नारीवाद मेरा फेमिनिस्ट जॉय: संस्कारों के बोझ से निकलकर खुद को पहचानना ही मेरी खुशी है

मेरा फेमिनिस्ट जॉय: संस्कारों के बोझ से निकलकर खुद को पहचानना ही मेरी खुशी है

मैं एक ग्रामीण पृष्ठभूमि की लड़की हूं। मैंने हमेशा महिलाओं को घर और जंगल में काम करते देखा है, जबकि पुरुष घर के फैसले लेते हैं। उनके कहे को ही अंतिम निर्णय माना जाता है। वहां सही या गलत पर कोई चर्चा नहीं होती।

देश में अक्सर संस्कारों का बोझ बेटियों के कंधों पर डाल दिया जाता है। घर की इज़्ज़त भी लड़कियों से जोड़ दी जाती है, जिससे उनके कंधे और ज़िंदगी दोनों भारी हो जाते हैं। पितृसत्तात्मक समाज में लड़की होना अपने आप में एक संघर्ष है। लड़कियों की क्षमताओं और इच्छाओं को इस तरह सीमित कर दिया गया है कि कई बार उन्हें खुद भी एहसास नहीं होता कि यह सब उन्हें रोकने की एक सोची-समझी साज़िश है। संस्कार और परंपरा के नाम पर लड़कियों पर कई तरह की रोक-टोक लगाई जाती है। यही वह समाज है, जहां मेरा जन्म हुआ। यहाँ भेदभाव हमेशा खुलकर दिखाई नहीं देता, बल्कि इसकी कई परतें हैं। यह परतें तभी दिखती हैं जब आप उन्हें गहराई से समझने की कोशिश करते हैं। यह समझ और दृष्टि किताबें पढ़ने से आती है। किताबें हमें न केवल सच्चाई से परिचित कराती हैं, बल्कि उसके खिलाफ बोलने की हिम्मत भी देती हैं।

मैं एक ग्रामीण पृष्ठभूमि की लड़की हूं। मैंने हमेशा महिलाओं को घर और जंगल में काम करते देखा है, जबकि पुरुष घर के फैसले लेते हैं। उनके कहे को ही अंतिम निर्णय माना जाता है। वहां सही या गलत पर कोई चर्चा नहीं होती। लड़कियों को बचपन से ही घर के काम सिखाए जाते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। जैसे-जैसे मैं बड़ी हुई, घर की पाबंदियां बढ़ती चली गईं। घरवाले मुझे कहीं जाने नहीं देते थे। धीरे-धीरे मेरी दुनिया सीमित होती गई। मैंने भी इसे अपना सुरक्षित दायरा मान लिया, क्योंकि यही सिखाया गया था। हमारे समाज में सार्वजनिक या सामाजिक स्थान लड़कियों के लिए नहीं माने जाते। अगर खेलने का मन होता भी, तो कहा जाता कि इतनी बड़ी हो गई हो और खेल रही हो। कई बार तो बिना बताए गाँव में खेलने चली गई, तो घर आकर इतनी मार पड़ी कि फिर कभी खेलने की हिम्मत नहीं हुई।

मैं एक ग्रामीण पृष्ठभूमि की लड़की हूं। मैंने हमेशा महिलाओं को घर और जंगल में काम करते देखा है, जबकि पुरुष घर के फैसले लेते हैं। उनके कहे को ही अंतिम निर्णय माना जाता है। वहां सही या गलत पर कोई चर्चा नहीं होती।

