सार्वजनिक जगहें या पब्लिक प्लेसेस ऐसी जगहों को कहा जाता है जो सबके लिए होती हैं, जिन तक सभी की बराबर पहुंच होती है। सार्वजनिक जगहों में सड़क, रेस्टोरेंट, सार्वजनिक परिवहन वगैरह को शामिल किया जा सकता है। काफी लंबे समय तक सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की आवाजाही सीमित रही। लेकिन, फिर वक्त ने करवट बदली और अब पहले की तुलना में सार्वजनिक जगहों, ट्रेनों, बसों में महिलाओं की मौजूदगी बेहतर हुई है। आदर्श स्थिति में तो सभी का इन पर बराबर का अधिकार और सभी की इन तक बराबर पहुंच होनी चाहिए। लेकिन, क्या सार्वजनिक जगहें महिलाओं के लिए सुरक्षित हैं? शायद नहीं। मैं देश के अलग-अलग हिस्सों में काम कर चुकी हूं और कभी-कभी मुझे ऐसा लगा कि एक अकेली महिला होने के नाते लोगों ने सार्वजनिक जगहों पर मेरे साथ अलग तरह का व्यवहार किया। एक तरह से ज़बरन मेरे स्पेस में दखल भी दिया। मैं मानती हूं कि कभी-कभी इस तरह के हस्तक्षेप का उद्देश्य मदद करने की मंशा भी हो सकती है। लेकिन, अगर किसी को मदद नहीं चाहिए तो क्या मदद के इरादे से हस्तक्षेप उचित माना जा सकता है? सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के साथ यौन शोषण भी काफी आम बात है।
सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की ज़िंदगी में हस्तक्षेप
बात साल 2015 की है। उस समय मैं छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा ज़िले में काम कर रही थी। एक दिन रविवार के दिन मैं यूं ही अकेले टहलने निकल गई। वहां आस-पास कोई पार्क नहीं था तो आमतौर पर मैं और मेरे साथी सड़कों पर ही टहला करते थे। मैं यूं ही सड़क पर अकेले टहलने लगी। मैं जिस सड़क पर टहल रही थी वहां लोगों की आवाजाही कम रहती थी, केवल इक्के-दुक्के वाहन ही बीच-बीच में आ-जा रहे थे। इसलिए, मैं इस बात को लेकर बेफिक्र थी कि मेरे टहलने से वाहनों को आवाजाही में दिक्कत होगी। वहीं पास में एक छोटे से ठेले पर एक आदमी कुछ बेच रहा था। अचानक एक और आदमी जो कुछ देर पहले उसी ठेले से कुछ खरीदकर खा रहा था मेरे नज़दीक आया और बोला, “मैडम आप कुछ परेशान लग रही हैं। जो भी परेशानी हो ठेले वाले भैया को बताइए, वो आपकी समस्या हल कर देंगे। मैंने उससे कहा कि नहीं मैं बिलकुल ठीक हूं।
मैं इस बात को लेकर बेफिक्र थी कि मेरे टहलने से वाहनों को आवाजाही में दिक्कत होगी। वहीं पास में एक छोटे से ठेले पर एक आदमी कुछ बेच रहा था। अचानक एक और आदमी जो कुछ देर पहले उसी ठेले से कुछ खरीदकर खा रहा था मेरे नज़दीक आया और बोला, “मैडम आप कुछ परेशान लग रही हैं।
लेकिन, उसके इस तरह बिना वजह मेरे टहलने में खलल डालने से मैं बहुत असहज हो गई और वहां से वापस अपने ऑफिस (जो मेरे रहने का स्थान भी था) आ गई। मैंने यह बात अपने सहकर्मी को बताई तो वह चौंककर बोला, “इसीलिए लोग बड़े शहरों में रहना पसंद करते हैं। छोटे शहरों में लोग बेवजह आपकी ज़िंदगी में दखलअंदाज़ी करते हैं।” इस घटना ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि सड़क तो सबकी होती है। हालांकि सड़क पर टहलने की तुलना में पार्क में टहलना समाज में ज़्यादा स्वीकार्य माना जाता है, लेकिन किसी को यह अधिकार नहीं कि वह मेरे निजी क्षेत्र में हस्तक्षेप करते हुए मुझसे इस तरह के सवाल-जवाब करे।
दिल्ली के पॉश इलाके से जुड़ी असहज करने वाली घटना

