इंटरसेक्शनलजेंडर क्या है महिला वैज्ञानिकों के योगदान को भुलाने की परंपरा ‘मटिल्डा एफेक्ट’?

क्या है महिला वैज्ञानिकों के योगदान को भुलाने की परंपरा ‘मटिल्डा एफेक्ट’?

महिलाओं को हाशिए पर रखने की इस प्रवृत्ति को 'मटिल्डा प्रभाव' कहते हैं और इसका नाम उन्नीसवीं सदी की मताधिकारवादी और लेखिका मटिल्डा जोसलिन गेज के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने महिलाओं के योगदान को नजरअंदाज़ करने की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला था।

क्या आपको पता है कि डीएनए की खोज किसने की? अगर नहीं पता तो इन्टरनेट पर खोजिए। आपको जवाब में फ्रेडरिक मिशर का नाम नज़र आएगा। साथ में, डीएनए की डबल हेलिक्स संरचना के खोजकर्ताओं के तौर पर वॉटसन और क्रिक का नाम भी नज़र आएगा। अगर नहीं नज़र आएगा तो सिर्फ रोज़ालिंड फ्रैंकलिन का नाम। वॉटसन और क्रिक की खोज असल में रोज़ालिंड फ्रैंकलिन के काम पर ही आधारित थी, लेकिन डीएनए की संरचना की खोज में जीते जी रोज़ालिंड को वैसी सराहना नहीं मिली जिसकी वे हकदार थीं। कुछ ऐसी ही स्थिति एलिस बॉल के साथ भी हुई। वे एक प्रतिभाशाली अफ़्रीकी-अमरीकी रसायनज्ञ थीं जिन्होंने कुष्ठ रोग का पहला प्रभावी उपचार विकसित किया।

उनकी विधि जिसे बाद में ‘बॉल विधि’ के नाम से जाना गया, दो दशकों से भी अधिक समय तक कुष्ठ रोग का मानक उपचार बनी रही। लेकिन, एलिस अपनी खोजों को प्रकाशित करने से पहले ही 24 वर्ष की अल्पायु में चल बसीं। उनकी मृत्यु के बाद, उनके शोध को उनके साथी रसायनज्ञ और बाद में विश्वविद्यालय के अध्यक्ष आर्थर एल. डीन ने अपने शोध पत्र के रूप में प्रस्तुत किया। कई वर्षों तक, एलिस बॉल के अभूतपूर्व योगदान को मान्यता नहीं मिली। बहुत बाद में इतिहासकारों और वैज्ञानिकों ने उनका नाम फिर से सुर्खियों में लाया और आखिरकार उन्हें उनकी जीवनरक्षक खोज के लिए वह श्रेय दिया जिसकी वे हकदार थीं।

उन्होंने और उनके पति ने मिलकर रेडिएम की खोज की। लेकिन नोबेल पुरस्कार देने वाली समिति ने केवल उनके पति को नामित किया। बाद में उनके पति द्वारा यह कहने पर कि अगर मैरी को शामिल नहीं किया गया तो वे नामांकन स्वीकार नहीं करेंगे, तब जाकर मैरी और उनके पति दोनों को पुरस्कार दिया गया।

एक और वैज्ञानिक जिनकी चर्चा होती है और जिनके काम से हम थोड़ा-बहुत परिचित हैं, उनमें से मेरी क्यूरी एक हैं। वे भौतिक शास्त्र और रसायन शास्त्र दोनों विषयों (1903 में भौतिक शास्त्र में और 1911 में रसायन शास्त्र में) में नोबेल जीतने वाली दुनिया की पहली महिला थीं। उन्होंने और उनके पति ने मिलकर रेडिएम की खोज की। लेकिन नोबेल पुरस्कार देने वाली समिति ने केवल उनके पति को नामित किया। बाद में उनके पति द्वारा यह कहने पर कि अगर मैरी को शामिल नहीं किया गया तो वे नामांकन स्वीकार नहीं करेंगे, तब जाकर मैरी और उनके पति दोनों को पुरस्कार दिया गया। मैरी क्यूरी की तरह ही बहुत-सी अन्य महिला वैज्ञानिकों ने भी अपने पतियों के साथ मिलकर काम किया।

