इतिहास चन्नार क्रांति : दलित महिलाओं की अपने ‘स्तन ढकने के अधिकार’ की लड़ाई

चन्नार क्रांति : दलित महिलाओं की अपने ‘स्तन ढकने के अधिकार’ की लड़ाई

चन्नार क्रांति याद दिलाती है कि समाज ने दलितों, अल्पसंख्यकों, औरतों पर किस तरह के ज़ुल्म किए और कैसे हर बार इंक़लाब से ही समाज में सुधार आया है।

आपने नंगेली का नाम सुना होगा। केरला की वो जांबाज़ औरत जिसने ‘स्तन कर’ प्रथा के विरोध में अपने स्तन काटकर, उन्हें केले के पत्ते पर सजाकर सरकारी कर्मचारी को पेश किए थे। दक्षिण भारत की इस क्रूर प्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानेवाली नंगेली अकेली नहीं थीं। सैकड़ों तथाकथित ‘छोटी जात’ की औरतें इसके ख़िलाफ़ लड़ीं थीं। अपने शरीर को कपड़ों से ढकने के अधिकार के लिए उन्हें अपनी जान तक देनी पड़ी। इसी संघर्ष का नाम था – चन्नार क्रांति या मरु मक्कल समारम।

बात 19वीं सदी की है। दक्षिण भारत के त्रावणकोर राज्य (जिसे आज हम केरला के नाम से जानते हैं) में ‘नीची जात’  की औरतों को अपने स्तन ढकने की इजाज़त नहीं थी।  नंगी छाती को ग़ुलामी का माना जाता है, इसलिए जहां ‘नीची जात’ के मर्दों को कपड़े पहनना मना था, औरतों को भी शरीर के ऊपरी हिस्से को नंगा रखना पड़ता था। यहां तक कि ऊंची जात की औरतों को भी पति के सामने कपड़े पहनने की इजाज़त नहीं थी, चाहे वो कहीं और क्यों न पहनें। एक दलित लड़की के स्तन निकलते ही उसके परिवार से ‘स्तन कर’ लिया जाता था।

साल 1813 में इसका विरोध शुरू हुआ। त्रावणकोर के दलितों में जो दो मुख्य जातियां थीं, उनके नाम हैं ‘एरावा’ और ‘पन्नयेरी नाडर।’ इन दो जातियों की औरतें सड़क पर निकल आईं इस मांग के साथ कि उन्हें ‘कुप्पायम’ पहनने दिया जाए। ‘कुप्पायम’ एक तरह का बनियान था जो मुसलमान और ईसाई औरतें पहनतीं थीं। साथ में उन्होंने ये मांग भी रखी कि कुप्पायम के अलावा उन्हें हर तरह के कपड़े पहनने की इजाज़त हो, जो ऊंची जात की औरतें पहनती हों।

पांच साल वे अपने हक़ों की मांग रखती रहीं पर असर इतनी जल्दी नहीं होना था। साल 1819 में त्रावणकोर के महाराजा, मूलम तिरुनल राम वर्मा ने ये कहते हुए फ़रमान जारी किया कि दलित औरतों को कपड़े पहनने का कोई अधिकार नहीं है। निराशा हुई। लेकिन हिम्मत नहीं हारनी थी। औरतें अपनी ज़िद पर अड़ीं रहीं और विरोध प्रदर्शन जारी रहा। इसका नतीजा आया अगले साल। साल 1820 में, त्रावणकोर के दरबार में एक ब्रिटिश दीवान, कर्नल जॉन मुनरो ने उन सभी दलित औरतों को कपड़े पहनने की इजाज़त दी, जो धर्मांतरण करके ईसाई बनी थीं।

