आज के दौर में फ़ेमिनिज़म को अक्सर गलत समझा जाता है। कई लोग इसे पुरुष-विरोधी आंदोलन मानते हैं, जबकि वास्तव में यह लैंगिक समानता, सम्मान और सशक्तिकरण की बात करता है। फ़ेमिनिज़म का मतलब पुरुषों का विरोध करना नहीं है। इसका मुख्य उद्देश्य हर उस इंसान के लिए बराबरी का होना है जो समाज में हाशिए पर रह रहा है, चाहे उसकी सामाजिक, शारीरिक, आर्थिक और लैंगिक पहचान कुछ भी हो। क्योंकि हर एक व्यक्ति समान अधिकार और अवसरों का हकदार है। इसलिए अपने आस-पास चाहे घर हो, कार्यस्थल, स्कूल या समाज, एक सकारात्मक और सशक्त वातावरण बनाने के लिए फेमिनिज्म को अपनाना ज़रूरी है।
शिक्षा में असमानता और फ़ेमिनिज़म
मेरा जन्म बिहार में हुआ और जब मैं 2 से 3 साल का था तो मैं अपने परिवार के साथ दिल्ली आ गया। मेरा पालन – पोषण और ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई दिल्ली में ही हुई है। जब मैं 11वीं कक्षा में था तो मेरे ट्यूशन में एक लड़की पढ़ा करती थी। वो बिहार की रहने वाली थी और बिहार बोर्ड से दसवीं की परीक्षा पास करके दिल्ली पढ़ने आई थी। एक दिन जब मैंने उससे पूछा कि तुम पढ़ने के लिए बिहार से दिल्ली ही क्यों आई हो? लोग तो पटना या अपने ज़िले के अच्छे विद्यालय में ही जाते हैं। मेरे इस प्रश्न पर उसने बताया कि वो अगर उधर ही पढ़ती तो उसके रिश्तेदार और परिजन उसे पढ़ने नहीं देते क्योंकि अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में देखा जाता है कि लड़की को दसवीं तक पढ़ाकर समझा जाता है कि बहुत पढ़ा लिया और शादी कि बात होने लगती है।
उस समय मैं फेमिनिज्म के बारे में कुछ जनता नहीं था, लेकिन मेरे दिमाग़ में ये बात घर कर गई कि आखिर समाज लड़का और लड़कियों के प्रति क्यों ये दोहरा चरित्र अपनाता है ? जो लड़के पढ़ना नहीं चाहते परिवार उनको ज़बरदस्ती पढ़ाना चाहता है। उन पर पानी की तरह पैसे बहाने को तैयार रहता है और वहीं अगर कोई लड़की पढ़ना चाहती है तो उसे शिक्षा से वंचित करता है।
उसके लिए दिल्ली आकर पढ़ाई करना इतना आसान नहीं था क्योंकि उसके घर का कोई भी उसके पक्ष में नहीं था कि वो आगे की पढ़ाई के लिए यहां आए। इसके बाद उसने लगभग एक हफ्ते तक खाना छोड़ दिया और अपनी बात मनवाने पर अड़ी रही। उसके लिए ये सफ़र आसान नहीं था इसके बावजूद उसने अपने हक़ के लिए संघर्ष का रास्ता चुना और पढ़ने के लिए दिल्ली आई। उस समय मैं फेमिनिज्म के बारे में कुछ जनता नहीं था, लेकिन मेरे दिमाग़ में ये बात घर कर गई कि आखिर समाज लड़का और लड़कियों के प्रति क्यों ये दोहरा चरित्र अपनाता है ? जो लड़के पढ़ना नहीं चाहते परिवार उनको ज़बरदस्ती पढ़ाना चाहता है। उन पर पानी की तरह पैसे बहाने को तैयार रहता है और वहीं अगर कोई लड़की पढ़ना चाहती है तो उसे शिक्षा से वंचित करता है। उस समय मैं उच्च शिक्षा के बारे में भी कुछ नहीं जानता था बस इतना पता था कि सबसे आखरी और बड़ी पढ़ाई पीएचडी होती है। मैंने उससे कहा था कि तुम खूब पढ़ना और आगे पीएचडी करना। मुझे नहीं पता कि वो अभी कहां है, क्या कर रही है लेकिन मुझे ये लगता है कि मेरी ये बात उसे आज भी याद होगी और इसके लिए वो संघर्ष ज़रूर कर रही होगी।
किताबें और फ़ेमिनिज़म
बारहवीं कक्षा के दौरान मुझे फेसबुक के माध्यम से किताबों की दुनिया के बारे में पता चला। मैं एक समूह से जुड़ा जहां किताबों की समीक्षा लिखी जाती और नई-नई किताबों के बारे में बताया जाता वहां से किताबों को पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ और धीरे -धीरे अपनी एक छोटी लाइब्रेरी बन गई। मेरे जीवन में फ़ेमिनिज़म को समझने का सिलसिला तब शुरू हुआ जब मैंने लेखिका ‘अंकिता जैन’ की किताब ‘ऐसी वैसी औरत’ को पढ़ा। इस किताब को मैंने इसके कवर पेज पर लिखे दैनिक भास्कर की टिप्पणी ‘ऐसी वैसी औरतों पर लिखी गई यह किताब मर्दों को ज़रूर पढ़नी चाहिए’ को देखकर मंगवाई। यह किताब दस कहानियों का संग्रह है। यह हमें ऐसी दस महिलाओं की ज़िन्दगी से रूबरू करवाती है, जिनके जीवन के एक पहलू को देखकर ये पितृसत्तात्मक समाज उनके चरित्र का प्रमाण पत्र जारी कर देता है। इस किताब की कहानी में एक किरदार मालिन भौजी है। वह एक ऐसी महिला है जिसे समाज की कोई परवाह नहीं और वह किसी से बिना डरे मस्त होकर अपना जीवन जीती है और एक अकेली विधवा महिला होने के बावजूद अपने लिए कानूनी लड़ाई लड़ती है और ससुराल से अपना हिस्सा लेकर अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी जीती है।