दूसरी घटना दिल्ली के एक पॉश इलाके की है। मैं किसी दोस्त के घर पर रुकी थी और उस दिन किसी और दोस्त से मिलने गई थी। लौटते वक्त मैंने एक ओला बाइक बुक की। लेकिन, बाइक वाले ने मुझे मेरी लोकेशन से तीन किलोमीटर पहले की लोकेशन पर ड्राप कर दिया। जिस कॉलोनी में उसने मुझे ड्राप किया मैं उस कॉलोनी में पैदल चलते हुए अपनी कॉलोनी तक जाने का रास्ता तलाशने लगी। मुझे जिस कॉलोनी में जाना था वहां तक जाने का शॉर्टकट रास्ता इस कॉलोनी के एक गेट से होकर ही जाता था, लेकिन किन्हीं कारण वह गेट बंद था। मैं कॉलोनी की सड़क पर चलते हुए अपनी कॉलनी तक जाने का रास्ता तलाशने लगी। रास्ते में एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने, जो अपने घर के गेट पर खड़ा था, मुझसे पूछा कि मुझे कहां जाना है। मैंने उसे बताया कि मुझे कहां जाना है। बातों-बातों में मैंने उसे यह भी बता दिया कि मैं किसी फ्रेंड के घर पर रुकी हूं और अभी किसी फ्रेंड से मिलकर आ रही हूं। मेरे हिसाब से यह बहुत साधारण-सी बात थी, लेकिन बाद में मुझे अहसास हुआ कि शायद मैंने उसके सवालों का कुछ ज़्यादा ही ईमानदारी से जवाब दे दिया।
मेरे बातों के बाद उसने मस्ती भरे अंदाज़ में कहा, “बहुत फ्रेंड्स पटा रखे हैं आपने। वैसे मैं भी बैचलर हूं और ये मेरी कोठी है।” आगे उसने यह भी कहा कि उसके पास स्कूटी है और अगर मैं चाहूं तो वो मुझे मेरी लोकेशन पर ड्रॉप कर देगा। उसकी घटिया बातें सुनने के बाद उससे किसी प्रकार की कोई मदद लेने का तो सवाल ही नहीं उठता था। सो मैंने उसे साफ़ इंकार किया और थोड़ा आगे जाकर वहां खड़ी हो गई, जहां उस कॉलोनी का गार्ड बैठा हुआ था। मैं अंदर ही अंदर काफी असहज महसूस कर रही थी और सोच रही थी कि जल्द से जल्द अपनी लोकेशन पर पहुंच जाऊं। मैंने दूसरी कैब बुक की। दूसरी कैब आने में करीब पन्द्रह से बीस मिनट का समय लगा और मैं घर वापस आ गई। सार्वजनिक जगहों पर महिलाएं खुद को कितना सुरक्षित और सहज महसूस करती हैं यह समझने के लिए फेमिनिज़म ऑफ़ इंडिया ने कुछ महिलाओं से बात की।
“मेरी रात दो बजे की ट्रेन थी। सीट पर एक आदमी सोया था। मैंने उसे बार-बार उठाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं उठा। आसपास के लोग बस कहते रहे, ‘दारू पिया होगा,’ पर किसी ने मदद नहीं की।”
पुणे की डॉक्टर एश्वर्या पेशे से गायनेकोलॉजिस्ट हैं। रनिंग उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। वे बताती हैं, “जब मैं पुणे में थी तो रोज़ रनिंग करती थी और वहां सभी लोग रनिंग या मॉर्निंग वॉक करते थे तो वहां मुझे कभी ऐसी परेशानी नहीं होती थी। कुछ महीनों से मैं अपने घर पर रह रही हूं, जो कि एक छोटा-सा गाँव है। यह जगह काफी पितृसत्तात्मक जगह है। यहां मैं केवल मॉर्निंग वॉक ही करती हूं तो लोग घूरने लगते हैं। यहां लोगों की घूरती नज़रों से बचने के लिए मुझे अपने कपड़ों पर भी बहुत ध्यान देना पड़ता है। ऐसे में यहां आने के बाद से मेरी रनिंग बंद ही हो गई है।” आगे उन्होंने कहा कि उन्हें लगता है बड़े शहरों में फिर भी महिलाओं को थोड़ा स्पेस मिल जाता है। छोटे-छोटे गाँवों में तो बिलकुल नहीं मिलता।
ट्रेन का सफ़र और महिलाओं की सुरक्षा
जैसे-जैसे महिलाएं शिक्षित हुईं अलग-अलग उद्देश्यों से ट्रेनों और बसों में अकेले यात्रा करने वाली महिलाओं की संख्या भी बढ़ी है। बहुत-सी महिलाएं कभी काम से तो कभी शौकिया तौर पर यात्राएं करती हैं। भारतीय रेलवे के इस दावे के बावजूद कि अब महिलाएं ट्रेनों में पहले से ज़्यादा सुरक्षित हैं, क्या ट्रेनों में महिलाएं सच में सुरक्षित महसूस कर पाती हैं? ट्रेनों में किसी महिला के साथ बलात्कार तक होने की संभावना रहती है। ट्रेनों के साथ-साथ बसों के भी यही हाल हैं, उनमें भी महिलाएं असुरक्षा का सामना करती हैं। 2021 में ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन ने मेट्रोपॉलिटन क्षेत्रों में एक सर्वे किया। सर्वे के नतीजों में पता चला कि सार्वजनिक परिवहन के साधनों का इस्तेमाल करने वाली 56 प्रतिशत महिलाओं ने कभी न कभी यौन उत्पीड़न का सामना किया। इसके अलावा, 2021 में प्रकाशित वर्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक अलग-अलग शहरों के साक्ष्य बताते हैं कि सार्वजनिक परिवहन में महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न की घटनाएं बहुत होती हैं, लेकिन इनकी रिपोर्टिंग कम है।

