतर हो रहे संघर्ष या फिर दो देशों के बीच के संघर्ष, दोनों ही परिस्थितियों में शांति कायम होने के आसार बढ़ जाते हैं।

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रूस और यूक्रेन के बीच हो रहे संघर्ष को आज 100 दिन से ज्यादा हो चुके हैं और अभी भी पुख्ता रूप से इसके खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में एक बार महिला, शांति, और सुरक्षा (WPS) के मुद्दों पर UN द्वारा सुझाए गए तरीकों पर नज़र डालना आवश्यक हो जाता है। साल 2020 में UNSC ने सुरक्षा और शांति से संबंधित एक प्रस्ताव को मंजूरी दी थी जो मुख्यरूप से संघर्ष को कम करने और मानवता को बढ़ाने पर ज़ोर देती है। इसके आलावा सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इस प्रस्ताव ने सभी पक्षों से अपील की है कि वे शांति और सुरक्षा के उपायों में महिलाओं को शामिल करें।

साथ ही इसके जरिये यह मांग भी की गई है कि सरकारें अपने नेशनल एक्शन प्लान (NAPs) के ज़रिए लॉ ऑफ आर्म्ड कॉन्फ्लिक्ट (LOAC) को पूरी तरह से लागू करें और संघर्ष को रोकने के हर पहलू और उसके समाधान में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाएं। वहीं, दूसरी तरफ नाटो (NATO) अपने तीन आधारभूत मुख्य कार्यों- साझा रक्षा, संकट के प्रबंधन और सहयोगात्मक सुरक्षा और अपने राजनीतिक और सैन्य ढांचे में महिलाओं द्वारा सुझाए गए तरीकों और उनकी भागीदारी को सुनिश्चित करने पर ज़ोर देता आया है l 

सुरक्षा और शांति के विषयों में महिलाओं के होने से स्थति बेहतर हो सकती क्या? क्या फौज में महिलाओं के बराबर की भागीदारी सुनिश्चित करने से युद्धों पर विराम लगाया जा सकता है? अगर यूनाइटेड नेशंस और अन्य वैश्विक संगठन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी तो क्या हालात शांतिमय हो सकते हैं?

इनके आलावा संयुक्त राष्ट्र संघ, यूरोपीय संघ, ऑर्गेनाइजेशन फॉर सिक्योरिटी एंड कॉर्पोरेशन इन यूरोप और अफ्रीकी संघ जैसे अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठन भी महिला, शांति और सुरक्षा (WPS) के एजेंडे को मुख्यधारा में शामिल करने के प्रयास करते आए हैं। हालांकि, अभी तक बुनियादी रूप से किसी भी देश ने इस दिशा में कुछ खास कदम नहीं उठाया है। अगर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) के प्रस्ताव 1325 पर एक नज़र डाली जाए तो यह नीति निर्माताओं को लैंगिक मुख्यधारा की बयानबाजी से आगे बढ़ने और शब्दों को व्यवहार में लाने का अवसर प्रदान करती है। यूएन का संकल्प 1325 के संघर्ष के बाद के संदर्भों में शांति और स्थिरता के लिंग-संवेदनशीलता के दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित करता है। अगर देखा जाए तो पिछले 15 वर्षों में नीतिगत चर्चाओं में शांति निर्माण प्रक्रियाओं में महिलाओं को शामिल करने की प्रक्रिया ने गति तो प्राप्त की है, लेकिन अभी तक निर्णय लेने की स्थिति में महिलाओं की संख्या अपेक्षाकृत कम है।

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अगर शांति स्थापना में अधिक महिलाओं की भागीदारी की आवश्यकता पर गौर किया जाए तो महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक प्रभावी साबित होंगी। भविष्य में महिलाओं द्वारा शांति स्थापित करने में दिए जानेवाले योगदान पर एक नज़र डालें तो जमीनी स्तर पर महिलाएं समुदायों तक पुरुषों की तुलना में अधिक पहुंच रखती हैं। ये मानवाधिकारों और नागरिकों की सुरक्षा को बढ़ावा देने में भी मदद कर सकती हैं। साथ ही ये महिलाओं को शांति और राजनीतिक प्रक्रियाओं का एक सार्थक हिस्सा बनने के लिए प्रोत्साहित कर सकती हैं।

हाल के कई रिसर्च ये साबित करते हैं कि जब महिलाएं शांति बहाली में भागीदार बनकर अपनी भूमिका निभाती हैं तो शांति समझौते ज़्यादा स्थायी होते हैं और बेहतर ढंग से लागू किए जाते हैं, तब शांति समझौते के नाकाम होने की आशंका 64 प्रतिशत तक कम हो जाती है। कई स्वयंसेवी संगठनों द्वारा किए गए शोध के मुताबिक शांति बहाल करने, समाज के कमजोर वर्ग तक पहुंचने, ख़ुफ़िया जानकारी इकठा करने में महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा दक्ष साबित हुई हैं, फिर भी आज तक अलग-अलग देशों ने अपनी नीतियों में महिलाओं के सुझावों को शामिल करने और उन्हें उच्च प्रशासनसिक पदों से दूर ही रखा है।

