इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ छोटे शहरों में क्वीयर पहचान के कारण डर, चुप्पी और बहिष्कार की हकीकत

छोटे शहरों में क्वीयर पहचान के कारण डर, चुप्पी और बहिष्कार की हकीकत

परिवार और समाज का दबाव इतना गहरा होता है, कि कई बार क्वीयर युवाओं को अपनी पसंद के करियर, कपड़े, दोस्त या यहां तक कि अपना घर छोड़ने पर भी मजबूर होना पड़ता है।

भारत में क्वीयर समुदाय को लेकर बातचीत ज़रूर बढ़ी है, लेकिन यह ज़्यादातर दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु जैसे बड़े शहरों तक ही सीमित रही है। इन शहरों में प्राइड परेड होती हैं, कुछ समावेशी नीतियां हैं और थोड़े-बहुत सुरक्षित स्पेस भी हैं, जहां  क्वीयर समुदाय के व्यक्ति अपनी पहचान के साथ कुछ राहत महसूस कर सकते हैं। अदालतों, परेडों और कंपनियों की नीतियों में अब क्वीयर समुदाय का ज़िक्र दिखने लगा है, लेकिन भारत का एक बड़ा हिस्सा अभी भी इनसे दूर है। छोटे शहरों, कस्बों और गांवो में हालात बिलकुल अलग हैं। वहां  क्वीयर समुदाय के व्यक्ति आज भी चुप्पी, डर और सामाजिक बहिष्कार की ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं।

कई युवा इसलिए अपनी जेंडर या यौनिक पहचान छिपा लेते हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि अगर सच सामने आ गया, तो उन्हें न सिर्फ़ समाज से अलग-थलग कर दिया जाएगा, बल्कि हिंसा, अपमान और तिरस्कार का सामना भी करना पड़ेगा। ग्रामीण और छोटे कस्बों में तो स्वास्थ्य सेवाओं, मानसिक स्वास्थ्य सहायता और सुरक्षित शैक्षणिक वातावरण तक की पहुंच भी बेहद सीमित  होती है। परिवार और समाज का दबाव इतना गहरा होता है कि कई बार क्वीयर युवाओं को अपनी पसंद के करियर, कपड़े, दोस्त या यहां तक कि अपना घर छोड़ने पर भी मजबूर होना पड़ता है। जिन जगहों पर जागरूकता और सपोर्ट सिस्टम की कमी है, वहां उनकी ज़िंदगी हमेशा डर और छुपकर जीने में गुजरती है।

परिवार और समाज का दबाव इतना गहरा होता है कि कई बार क्वीयर युवाओं को अपनी पसंद के करियर, कपड़े, दोस्त या यहां तक कि अपना घर छोड़ने पर भी मजबूर होना पड़ता है।

छोटे शहरों में क्वीयर व्यक्तियों की चुनौतियां 

छोटे शहरों में क्वीयर युवाओं के लिए हालात और मुश्किल हो जाते हैं। वहां पितृसत्ता, धर्म के नाम पर बनाई गई नैतिकताएं, परिवार का दबाव और संस्थाओं की असंवेदनशीलता लगातार उनकी पहचान पर चोट करते हैं। इन सब वजहों से वे खुलकर अपनी ज़िंदगी नहीं जी पाते और हमेशा डर और दबाव में रहते हैं। नेशनल सेक्सुअल वायलेंस रिसोर्स सेंटर (एनएसवीआरसी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग 46 फीसदी  बेघर क्वीयर युवा इसलिए घर छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं क्योंकि उनके परिवार उनकी पहचान को स्वीकार नहीं करते हैं । करीब 43 फीसदी क्वीयर व्यक्तियों को उनके माता-पिता ने ही घर से निकाल दिया, और लगभग 32 फीसदी  को अपने ही घर में शारीरिक, भावनात्मक या यौन हिंसा का सामना करना पड़ा।