महाराष्ट्र के सोलापुर की रहने वाली ज्योति पटाले ट्रेन के सफर का अपना एक अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, “एक बार मैं पुणे से रायपुर जा रही थी। मैं अपनी अपर बर्थ पर रात में सो गई। सुबह जब सोकर उठी तो देखा कि साइड लोअर बर्थ पर मेरे पापा की उम्र के एक अंकल बैठे थे। मैंने ध्यान दिया कि वो लगातार मुझे घूर रहे हैं और हँस रहे हैं। उस समय बाकी सभी पैसेंजर्स सो रहे थे। मैं फ्रेश होकर वापस आई और अपनी बर्थ के नीचे ही खड़ी हो गई। उन्होंने मुझे खड़ी देखकर मुझसे कहा, “इतनी जगह तो है बैठ जाओ।” ज्योति ने आगे बताया कि इसके बाद उस व्यक्ति ने उनसे ज़बरदस्ती बातें करना शुरू कर दिया और यह जानकारी हासिल कर ली कि वो कहां जा रही हैं। साथ ही यह भी कहा कि वह भी उधर ही जाएगा।
ट्रेन रुकने के बाद वह उनके बराबर-बराबर चलने लगा। फिर बोला, “क्यों न हम दोनों बस से साथ-साथ चलें? डबल स्लीपर वाली बस ले लेंगे और सोते-सोते जाएंगे।” यह सुनते ही उन्होंने उस व्यक्ति को ज़ोर से डाँटा और कहा कि कुछ तो अपनी उम्र का लिहाज़ करो।
उसकी असहज करने वाली हरकतें और सवाल पूरे सफ़र के दौरान जारी रहे। ट्रेन रुकने पर उतरते समय भी उसने उनके ठीक पीछे सटकर खड़े होने की कोशिश की। इस पर ज्योति ने उसे दूर खड़े होने को कहा। ट्रेन रुकने के बाद वह उनके बराबर-बराबर चलने लगा। फिर बोला, “क्यों न हम दोनों बस से साथ-साथ चलें? डबल स्लीपर वाली बस ले लेंगे और सोते-सोते जाएंगे।” यह सुनते ही उन्होंने उस व्यक्ति को ज़ोर से डाँटा और कहा कि कुछ तो अपनी उम्र का लिहाज़ करो। तब आस-पास थोड़ी भीड़ जमा हो गई और लोगों ने कहा कि जाने दो। फिर वे आगे बढ़ गईं।

ज्योति ने कहा कि वे अक्सर ट्रेन में सफ़र करती हैं और ऐसे में कई बार लोग बोलते तो कुछ नहीं, लेकिन जैसे वो आपको देखते हैं वह काफी असहज करने वाला होता है। ज्योति ने एक अनुभव साझा किया—“मेरी रात दो बजे की ट्रेन थी। सीट पर एक आदमी सोया था। मैंने उसे बार-बार उठाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं उठा। आसपास के लोग बस कहते रहे, ‘दारू पिया होगा,’ पर किसी ने मदद नहीं की।” ज्योति ने आगे बताया कि फिर दो घंटे बाद उन्होंने रेलवे पुलिस फ़ोर्स में शिकायत दर्ज़ की। पुलिस के आने के बाद लगभग सभी लोग उठ गए और फिर उनसे पूछने लगे कि मैडम आपने यह कैसे किया। लेकिन, जब वह अकेले उस व्यक्ति को उठाने की कोशिश कर रही थीं तब कोई भी उनकी मदद को आगे नहीं आया।
अकेली होने का मतलब इनविटेशन नहीं है
इन सभी परिस्थितियों को असहज बनाने वाली बात इनमें शामिल पुरुषों का व्यवहार और यह कड़वी सच्चाई है कि अगर आप एक महिला हैं, अकेले टहल रही हैं या सफ़र कर रही हैं तो आप लोगों की नज़रों में आ जाती हैं। कभी इसे एक तरह का आमंत्रण मान लिया जाता है, कभी आप सवालों के घेरे में आ जाती हैं तो कभी ज़रूरत से ज़्यादा परवाह दिखाकर लोग आपको असहज कर देते हैं। गौरतलब है कि मैंने जब-जब सार्वजनिक जगहों पर असहज महसूस किया ऐसे लगभग सभी मामलों में पुरुषों ने ही मुझे असहज महसूस करवाया। एक समाज के तौर पर हमने उन्हें किसी महिला की ज़िंदगी में अनावश्यक और ज़रूरत से ज़्यादा हस्तक्षेप की आज़ादी दे दी है। कभी बोलकर, कभी छूकर तो कभी देखकर वे कभी दिन की रौशनी में तो कभी रात के अंधेरे में आपको असहज कर देते हैं। अक्सर ये जगहें किसी अकेली महिला के साथ दुर्व्यवहार की वजह बन जाती हैं। दुर्व्यवहार केवल शारीरिक दुर्व्यवहार ही नहीं होता। किसी व्यक्ति का कोई भी ऐसा व्यवहार, जिसकी वजह से कोई महिला असहज या असुरक्षित महसूस करे, एक तरह का दुर्व्यवहार है।

