“अरे वाह! आपकी लड़की तो बड़ी हो गयी, तैयारी शुरू कर दीजिए|” तेरह साल की थी जब पहली बार मेरे एक रिश्तेदार ने पापा से यह कहा था| उस समय तो सबने इस बात को हंसकर टाल दिया गया मगर मेरे मन यह सवाल उमड़ता ही रहा की आखिर किस बात की तैयारी? बड़े होने पर उस बचपन के सवाल का तो जवाब मिल गया मगर एक दूसरे सवाल ने उसकी जगह ले ली कि ‘क्या मेरे जीवन का मकसद खुद को सिर्फ शादी के लिए तैयार करना था?’
लड़की की हर बात पर ‘शादी का चश्मा’
मुझे आज भी याद है कि जब भी मैं किसी वजह से भावुक होकर रो पड़ती थी तो मुझे कहा जाता था की “चुप हो जाओ वरना विदाई में आंसू कैसे बहोगी?” उस समय तो इतनी गंभीरता से नहीं सोचा मगर आज लगता है की क्या शादी के सिवा जीवन का कोई मकसद ही नहीं? बड़ी जद्दोजहद के साथ खुद को हर बार समझाती थी और हर बार कोई माँ-पापा को शादी करने की घुट्टी देने चला आता था| एक छोटे शहर में पली बढ़ी मैं, पढाई में अव्वल रहती थी| माँ-पापा से कई प्रोत्साहन मिला करते थे कि आगे बढूँ, मगर आस-पास के लोगों को ये गवारा नहीं होता था| मुझे आज भी याद है कि घर पर कुछ मेहमान आये थे जब माँ की तबियत ख़राब थी और अच्छी चाय बनाने पर प्रोत्साहन के बजाए मुझे कहा गया “अरे आपकी गुड़िया तो अब से ही शादी के लिए तैयार हो गयी है|”
समाज हर काम सिर्फ शादी वाले चश्मे से ही देखता है|
बड़े होने पर इस बात का आभास होता गया की जीवन में शादी से परे भी कई आयाम हैं| इसी चाहत में अपना बैचलर्स पूरा करने के बाद मैंने फैसला किया कि मैं शहर से बाहर जाकर पढाई करुँगी| चाचा जी ने सलाह दी कि होम-साइंस पढ़ लूँ| इसी बहाने सिलाई-बुनाई सीखकर मैं शादी के लिए भी तैयार ही जाउंगी | हद तो तब हो गयी जब एक रोज़ पड़ोस की भाभी ने अपने देवर का रिश्ता मुझसे करने की बात छेड़ दी | मात्र उन्नीस साल की उम्र में यह सोचना भी मुझे गवारा नहीं था मगर आसपास के समाज से लगातार ही मुझपर दबाव बन रहा था| ये सब देखकर ऐसा लगता जैसे समाज में लड़कियों का अस्तित्व सिर्फ शादी तक ही सीमित है| चाहे वो कुछ भी करे समाज हर काम सिर्फ शादी वाले चश्मे से ही देखता है|
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शादी का मतलब
सभी बातों को किनारे रख मैंने फैसला किया कि अपने फैसले पर अमल करुँगी और ‘फेमिनिज्म’ की पढाई करने घर से निकल आई| घर पर लोगों ने कहना शुरू कर दिया की जिस पढाई को करने के लिया बाहर निकलने दिया है न, देखिएगा अब आपकी लड़की हाथ से भी निकल जाएगी| बात सिर्फ यहाँ तक नहीं थी कि मुझे इन लोगों की जवाबदेही करनी थी, बल्कि मेरे अन्दर अपने सपनों को जीने की अनंत चाहतें थी जिनका गला मैं उस शहर में रहकर घोंट नहीं सकती थी| पढ़ाई आगे बढ़ती रही और मैं सीखती गयी कि कैसे बचपन से ही मुझपर एक ‘संस्कारी बहू’ बनने के कई पैतरे अपनाये जाते थे, जिनका मुझे कभी आभास भी न हुआ था| वो गुड्डे-गुड़ियों से खेलना, उनका ब्याह रचाना, गुलाबी कपड़े पहनना, चूड़ियों के लिए ज़िद करना कही न कही दिन-प्रतिदिन मेरे अबोध मन में आने वाले जीवन का थोड़ा परिचय देने के समान था|
ज़रूरी है कि हम खुद को अपने सपनो के लिए तैयार करें |
पढ़ाई के साथ देश-दुनिया की समझ तो आई ही, साथ ही साथ रोजमर्रा के घटनाक्रमों का भी भरपूर विश्लेषण करने की क्षमता सीखी| बेशक समझ आने लगा कि आखिर क्यों पढ़ाई करने पर रोक लगाया करते थे सभी| मेरे शरीर पर खुद का अधिकार है, इस बात का बोध हुआ| साथ ही यह आभास भी कि शादी का मतलब बस ये नहीं कि आप अपने भविष्य को दांव पर लगाकर और अपनी रूचि का त्यागकर सिर्फ गृहस्थी तक सीमित हो जाए|
खुद के लिए सपना और सपनों के खुद को तैयार करें
औरत को त्याग की मूरत बनाने का जाल भी अब साफ़ दिखाई देता था| मैंने पूरी लगन से खुद को अपने भविष्य के लिए तैयार किया| पढ़ाई पूरी कर जब घर लौटी तो पास में एक अच्छी नौकरी थी और कहा अनकहा ‘फेमिनिस्ट’ टैग| लोगों ने निंदा करने के एक अवसर न छोड़े क्योंकि अब शायद मैं अपनी मर्ज़ी को ज्यादा तवज्जो देती थी| अपनी ‘चॉइस’ का ध्यान रखती थी जिसका तो अधिकार शायद हमें कभी दिया ही नहीं जाता| घर पर माँ-पापा के सिवा हर किसी की तरेरती हुई निगाहों के सिवा कुछ नहीं मिलता था|
भाभियों ने अपनी बच्चियों को मना कर दिया कि मुझसे बात न करें क्यूंकि मैं गलत राय दूंगी| इतने के बावजूद मैंने खुद अपनी क़द्र करना कभी न छोड़ा और समय के साथ एक क़द्र करने वाला हमसफ़र भी मिल गया| आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो लगता है कि जाने-अनजाने में समाज हमपर न जाने कितनी बेड़ियाँ कसता है पर हमारे लिए ज़रूरी है कि हम इनके खिलाफ अपनी चुप्पी तोड़ें और एकबार खुद को अपने सपनों को जीने का अवसर दें| ज़रूरी है कि हम खुद को अपने सपनो के लिए तैयार करें|
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