तस्वीर साभार : फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

उत्तर प्रदेश के रायबरेली में रहने वाली आईना जो रूबरू संस्था के साथ काम करती हैं, कहती हैं, “छोटे शहर यानी ऐसे शहर जहां बड़ी इमारतें भले न हों, लेकिन हर गली-पक्‍की सड़क पर कोई न कोई पहचानने वाला ज़रूर होता है। ऐसे में अगर आप क्वीयर हैं, तो लोग आपको समझने से कतराते हैं। एक क्वीयर इंसान के लिए यहां जीना मुश्किल इसलिए हो जाता है क्योंकि हर गली में किसी न किसी रिश्तेदार का घर ज़रूर होता है, ऐसे में छुपकर अपनी पसंद का जीवन जीना आसान नहीं होता है। अगर कोई कोशिश करता भी है, तो घरवाले या तो किसी बाबा या डॉक्टर के पास ले जाते हैं, या फिर घर से निकाल देते हैं। इन शहरों में जहां अंग्रेज़ी के दो शब्द भी नए लगते हैं, वहीं अगर कोई लड़का क्रॉप टॉप पहन ले, तो लोग ‘तौबा तौबा’ करने लगते हैं। हमें अपनी असली ज़िंदगी जीने की चाह तो होती है, लेकिन डर लगता है कि कहीं मोहल्ले की चार लोगों की टोली हमें जज न कर बैठे।” 

छोटे शहर यानी ऐसे शहर जहां बड़ी इमारतें भले न हों, लेकिन हर गली-पक्‍की सड़क पर कोई न कोई पहचानने वाला ज़रूर होता है। ऐसे में अगर आप क्वीयर हैं, तो लोग आपको समझने से कतराते हैं। एक क्वीयर इंसान के लिए यहां जीना मुश्किल इसलिए हो जाता है क्योंकि हर गली में किसी न किसी  रिश्तेदार का घर ज़रूर होता है, ऐसे में छुपकर अपनी पसंद का जीवन जीना आसान नहीं होता है।

इसी संदर्भ में उत्तर प्रदेश, बाराबंकी के एक कॉलेज में स्नातक की पढ़ाई करने वाली कबिता बताती हैं, “यहां लेस्बियन शब्द बोल देना भी जैसे किसी अपराध से कम नहीं है। एक बार मैंने अपने एक दोस्त को बताया कि मुझे लड़कियां पसंद हैं और अगले दिन पूरे कॉलेज में लोग मुझे घूरने लगे। मेरे कुछ रिश्तेदारों ने मेरी मां से बात करना बंद कर दिया। मां ने मुझसे कहा कि मैं ऐसे ख्याल भूल जाऊं। अब मैं चुप हूं, लेकिन ये ख्याल कहीं नहीं गए हैं। किसी से प्यार करने का हक सबको है, पर यहां लगता है जैसे ये हक़ बस कुछ सामान्य लोगों के लिए है। मैं हर रोज़ ख़ुद को साबित करने की कोशिश नहीं करती, अब बस ख़ुद को समेटकर जीती हूं।”

