भारतीय इतिहास में एक दौर ऐसा भी रहा है जब महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा जाता था। खासकर विधवाओं के लिए पढ़ाई को प्रोत्साहित नहीं किया जाता था। समाज में यह धारणा गहरी थी कि शिक्षा केवल पुरुषों के लिए है, जबकि महिलाओं का स्थान घर और परिवार तक ही सीमित है। विधवा महिलाओं को पढ़ने-लिखने के लिए मान्यता बिल्कुल नहीं दी जाती थी। इस सोच ने कई महिलाओं को ज्ञान और आत्मनिर्भरता से वंचित रखा। ऐसे में जब एक लड़की मैट्रिक में अव्वल दर्जा हासिल करे और बेथ्यून कॉलेज से गणित में ऑनर्स की डिग्री प्राप्त करे, तो यह कोई साधारण कहानी नहीं होती। यह कहानी है अशोका गुप्ता की।
ऐसी महिला, जिन्होंने केवल किताबी ज्ञान ही नहीं अर्जित किया, बल्कि जीवन को भी एक किताब की तरह जिया। उनकी जिंदगी का हर पन्ना सेवा, संघर्ष और करुणा से भरा हुआ था। अपनी आत्मकथा ‘सेवा पथ पर: एक बदलते युग की स्मृतियां’ में वे लिखती हैं, “ये दशक नए आरंभों और नई सीख के थे… व्यक्तिगत जीवन को बनाने वाली लगातार विस्तारित रिश्तों की धारा के बीच।” यह वाक्य सिर्फ उनकी जिंदगी का सार नहीं है, बल्कि उस दौर की सामाजिक हलचलों और बदलावों को भी दिखाता है, जब रिश्ते केवल परिवार तक सीमित नहीं थे, बल्कि पूरे समाज को जोड़ने वाले पुल बन जाते थे।
उन्होंने सेंट मार्गरेट स्कूल से मैट्रिक पास करने के बाद बेथ्यून कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। यह उपलब्धि उस दौर में लगभग असंभव मानी जाती थी। लेकिन उनकी सोच के सामने असंभव कुछ भी नहीं था।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
अशोका गुप्ता का जन्म नवंबर साल 1912 में बंगाल में हुआ। वह अपने माता-पिता की दूसरी और छह भाई-बहनों में चौथी संतान थीं। जब वह केवल छह साल की थीं, तभी उनके पिता किरणचंद्र सेन का निधन हो गया। मां ज्योतिर्मयी देवी ने छह बच्चों की परवरिश के लिए कड़ा संघर्ष किया। यह उस समय की विधवाओं की आम स्थिति थी, लेकिन अशोका के लिए यह संघर्ष प्रेरणा बन गया। उन्होंने सेंट मार्गरेट स्कूल से मैट्रिक पास करने के बाद बेथ्यून कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। यह उपलब्धि उस दौर में लगभग असंभव मानी जाती थी। लेकिन उनकी सोच के सामने असंभव कुछ भी नहीं था। शिक्षा उनके लिए केवल डिग्री नहीं थी, बल्कि सामाजिक बंधनों को तोड़ने का एक मजबूत हथियार थी। बीस साल की उम्र में उनका विवाह आईसीएस अधिकारी शैबल कुमार गुप्ता से हुआ। उन्होंने अशोका की सामाजिक महत्वाकांक्षाओं को पंख दिए। यह विवाह उनके लिए कैद नहीं, बल्कि उनकी सेवा यात्रा की शुरुआत साबित हुआ।
साल 1936 में उन्होंने अखिल भारतीय महिला सम्मेलन में हिस्सा लिया और यहीं से उनके सामाजिक कार्य की लंबी यात्रा शुरू हुई। वे लगातार ऐसे प्रयासों में शामिल रहीं, जिनका उद्देश्य सामाजिक मुद्दों के लिए संसाधन, सहयोगी लोग और धन जुटाना था। साल 1943 में जब बंगाल में विनाशकारी अकाल पड़ा, तब उन्होंने राहत कार्य में सक्रिय भूमिका निभाई। वे लोगों की मदद के लिए वितरण केंद्रों के प्रबंधन और यह सुनिश्चित करने में लगी रहीं कि भोजन और ज़रूरी सामान सचमुच ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचे। यह उनकी सामाजिक सेवा के प्रति गहरी प्रतिबद्धता और निर्णायक कदम था।
साल 1936 में उन्होंने अखिल भारतीय महिला सम्मेलन में हिस्सा लिया और यहीं से उनके सामाजिक कार्य की लंबी यात्रा शुरू हुई। वे लगातार ऐसे प्रयासों में शामिल रहीं, जिनका उद्देश्य सामाजिक मुद्दों के लिए संसाधन, सहयोगी लोग और धन जुटाना था।
नोआखाली दंगों के बाद उनकी भूमिका