पितृसत्ता जिसने मुझे नियंत्रित किया

एक लड़की होना मेरे लिए कभी आसान नहीं रहा। बचपन से ही हमारे साथ कई तरह के प्रतिबंध जोड़ दिए जाते हैं। जब मैं बड़ी हो रही थी और मेरे शरीर में बदलाव आने लगे, तब यह मेरे लिए बहुत कठिन था। मुझे इस विषय में कोई जानकारी नहीं थी। घर में भी कभी इन बातों पर चर्चा नहीं होती थी। मुझे यह गलतफहमी थी कि पीरियड्स केवल शादीशुदा महिलाओं को होती है। जैसे-जैसे मैं बड़ी हुई, मुझे ‘सलीका’ सिखाया जाने लगा कि कैसे बैठना, बोलना या पुरुषों के सामने कैसा व्यवहार करना है। लेकिन कभी किसी ने नहीं बताया कि ऐसा क्यों जरूरी है। स्कूल में लैंगिक भेदभाव पर नाटक जरूर होते थे, पर मेरे लिए तब तक लैंगिक भेदभाव का मतलब सिर्फ भ्रूण हत्या या लड़कियों से घर का काम कराना था। मुझे यह समझ नहीं थी कि समाज में लड़कियों को सीमित रखना और उन पर नियंत्रण रखना भी भेदभाव का हिस्सा है।

सामाजिक दबाव से मुक्त होना मेरी असली खुशी है

मेरी असली खुशी तब शुरू हुई जब मैंने अपने भीतर की कई गलत धारणाओं को तोड़ा। बचपन से मुझ पर कई तरह के दबाव थे। दुपट्टा ओढ़ने का, अकेले बाहर न जाने का, लड़कों से दूरी बनाने का, और ‘आदर्श लड़की’ की परिभाषा में खुद को ढालने का। घर में मुझे झाड़ू-पोछा, घास काटना और जानवरों की देखभाल करना सिखाया गया। घर के सामान लाने भाई को दुकान भेजा जाता, मुझे नहीं। धीरे-धीरे मैं इतनी निर्भर हो गई कि कुछ चाहिए होता तो उसे मिन्नत करनी पड़ती। पर कक्षा 9 के बाद मेरे जीवन में बहुत बदलाव आया। यह सिर्फ स्कूल बदलने का नहीं, बल्कि अपने खुद से परिचय पाने का समय था। मैंने समाज की कई गलतियों को देखना शुरू किया। अब मैं जान गई थी कि जो नियम सिर्फ लड़कियों पर थोपे जाते हैं, वे अन्याय हैं। मैंने इन सबका विरोध करना शुरू किया। अपने शरीर को समझना, खुलकर हंसना, अकेले बाहर जाना, बिना डर के अपनी बात कहना यही मेरी असली आज़ादी थी।

स्कूल में लैंगिक भेदभाव पर नाटक जरूर होते थे, पर मेरे लिए तब तक लैंगिक भेदभाव का मतलब सिर्फ भ्रूण हत्या या लड़कियों से घर का काम कराना था। मुझे यह समझ नहीं थी कि समाज में लड़कियों को सीमित रखना और उन पर नियंत्रण रखना भी भेदभाव का हिस्सा है।

वो यात्राएं जिन्होंने मुझे हिम्मत दी

मैं ने ज्यादा नहीं घुमा है। लेकिन मेरी कुछ यात्राएं मेरे लिए फेमिनिस्ट जॉय रही हैं जिन्होंने मुझे हिम्मत दी। मेरी दोस्त और मैंने पहली बार साथ में पिथौरागढ़ से नैनीताल की यात्रा की थी। दूरी भले ही ज़्यादा नहीं थी, लेकिन हमारे घरों में लड़कियां अकेले यात्रा नहीं करतीं। अगर करती भी हैं तो किसी ज़रूरी काम से और परिवार के साथ। हमारे लिए यह सफर आज़ादी का एहसास था जो हमने खुद के लिए चुना था। हम दोनों ने यह यात्रा खुद प्लान की थी। देर शाम नैनीताल पहुंचे, ठहरने की जगह ढूंढी और वहां की सड़कों पर खूब घूमे। उस दिन जो सुकून और राहत मैंने महसूस की थी, उसे याद करके आज भी मुस्कान आ जाती है। मेरे लिए घर से बाहर निकलना और नई जगहों को देखना ही असली आज़ादी है। इन यात्राओं में मैंने खुद से मुलाकात की। अपने डर, अपने फैसलों और अपनी ताकत से। मैं अपने रोज़मर्रा के संघर्षों के साथ जीना पसंद करती हूं लेकिन आत्मसम्मान के साथ, जहां कोई सिर्फ इस वजह से मुझ पर हावी न हो कि उसके पास मुझसे ज़्यादा सत्ता या अधिकार है।