स्कूलों में क्वीयर छात्रों के लिए असुरक्षित माहौल

तस्वीर साभार : फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

अगर शिक्षा व्यवस्था की बात करें तो स्कूलों और कॉलेजों में क्वीयर विद्यार्थियों को ताने, मज़ाक और कभी-कभी स्कूल से निकाल देने जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है। न्यूज़क्लिक के मुताबिक, केरल डेवलेपमेंट सोसायटी के दिल्ली और उत्तर प्रदेश में हुए सर्वे पर आधारित अध्ययन में कहा गया है, कि क्वीयर विद्यार्थियों को स्कूल में कई तरह के भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ता है। लगभग 28 फीसदी छात्रों ने कहा कि उन्हें स्कूल स्तर पर हिंसा का सामना करना पड़ा। वहीं, 52 फीसदी छात्रों ने माना कि उनके सहपाठी लगातार उन्हें परेशान करते हैं। सिर्फ सहपाठी ही नहीं, बल्कि 12 फीसदी विद्यार्थियों ने यह भी बताया कि उनके अध्यापक ने उनके साथ भेदभाव किया। इसके अलावा 13 फीसदी छात्रों ने यौन हिंसा झेलने की बात कबूल की। 62 फीसद विद्यार्थियों ने माना कि उनके साथ मौखिक रूप से हिंसा हुई।इस वजह से भी बहुत से क्वीयर व्यक्ति पढ़ाई पूरी नहीं क्र पाते।शिक्षण संस्थानों के कर्मचारी और शिक्षक क्वीयर, ट्रांस व्यक्तियों से जुड़े विषयों  से पूरी तरह अनजान है। यहां तक कि स्कूलों में अभी तक क्वीयर विषयों से संबंधित कोई पाठ्यक्रम या शिक्षक प्रशिक्षण उपलब्ध नहीं है। 

यहां लेस्बियन शब्द बोल देना भी जैसे किसी अपराध से कम नहीं है। एक बार मैंने अपने एक दोस्त को बताया कि मुझे लड़कियां पसंद हैं, और अगले दिन पूरे कॉलेज में लोग मुझे घूरने लगे। मेरे कुछ रिश्तेदारों ने मेरी मां से बात करना बंद कर दिया। मां ने मुझसे कहा कि मैं ऐसे ख्याल भूल जाऊं। अब मैं चुप हूं, लेकिन ये ख्याल कहीं नहीं गए हैं।

रूढ़िवादी सोच और चिकित्सकीय मदद से दूरी

तस्वीर साभार : फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए सुश्रिता

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर, दवाइयों और उपकरणों की भारी कमी होती है। यहां तक कि इन व्यक्तियों के लिए फ्रेंडली हेल्थ क्लीनिक छोटे शहरों में लगभग न के बराबर होते हैं। अगर होते भी हैं तो अधिकांश स्वास्थ्य कर्मियों को क्वीयर समुदाय की विशेष आवश्यकताओं की जानकारी नहीं होती है।स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों के शारीरिक स्वास्थ्य पर ग़हरा प्रभाव पड़ता है। भारत में आम तौर पर यौन या प्रजनन स्वास्थ्य पर बात करना, एक टैबू मन जाता है। डॉक्टर के पास अमूमन लोग तब जाते हैं, जब बात हद से ज्यादा निकल जाती है।

बात क्वीयर समुदाय के यौन और प्रजनन स्वास्थ्य की करें, तो न सिर्फ तरह तरह के रूढ़िवादी विचार काम करता है, बल्कि ये रूढ़िवाद क्वीयर लोगों को चिकित्सकीय मदद से दूर कर देता है। यूएनएड्स की रिपोर्ट के मुताबिक क्वीयर पुरुष में एचआईवी होने का 28 गुना अधिक जोखिम होता है। इससे क्वीयर पुरुषों को न केवल एचआईवी बल्कि मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों और यौन संचारित संक्रमण सहित अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का भी जोखिम बढ़ जाता है।  नेशनल सेक्सुअल वायलेंस रिसोर्स सेंटर के मुताबिक, भेदभाव के तनाव और खतरे के कारण, क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों में अपने जीवन में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का अनुभव होने की संभावना दोगुनी होती है। 10-24 साल  की उम्र  के क्वीयर व्यक्तियों के लिए आत्महत्या मृत्यु का एक प्रमुख कारण है। इनमें आत्महत्या से मौत होने की संभावना पांच गुना से भी ज़्यादा होती है। 

यूएनएड्स की रिपोर्ट के मुताबिक क्वीयर पुरुष में एचआईवी होने का 28 गुना अधिक जोखिम होता है। इससे क्वीयर पुरुषों को न केवल एचआईवी बल्कि मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों और यौन संचारित संक्रमण सहित अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का भी जोखिम बढ़ जाता है।