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कर्नल जॉन के इस फ़रमान ने राज्यसभा में खलबली मचा दी। ऊंची जाति के सभासदों ने इसकी कड़ी निंदा की ये कहकर कि दलित औरतें कपड़े पहनने लगेंगी तो दलितों और ऊंची जातियों में फ़र्क़ करना मुश्किल हो जाएगा, जो समाज के लिए हानिकारक होगा। फ़रमान वापस ले लिया गया और विरोध करती महिलाओं का बुरी तरह से शारीरिक शोषण किया गया। साल 1822 में कर्नल जॉन ने दोबारा ये फरमान जारी किया। इस बार ऊंची जात वालों की शिकायत करने के बावजूद वो जारी रहा। औरतें शरीर ढकने का हक़ आज़माने के लिए धर्मांतरण करके ईसाई बनने लगीं और हर रोज़ उन्हें ऊंची जाति के लोगों से शारीरिक और मानसिक अत्याचार सहते रहना पड़ा। 

साल 1829 से धर्मान्तरित ईसाई औरतों के साथ हिन्दू दलित औरतें बगावत में शामिल होने लगीं। अपने स्तन ढककर मंदिर जाने लगीं और शारीरिक आक्रमण का जवाब भी देने लगीं। सवर्णों ने ईसाई मिशनरियों को इसके लिए दोषी ठहराया। उनका मानना था कि ये हिंदू समाज को बर्बाद करने की और हिन्दुओं की ईसाईकरण करने की साज़िश है। इन औरतों को दबाए रखने के लिए उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। और जैसे-जैसे हिंसा बढ़ती गई, बगावत भी और बुलंद होने लगी।

साल 1858 में सारी हदें पार हो गईं जब ऊंची जाति के मर्द बीच सड़क में, भाले की मदद से औरतों का कुप्पायम उतारकर फेंकने लगे। एक सरकारी कर्मचारी ने दो नाडर औरतों के कुप्पायम अपने हाथों से फाड़ दिए, फिर दोनों औरतों को बांधकर पेड़ से लटका दिया। ये धीरज की आखिरी परीक्षा थी जिसका दलित समाज ने बहुत भयंकर जवाब दिया।  ऊंची जाति के लोगों पर हमला शुरू हो गया। आगजनी हुई। पूरे के पूरे मोहल्ले जला दिए गए। अब सरकार इसको अनदेखा नहीं  कर सकती थी। त्रावणकोर के राजा के पास मद्रास के गवर्नर से आदेश आया कि जल्द से जल्द ये हिंसा रोकी जाए।

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बाव में आकर त्रावणकोर के राजा ने सभी दलित औरतों को अपने स्तन ढकने का अधिकार दे दिया। 26 जुलाई 1859 को ये फ़रमान जारी किया गया। फिर भी दलित औरतों को सिर्फ़ कुप्पायम या मछुआरों के पहने गए कपड़ों से खुद को ढकने की इजाज़त मिली। ऊंची जाति की औरतों की तरह साधारण कपड़े पहनने का हक़ उन्हें साल 1915  या साल 1916 में जाकर ही मिला।अपने शरीर को ढकने जैसी आम बात के लिए त्रावणकोर की दलित औरतों को सालों तक संघर्ष करते रहना पड़ा, फिर भी इतिहास में उन्हें वो सम्मान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था। वैसे ही कम ही लोग इन औरतों और उनके संघर्ष के बारे में जानते हैं। ऊपर से, साल 2016 में राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने स्कूल की किताबों से इनका ज़िक्र भी हटवा दिया।

चन्नार क्रांति जैसी घटनाएं हमें भूलनी नहीं चाहिए। हमें नहीं भूलना चाहिए कि समाज ने दलितों, अल्पसंख्यकों, औरतों पर किस तरह के ज़ुल्म किए हैं और किस तरह हर बार इंक़लाब से ही समाज में सुधार आया है। चन्नार क्रांति हम सबके लिए एक मिसाल है, जिससे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ हमारी आवाज़ें और बुलंद हों।

Also read in English: The Channar Revolt: The Fight For A Dignified Existence


तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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