इंटरसेक्शनल सुग़रा हुमायूं मिर्ज़ा : पर्दे के ख़िलाफ़ मुस्लिम महिलाओं के हक़ की पहली बुलंद आवाज़

सुग़रा हुमायूं मिर्ज़ा : पर्दे के ख़िलाफ़ मुस्लिम महिलाओं के हक़ की पहली बुलंद आवाज़

सुग़रा हुमायूँ मिर्ज़ा, ऐसी महिला थी जिन्होंने मुस्लिम महिलाओं के हित के लिए और उनकी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए अपनी आवाज़ को बुलंद किया।

सुग़रा हुमायूँ मिर्ज़ा हैदराबाद दक्कन से सम्बन्ध रखने वाली एक ऐसी महिला थी जिन्होंने मुस्लिम महिलाओं के हित के लिए और उनकी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए अपनी आवाज़ को बुलंद किया। वह पहली ऐसी महिला थी जिन्होंने पर्दे की क़ैद से खुद को आज़ाद किया। घर से बाहर बिना पर्दे के निकलने वाली वे हैदराबाद दक्कन क्षेत्र की पहली महिला मानी जाती हैं. उस समय के रीति-रिवाज़ों के हिसाब से उनके लिए यह बहुत मुश्किल रहा होगा।

सुग़रा मिर्ज़ा का जन्म हैदराबाद में 1884 में हुआ। सुग़रा मरियम बेगम और डॉक्टर सफ़दर अली की बेटी थीं। इनके पुरखे ईरान और तुर्की से आए थे। लेकिन वो यहीं आकर बस गए और दक्कन को ही अपना देश माना। उनकी माँ मरियम बेगम लड़कियों की शिक्षा की पक्षधर थीं। सुग़रा ने घर पर ही उर्दू और फ़ारसी की शिक्षा हासिल की। सुग़रा के वैवाहिक जीवन की बात करें तो उनकी शादी सैयद हुमायूँ मिर्ज़ा के साथ साल 1901 में हुई।

हुमायूँ मिर्ज़ा एक बैरिस्टर थे और लंदन से पढाई कर हैदराबाद में वकालत करने के उद्देश्य से आये थे। वहाँ उन्होंने कुछ बैरिस्टरों की मदद से अंजुमन-ए-तरक़्क़ी-ए-निस्वाँ की नींव डाली थी। वहीं हुमायूँ मिर्ज़ा की मुलाक़ात सुग़रा से हुई, सुग़रा के विचारों ने मिर्ज़ा को काफी प्रभावित किया। शादी के बाद सुग़रा हुमायूँ मिर्ज़ा के नाम से जानी जाने लगी। हुमायूँ मिर्ज़ा स्त्रियों की शिक्षा के समर्थन में थे इसलिए सुगरा को शादी के बाद पढ़ने लिखने में किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा। हुमायूँ मिर्ज़ा के खुले विचारों के चलते सुग़रा सामाजिक कामों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेनी लगीं।

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उन्होंने मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा के साथ-साथ पर्दा प्रथा का विरोध किया और मुस्लिम समुदाय में बहु-विवाह के प्रचलन के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई और साल 1931 में हुई आल इंडिया वीमेन कॉन्फ्रेंस में कहा कि जिन पुरुषों की पहले शादी हो चुकी है उन्हें माता-पिता अपनी बेटियां न दें। इस पर वे लिखती हैं कि –

एक मिया एक बीवी,
क्या मज़े की बात है।

एक मिया दो बीवी,
झगड़ा साथ-साथ है।

एक मिया तीन बीवी,
घूसा मुक्की लठ है।

एक मिया चार बीवी,
मुर्दा हाथों हाथ है



अपने इन्हीं प्रयासों के दम पर उन्होंने 1934 हैदराबाद में लड़कियों की शिक्षा के लिए ‘मदरसा सफ़दरिया’ की शुरुआत की जिसका संचालन आज भी ‘सफ़दरिया गर्ल्स हाई स्कूल’ के नाम से किया जा रहा है। बेगम मिर्ज़ा ने महिलाओं से संबंधित कई पत्रिकाओं के संपादक के रूप में काम किया, उनमें अनीसा (स्त्री) और ज़ेबुन्निसा (खूबसूरत स्त्री ) शामिल हैं। वे हैदराबाद दक्कन की पहली महिला सम्पादक मानी जाती हैं महिलाओं की ज़िन्दगी से जुड़ी ये पत्रिकाएं हैदराबाद और लाहौर से प्रकाशित हुआ करती थी। इनमें महिलाओं की सामाजिक हालत को बेहतर करने के विभिन्न तरीकों पर चर्चा होती थी। इनमें ज़्यादातर लेखन भी महिलाओं का ही होता था. लेकिन अन निसा का पूरा काम सुग़रा ही करती थीं।

सुग़रा हुमायूँ मिर्ज़ा हैदराबाद दक्कन से सम्बन्ध रखने वाली एक ऐसी महिला थी जिन्होंने मुस्लिम महिलाओं के हित के लिए और उनकी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए अपनी आवाज़ को बुलंद किया।


जहाँ तक साहित्यिक प्रकाशन का सवाल था, उनमें मुशीर-ए-निस्वां (महिला सलाहकार, 1920), मोहिनी (मोहिनी 1931) सफ़रनामा-ए-इराक (इराक़ का सफर, 1915), मजमुआ- जैसी कृतियों के साथ सामने आया था। इसके बाद ”एलेगिस का एक संग्रह, 1989 संस्करण”, ”मुख्तार हलात हज़रत बीबी फातिमा”(हज़रत बीबी फातिमा का एक छोटा जीवन इतिहास, 1940) और ”नसीहत के मोतमा मजमुह-यि-नसेह” (निर्देश के मोती: 1955 में सलाह का एक संग्रह) भी सामने आया। उनमें से ज्यादातर को उनकी कलम नाम “हया” का उपयोग करते हुए लिखा गया था, जो 1920 के दशक में हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली मुस्लिम महिलाओं की पत्रिका ‘अनीसा’ द्वारा प्रकाशित की गई थी। ये पत्रिकाएं मुस्लिम महिलाओं की वो जुबान थी जो समाज में हर वक़्त गूंगी रहती थी जिसपर मुश्किल ही कोई बात करता था, इस तरह सुग़रा का उद्देश्य मुस्लिम समुदाय में पितृसत्ता के उन पहलुओं के खिलाफ आवाज़ उठाना था जिसे महिलाएं बरसों से सहती आ रही थीं।

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साल 1958 में सुग़रा ने दुनिया को अलविदा कह दिया हालाँकि मिर्ज़ा बेगम ने अपनी ज़िंदगी में यह सब करने के लिए ढेरों रुकावटों और परेशानियों का सामना किया। उन जैसी महिलाओं को इतिहास में जो मुकाम मिलना चाहिए था वह आज तक नहीं मिला। अपनी ‘हया’ नामक नज़्म में वे लिखती हैं कि:

कोई भी आएगा तुर्बत पे भला मेरे बाद
ख़ाक आ आके उड़ाएगी सबा मेरे बाद
जीते जी क़द्र किसी ने भी न जानी अफ़सोस
याद में रोएगा फिर कौन भला मेरे बाद।

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तस्वीर साभार : bbc.com

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