तस्वीर साभार: Lost Women of Science

मैरी तो मटिल्डा प्रभाव से बच गईं, लेकिन बहुत-सी महिला वैज्ञानिक ऐसी थीं जिनके कामों का श्रेय या तो उनके पति या उनके सहयोगियों को दे दिया गया। कई बार ऐसा भी हुआ कि किसी खोज में किसी महिला वैज्ञानिक की भूमिका तो रही, लेकिन मुख्य भूमिका न होने की वजह से उस खोज का पूरा श्रेय किसी एक पुरुष वैज्ञानिक को या फिर पुरुष वैज्ञानिकों के छोटे-से समूह को दे दिया गया। आज भी अगर हम विज्ञान, गणित या कम्प्यूटर साइंस के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार विजेताओं पर नज़र डालें तो हम पाएंगे कि इनमें से लगभग सभी पुरुष ही होते हैं। महिलाओं को हाशिए पर रखने की इस प्रवृत्ति को ‘मटिल्डा प्रभाव’ कहते हैं और इसका नाम उन्नीसवीं सदी की मताधिकारवादी और लेखिका मटिल्डा जोसलिन गेज के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने महिलाओं के योगदान को नजरअंदाज़ करने की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला था।

महिलाओं को हाशिए पर रखने की इस प्रवृत्ति को ‘मटिल्डा प्रभाव’ कहते हैं और इसका नाम उन्नीसवीं सदी की मताधिकारवादी और लेखिका मटिल्डा जोसलिन गेज के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने महिलाओं के योगदान को नजरअंदाज़ करने की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला था।

वे दि नेशनल सिटिज़न अखबार में एक कॉलम लिखा करती थीं और उन्होंने इस कॉलम के ज़रिए महत्त्वपूर्ण, लेकिन भुला दी गई महिलाओं के काम को प्रचारित किया। इसके अलावा उन्होंने 1870 में एक पुस्तिका भी लिखी, जिसका नाम था – वूमन एज़ इन्वेंटर्स इस पुस्तिका में उन्होंने उस समय समाज में प्रचलित इस धारणा की निंदा की कि महिलाओं में आविष्कार करने की प्रेरणा और प्रतिभा का अभाव होता है। मटिल्डा के इसी काम की वजह से बाद में प्रोफ़ेसर मार्गरेट डब्ल्यू ने उनके ही नाम पर ‘मटिल्डा प्रभाव’ शब्द को गढ़ा। सच तो यह है कि इतना लंबा समय बीत जाते के बावजूद आज भी मटिल्डा प्रभाव कायम है। अगर हम पाठ्यपुस्तकों की बात करें तो उनमें भी विज्ञान के क्षेत्र में जितना पुरुष वैज्ञानिकों के बारे में और उनके योगदानों के बारे में पढ़ने को मिलता है, उतना महिला वैज्ञानिकों के बारे में नहीं।

तस्वीर साभार: Lost Women of Science

कई सालों तक पाठ्यपुस्तकों में पुरुष वैज्ञानिकों के योगदानों का ही महिमामंडन किया जाता रहा। साथ ही, इनमें वैज्ञानिकों की छवि को दर्शाने के लिए भी पुरुषों को ही प्रतीकों के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था। इस ऐतिहासिक पूर्वाग्रह ने इस गलत धारणा को बढ़ावा दिया कि विज्ञान पुरुषों का क्षेत्र है जबकि ऐसा है नहीं। ऐसी बहुत-सी महिला वैज्ञानिक रही है जिन्होंने नई-नई खोजों में अभूतपूर्व योगदान दिया, लेकिन उनकी कहानियां अकसर हमारे सामने ही नहीं आ पाती हैं। आप शायद इसे सामान्य-सी बात मानें, लेकिन यह एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। पाठ्यपुस्तकों में, इन्टरनेट पर और अन्य प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध सामग्रियों पर नज़र डालने पर यह हकीकत हमारे सामने आ जाती है। इसके अलावा ऐसा भी होता है कि पुरुष वैज्ञानिकों के काम को ज़्यादा विश्वसनीय मानते हुए संदर्भ के तौर पर ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है।

पाठ्यपुस्तकों में महिला वैज्ञानिकों के काम को शामिल करना हाल-फिलहाल की ही घटना है। उदाहरण के लिए आज एनसीईआरटी की कक्षा आठ की पाठ्यपुस्तक में एक पूरा पाठ भारतीय भौतिक विज्ञानी बिभा चौधरी पर केन्द्रित है।