मेरे जीवन में फ़ेमिनिज़म को समझने का सिलसिला तब शुरू हुआ जब मैंने लेखिका ‘अंकिता जैन’ की किताब ‘ऐसी वैसी औरत’ को पढ़ा। इस किताब को मैंने इसके कवर पेज पर लिखे दैनिक भास्कर की टिप्पणी ‘ऐसी वैसी औरतों पर लिखी गई यह किताब मर्दों को ज़रूर पढ़नी चाहिए’ को देखकर मंगवाई।
इस कहानी को पढ़ने के बाद ये समझ आया कि जहां सभ्यता की शुरुआत से ही पुरुषों ने महिलाओं से बस लिया ही है और बदले में केवल उसका शोषण किया, सामाजिक हिस्सेदारी में उसे बहिष्कृत और तिरस्कृत करके उसकी अवहेलना की।इस किताब की सभी कहानियां समाज की उन महिलाओं की हैं जिनको लेकर पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले नाक-भौंह सिकोड़ते हैं। उन्हें बुरी, गन्दी, चरित्रहीन आदि न जाने कितनी उपमाओं से अलंकृत करते हैं। जिस देश में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ यानी जिस स्थान पर महिलाओं की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं, इस तरह की बातें ज्यादा सुनने को मिलती हैं। वहीं उस देश में महिलाओं का शोषण सबसे अधिक होता है। इस किताब को पढ़ने के बाद मुझे कहीं न कहीं समाज को समझने का नारीवादी नज़रिया मिला।
नारीवादी समझ का बढ़ना
जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई मैंने समाज और देश में जाति, धर्म, वर्ग और जेंडर के आधार पर होने वाले भेदभाव को देखा और इसे समझने की कोशिश करने लगा। ग्रेजुएशन के दौरान मैं अपने कुछ सीनियर्स से मिला जिन्होंने फ़ेमिनिज़म इन इंडिया में इंटर्नशिप की थी और कुछ कर रहे थे। उन लोगों से मिलने के बाद मैंने ‘फेमिनिज़म’ शब्द को और गहराई से समझना शुरू किया। मैंने पितृसत्ता, नारीवाद, जाति-भेदभाव, जेंडर भेदभाव, वर्ग, धर्म और राजनीति के आपसी संबंधों को गहराई से समझने की कोशिश की और ये जाना कि नारीवादी समाज एक ऐसे समाज का निर्माण चाहता है जहां लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो।
ग्रेजुएशन के दौरान मैं अपने कुछ सीनियर्स से मिला जिन्होंने फ़ेमिनिज़म इन इंडिया में इंटर्नशिप की थी और कुछ कर रहे थे। उन लोगों से मिलने के बाद मैंने ‘फेमिनिज़म’ शब्द को और गहराई से समझना शुरू किया।
यहां महिला और पुरुष दोनों को समान अवसर, अधिकार और सम्मान मिले। इतिहास में महिलाओं को घर की चारदीवारी तक सीमित रखा गया, जबकि पुरुषों को सार्वजनिक जीवन पर अधिकार दिया गया। आज भी दुनिया के कई हिस्सों में बाल विवाह, दहेज हत्या, कार्यस्थल पर यौन हिंसा और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी जैसी समस्याएं व्याप्त हैं। इंडियन एक्सप्रेस में छपी भारत में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के साल 2022 के आंकड़ों के अनुसार, महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 4 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक देश में 31,982 महिलाओं के साथ कथित तौर पर यौन हिंसा हुई। इनमें 18 साल से ऊपर की 30,965 महिलाएं और 1,017 नाबालिग लड़कियां शामिल थीं। यानी भारत में रोज़ाना औसतन 87 महिलाओं के साथ यौन हिंसा हुई। विश्व आर्थिक मंच की 2023 की लैंगिक असमानता रिपोर्ट में भारत 146 देशों में 127वें स्थान पर है। इससे यह साफ तौर पर देखा जा सकता है भारत में लैंगिक असमानता किस हद तक महिलाओं पर हावी है। नारीवादी समाज का निर्माण केवल कानूनी सुधारों से नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवर्तनों से संभव है जिसे हम सबको मिलकर करना होगा। फ़ेमिनिज़म एक विचार नहीं बल्कि जीने का एक तरीका है जो सिखाता है कि बराबरी हर एक इंसान का अधिकार है ।