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जहां, तक फौज में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की बात है तो वहां UNSC बीसवीं सताब्दी के अंतिम दशक से ही महिलाओं की फौज में बहाली का पक्षधर रहा है। साल 2004 में ही UNSC ने अपने सदस्य देशों से महिलाओं की सेना में भागीदारी बढ़ाने के प्रति नीति निर्माण की अपील की थी। हालांकि, यह और बात है कि कुछ छोटे देशों के आलावा इसके प्रति और किसी ने उत्साह प्रकट नहीं किया। जिन देशों ने उस समय महिलाओं की फौज में भर्ती को लेकर दिलचस्पी दिखाई उसमें भी उनके भर्ती प्रक्रिया में विभिन्न देशों में अलग-अलग संस्थागत ढांचे देखने को मिलते रहे हैं। अगर भारत जैसे देशों में इस तरह के प्रयासों पर गौर किया जाए तो यहां भी बस हाल ही के दिनों में शुरू हुए कुछ छिट–पुट प्रयासों के आलावा कुछ खास नहीं देखने को मिला है।

अगर शांति स्थापना में अधिक महिलाओं की भागीदारी की आवश्यकता पर गौर किया जाए तो महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक प्रभावी साबित होंगी। भविष्य में महिलाओं द्वारा शांति स्थापित करने में दिए जानेवाले योगदान पर एक नज़र डालें तो जमीनी स्तर पर महिलाएं समुदायों तक पुरुषों की तुलना में अधिक पहुंच रखती हैं।

एक तरफ इस तरह की नीतियों को लागू करने को लेकर किसी खास मंत्रालय के निर्माण का आभाव और दूसरी तरफ अपर्याप्त संसाधन और पूंजी इन नीतियों के सामने आज मुंह खोले खड़े हैं। यह गौरतलब है कि जहां भी महिलाओं की फौज में भागीदारी को लेकर कुछ प्रयास हुए हैं वहां बस उनकी संख्या बल को ही बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया है। अगर हम लैंगिक समानता के व्यापक अर्थ को समझने का प्रयत्न करें तो इसका मतलब संख्या से कहीं बढ़कर है। अगर देखा जाए तो सामाजिक भूमिकाओं और संवादों में महिलाओं की भागीदारी को ज्यादातर नज़रअंदाज़ ही किया गया है। जहां तक संसाधनों तक बराबर की पहुंच की बात है वहां महिलाएं अभी बहुत पीछे हैं। लैंगिक समानता के व्यापक स्तर तक पहुंचने के लिए WPS पर आधारित नीतियों को विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में आज तुलनात्मक ढंग से जांच-परख कर लागू करने की ज़रूरत है।

विगत कुछ वर्षों में हमने दुनिया के कई देशों जैसे कि अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, लीबिया, सीरिया और यमन में तरह-तरह के सशस्त्र संघर्ष होते देखे हैं। हालांकि, इनमें से कुछ तो गृह युद्ध ही थे और कुछ ने रूस-यूक्रेन जैसा व्यापक रौद्र रूप अख्तियार किया और महिलाओं की व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक और ऐसे ही लगभग सभी आयामों को प्रभावित किया। इन सभी युद्धों में जो एक बात समान थी, वह यह कि महिलाएं तुलनात्मक रूप से बेघर, हिंसा या शोषण और मौत की शिकार पुरूषों से कहीं ज्यादा हुईं हैं। बावजूद इसके आज आश्चर्य की बात यह है कि शांति और सुरक्षा से जुड़े फ़ैसलों में महिलाओं की नुमाइंदगी सबसे कम है।

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आज इन तथाकथित ‘महिलाओं के उत्थान के प्रति समर्पित संस्थानों’ के लिए शर्म की बात है की काउंसिल ऑफ फॉरन रिलेनशन के द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 1992 से 2019 के बीच दुनियाभर की शांति प्रक्रियाओं में वार्ताकारों के तौर पर 13 फ़ीसद, मध्यस्थों में छह प्रतिशत और शांति प्रक्रिया में दस्तख़त करने वालों में भी छह प्रतिशत ही महिलाएं थी। ध्यान देने लायक बात यह है कि ये हाल तब है जब यह साबित हो चुका है कि अगर लैंगिक समानता हो, तो देशों के भीतर या बीच चल रहे संघर्ष के कम होने के आसार बढ़ जाते हैं।

आज की वर्तमान परिस्थिति यह है कि अब कोई भी देश शांति और सुरक्षा के एजेंडे में महिलाओं की भूमिका की अनदेखी नहीं कर सकता, भले ही वह लड़ने की भूमिका की बात हो या फिर शांति स्थापित करने का या इससे जुड़े फ़ैसले लेने की। आज के दौर के युद्ध में महिलाओं की पूरी भागीदारी और इससे उनकी जुड़े होने की अपेक्षा की जाती है। आज विभिन्न शोध इस बात के प्रमाण हैं कि महिलाएं न सिर्फ़ सशस्त्र संघर्ष का असर कम करने में अहम भूमिका निभाती हैं, बल्कि युद्ध की ओर बढ़ने की आशंका कम करके सुरक्षा के बहुपक्षीयवाद को सुधारने का काम भी करती हैं।

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तस्वीर साभार: UN Women

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