समावेशन की दिशा में हो रही कुछ पहलें 

पाठ्यपुस्तकों में महिला वैज्ञानिकों के काम को शामिल करना हाल-फिलहाल की ही घटना है। उदाहरण के लिए आज एनसीईआरटी की कक्षा आठ की पाठ्यपुस्तक में एक पूरा पाठ भारतीय भौतिक विज्ञानी बिभा चौधरी पर केन्द्रित है। इसके अलावा, एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं की सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में एक पाठ है, ‘औरतों ने बदली दुनिया।’ यह पाठ इस पर केन्द्रित है कि किस तरह से समाज में कुछ क्षेत्रों को महिलाओं का क्षेत्र और कुछ को पुरुषों का क्षेत्र मानते हुए काम क्षेत्रों का बंटवारा कर दिया गया है। इसमें कुछ क्षेत्रों के उदाहरण भी दिए गए हैं, जैसे कि शिक्षक, किसान, मिल मजदूर, नर्स, वैज्ञानिक, पायलट।

तस्वीर साभार: Britannica

इन नामों को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारा समाज इनमें से किन क्षेत्रों को पुरुषों का और किनको महिलाओं का मानता है। अब ऐसे कुछ प्लेटफॉर्म्स भी हैं ऐसी महिला वैज्ञानिकों के काम पर रौशनी डालने की कोशिश कर रहे हैं जिन्होंने बहुत अहम खोज करके विज्ञान में अमूल्य योगदान दिया। ऐसी ही एक वेबसाइट है लॉस्ट वीमेन ऑफ़ साइंस इसमें लेखों के रूप में और पोडकास्ट के रूप में आपको कई गुमनाम महिला वैज्ञानिकों और उनके योगदान की जानकारी मिल सकती है। जब हम किसी क्षेत्र में काम करने की सोचते हैं तो अक्सर हम किसी को अपना आदर्श मानते हैं और यह सोचते हैं कि हम उस क्षेत्र विशेष में उस व्यक्ति के जैसी ही तरक्की करेंगे। जैसे कि अगर किसी लड़की का मन है कि वह अन्तरिक्ष यात्री बने तो वह सुनीता विलियम्स और कल्पना चावला जैसी महिलाओं को अपना आदर्श मान सकती है।

ऐसी बहुत-सी महिला वैज्ञानिक रही है जिन्होंने नई-नई खोजों में अभूतपूर्व योगदान दिया, लेकिन उनकी कहानियां अकसर हमारे सामने ही नहीं आ पाती हैं। आप शायद इसे सामान्य-सी बात मानें, लेकिन यह एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है।

लेकिन मटिल्डा प्रभाव की वजह से विज्ञान और प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, गणित जैसे क्षेत्रों में महिलाओं के योगदानों को महत्व न देने की वजह से इस क्षेत्र में जाने की इच्छुक लड़कियों के लिए अपना आदर्श तलाशना मुश्किल काम हो जाता है। इस कारण उन क्षेत्रों में महिलाओं को अपनी मौजूदगी दर्ज करने के लिए वैसे भी संघर्ष करना पड़ता है और उनकी संख्या भी कम है तो ऐसे में आगे भी बहुत कम महिलाएं इन क्षेत्रों में रुचि लेकर आगे बढ़ पाती हैं। यूनेस्को की एक रिपोर्ट भी इस बात को बताती है कि किस तरह से उम्र बढ़ने के साथ लड़कियां विज्ञान और कम्प्यूटर साइंस में रुचि खो देती हैं। इतिहास में महिला वैज्ञानिकों को इस तरह से कमतर करके दिखाने से उनके योगदान का अपमान तो होता ही है साथ ही भविष्य की लड़कियों के मन में भी यह गलत धारणा घर कर जाती है कि विज्ञान तो पुरुषों का क्षेत्र हैं। सच यह है कि विज्ञान और ऐसे ही अन्य कई क्षेत्र पुरुषों के क्षेत्र नहीं हैं। उन्हें पुरुषों के क्षेत्र की तरह दिखाया जाता रहा है। इसलिए हमें ऐसे क्षेत्रों को जेंडर के आधार पर न बांटकर ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।





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