नोआखाली दंगा साल 1946 में बंगाल (अब बांग्लादेश) के नोआखाली ज़िले में हुआ था। यह दंगा धार्मिक आधार पर फैली हिंसा का हिस्सा था, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े। इसमें विशेषकर हिंदू समुदाय को हिंसा, लूटपाट और जबरन धर्मांतरण का सामना करना पड़ा। कई महिलाओं को यौन हिंसा का सामना करना पड़ा और हजारों परिवार विस्थापित हो गए थे। महात्मा गांधी इस हिंसा से गहराई से प्रभावित हुए और शांति बहाल करने के लिए नोआखाली पहुंचे। उन्होंने गांव-गांव जाकर लोगों से संवाद किया और अहिंसा और भाईचारे का संदेश दिया। नोआखाली दंगा भारत के विभाजन से पहले की उन भयावह घटनाओं में से एक है, जिसने समाज में गहरी चोट की और सांप्रदायिक तनाव को और बढ़ा दिया। दंगों के बाद, अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (एआईडब्ल्यूसी) की सदस्य अशोका ने ग्रामीणों को राहत सामग्री बांटी। बाद में जब गांधीजी ने अशोका जैसी कार्यकर्ताओं को नोआखाली के गांवों में शिविर लगाने का सुझाव दिया। गांधीजी की सलाह मानकर, उन्होंने अपनी छोटी बेटी के साथ गांवों में शिविर लगाया।
दंगों के दौरान महिलाओं के खिलाफ़ हुई व्यापक हिंसा ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया। इसके बाद उन्होंने इन मुद्दों पर काम करने के लिए खुद को समर्पित कर दिया। उन्होंने खासतौर पर यौन हिंसा का सामना कर चुकी महिलाओं की स्थिति को सामने लाने और उनकी मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नोआखाली में राहत कार्य करते हुए गुप्ता ने महिलाओं के साथ हुए हिंसा और उत्पीड़न की गहरी पीड़ा देखी। गांधीवादी सोच से प्रेरित उनका काम पूरी तरह जमीनी था। उन्होंने समुदाय के बीच रहकर महिलाओं की समस्याओं को समझा और उनकी आवाज़ को सामने लाने की कोशिश की। लेकिन समाज और प्रशासन की उदासीनता ने उन्हें निराश किया। फिर भी, उन्होंने महिलाओं के खिलाफ हिंसा को सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनाया और इसे एक व्यापक मुद्दा बताया।
उन्होंने समुदाय के बीच रहकर महिलाओं की समस्याओं को समझा और उनकी आवाज़ को सामने लाने की कोशिश की। लेकिन समाज और प्रशासन की उदासीनता ने उन्हें निराश किया। फिर भी, उन्होंने महिलाओं के खिलाफ हिंसा को सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनाया और इसे एक व्यापक मुद्दा बताया।
स्वतंत्र भारत में उनका काम
स्वतंत्र भारत में अशोका का काम नई ऊंचाइयों तक पहुंचा। विभाजन के बाद वह कोलकाता लौटीं और शरणार्थी पुनर्वास, बाल साक्षरता, ग्रामीण महिलाओं और आदिवासी समुदायों के उत्थान के लिए सक्रिय रहीं। उन्होंने महिला सेवा समिति की स्थापना की और भारतीय प्रायोजन और गोद लेने वाली सोसाइटी की अध्यक्ष बनीं। साल 1955 से 1959 तक वह पश्चिम बंगाल राज्य सामाजिक कल्याण सलाहकार बोर्ड की अध्यक्ष रहीं। साल 1959 में डॉ. विधानचंद्र रॉय और दुर्गाबाई देशमुख के सुझाव पर उन्हें केंद्रीय सामाजिक कल्याण बोर्ड की सदस्य नियुक्त किया गया। साल 1964 में उन्होंने दंडकारण्य में पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के शिविरों में राहत कार्य किया। साल 1956 से 1974 तक भारतीय स्काउट्स और गाइड्स में स्टेट कमिश्नर से लेकर चीफ कमिश्नर तक महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं। 1956 में वह विश्वभारती के पल्ली संगठन विभाग से जुड़ीं और 1965 से 1973 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय की सीनेट फेलो रहीं।
अशोका गुप्ता को साल 2007 में, महिलाओं और बच्चों के लिए काम के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए मानद डी.लिट. की उपाधि से सम्मानित किया गया। उन्हें उसी साल जमनालाल बजाज पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उनकी किताबें ‘नोआखाली दुर्जोगेर दिन’ और ‘सेवा पथ पर’ केवल व्यक्तिगत स्मृतियां नहीं हैं, बल्कि एक पूरे दौर की गवाही भी देती हैं। सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उनका जीवन मानवता की सार्वभौमिक भावना का उदाहरण है, जो जाति, वर्ग और सीमाओं से परे जाकर लोगों को जोड़ता है। विशेष रूप से महिला अधिकारों के लिए उनके प्रयास उस समय बेहद महत्वपूर्ण रहे। उन्होंने यौन हिंसा का सामना कर चुकी महिलाओं के लिए आवाज़ उठाई और एक नई बहस शुरू की, जिसने आने वाली पीढ़ियों को गहराई से प्रभावित किया। अशोका गुप्ता का काम सेवा और समर्पण का ऐसा प्रतीक है, जिसमें विराम नहीं था। उनका पूरा जीवन समाज और जनता के लिए समर्पित रहा।