इंटरनेट क्वीयर युवाओं के लिए राहत और खतरे का दोहरा चेहरा

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

इन सारी सीमाओं के बीच इंटरनेट क्वीयर युवाओं के लिए एक राहत बनकर उभरा है। सोशल मीडिया, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और ऑनलाइन सपोर्ट ग्रुप्स ने उन्हें एक जुड़ाव और स्वीकार्यता का अनुभव दिया है। लेकिन इंटरनेट खुद भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं है।सोशल मीडिया पर भी क्वीर व्यक्तियों को ट्रोल किया जाता है। इंडिया टुडे के मुताबिक,  इंस्टाग्राम पर ऐसे कई अकाउंट हैं, जहां क्वीयर किशोर अपनी पहचान छिपाते हुए, अपनी अभिव्यक्ति के लिए तस्वीरें और वीडियो पोस्ट करते हैं। हालांकि शुरुआत में यह राहत की बात है, लेकिन इसके साथ ट्रोलिंग का ख़तरा भी है, जो कभी-कभी असहनीय हो सकता है। क्वीयर समुदाय के व्यक्ति डेटिंग ऐप में भी ज़्यादा सक्रिय होते है जिस कारण भी उन्हें कई बार समस्याओं से गुजरना पड़ता है।  नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी के साल  2018 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 14 से 17 साल  की उम्र  के किशोरों ने साथी खोजने के लिए ग्रिंडर ऐप का इस्तेमाल किया।

इस तरह वयस्कों के लिए बनाया गया यह ऐप नाबालिग लोगों के लिए बहुत बार ख़तरनाक साबित होता है। इनके साथ यौन शोषण, हिंसा और लूट की घटनाएं आसानी से की जा सकती हैं।  क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में इससे जुडी जानकारी का अभाव होता है। भारत में क्वीयर समुदाय को लेकर बातचीत ज़रूर बढ़ी है, लेकिन यह अभी भी बड़े शहरों तक ही सीमित है। लेकिन छोटे शहरों, कस्बों और गांवों की वास्तविकता बिल्कुल अलग है। वहां क्वीयर युवाओं को न केवल परिवार और समाज के दबाव का सामना करना पड़ता है, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य और मानसिक सहारा जैसी बुनियादी ज़रूरतों तक पहुंच भी बेहद सीमित रहती है।भेदभाव, हिंसा और सामाजिक बहिष्कार के कारण कई क्वीयर लोग अपनी पहचान छिपाकर जीने को मजबूर हैं। स्कूलों और कॉलेजों में असुरक्षित माहौल, स्वास्थ्य सेवाओं में संवेदनशीलता की कमी और समाज की रूढ़िवादी सोच उनके जीवन को और कठिन बना देती है।

इंटरनेट और सोशल मीडिया ने क्वीयर युवाओं को कुछ हद तक राहत और सपोर्ट देने का काम किया है, लेकिन वहीं यह स्थान उनके लिए नए ख़तरों और ट्रोलिंग का अड्डा भी बन चुका है। इन परिस्थितियों में सबसे अहम सवाल यह है, कि क्या भारत में क्वीयर समुदाय की स्वीकार्यता सिर्फ़ महानगरों और सोशल मीडिया तक सीमित रह जाएगी, या फिर गांव-कस्बों के उन युवाओं तक भी पहुंचेगी, जिनकी ज़िंदगी आज भी चुप्पी और डर में घिरी हुई है। असली बदलाव तभी होगा, जब नीतियां, संस्थाएं और समाज मिलकर छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में भी सुरक्षित, समावेशी और समझदार वातावरण बनाने की ज़िम्मेदारी उठाएंगे। तभी क्वीयर समुदाय अपने अस्तित्व और पहचान के साथ बिना डर और शर्म के खुलकर जी पाएगा।

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