अपने होने को स्वीकार करना और जीवन में खुशी तलाशना

मुझे फर्क पड़ता है जब कोई मेरी मौजूदगी को नकार देता है। फर्क पड़ता है जब मेरे विचारों को सिर्फ इसलिए अनदेखा किया जाता है क्योंकि मैं एक लड़की हूं। लोगों से बातें करना, उनके जीवन के बारे में जानना और अपने सामाजिक परिवेश को समझना मुझे अच्छा लगता है। मेरे लिए मेरा कमरा, शहर और मेरे दोस्त मेरी आज़ादी हैं। अकेले बाहर घूमना, सुबह उठकर स्पोर्ट्स शूज़ पहनकर दौड़ने जाना; ये सब मेरे लिए स्वतंत्रता के एहसास हैं। मैंने छोटी-छोटी बातों के लिए भी लड़ाई लड़ी है। घरवालों को भरोसा दिलाया है कि मैं अकेले भी सब कुछ कर सकती हूं। यात्रा हमेशा से मुझे आकर्षित करती रही है। यह सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि सीखने और खुद को समझने का माध्यम रही है। भूगोल विषय की छात्रा होने के नाते हमें शैक्षिक भ्रमण पर जाना होता था। एक बार चार दिनों की यात्रा तय हुई।

कक्षा 9 के बाद मेरे जीवन में बहुत बदलाव आया। यह सिर्फ स्कूल बदलने का नहीं, बल्कि अपने खुद से परिचय पाने का समय था। मैंने समाज की कई गलतियों को देखना शुरू किया। अब मैं जान गई थी कि जो नियम सिर्फ लड़कियों पर थोपे जाते हैं, वे अन्याय हैं। मैंने इन सबका विरोध करना शुरू किया।

मेरे ज़्यादातर साथी नहीं जाना चाहते थे, पर मैंने अकेले जाने का फैसला किया। मैंने घर पर नहीं बताया कि क्लास के बाकी लोग नहीं जा रहे। थोड़ा डर तो था, लेकिन मैं अपने फैसले पर डटी रही। शुरुआत में सब अजनबी लगे, लेकिन धीरे-धीरे सबसे पहचान हो गई। उस सफर ने मुझे खुद के साथ रहना सिखाया। अकेले खाना, खुद का ख्याल रखना और अपने डर का सामना करना। हम उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र की यात्रा पर थे, जहां मैंने तुंगनाथ का ट्रेक किया। अनजान लोगों के साथ चलना, एक-दूसरे की मदद करना और इंसानियत का रिश्ता महसूस करना यह अनुभव अदवुत था। यह यात्रा मेरे लिए आत्म-खोज का सफर थी। उसने मुझे सिखाया कि अपने तरीके से जीना ही सच्ची आज़ादी है।

घर के काम से निकालती हूं खुद के लिए वक्त

मेरे लिए ज़रूरी है कि दिनभर की भागदौड़ के बीच मैं थोड़ा समय सिर्फ़ अपने लिए निकालूं। जब मुझे अपने लिए वक्त नहीं मिलता, तो मैं बेचैन और चिड़चिड़ी हो जाती हूं। इसलिए मैं रोज़ थोड़ा समय खुद के साथ बिताने की कोशिश करती हूं। उस वक्त मैं अपनी डायरी में लिखती हूं, अपने अनुभव दर्ज करती हूं, संगीत सुनती हूं और किताबें पढ़ती हूं। यह समय मुझे बहुत सुकून देता है- न कोई जल्दी, न कोई हड़बड़ी। घर के, खेतों का काम और पशुओं के लिए घास काटने के बीच भी मैं अपने लिए वक्त निकाल लेती हूं। मेरा मानना है कि हमें सबसे पहले खुद का सम्मान करना चाहिए।

उस सफर ने मुझे खुद के साथ रहना सिखाया। अकेले खाना, खुद का ख्याल रखना और अपने डर का सामना करना। हम उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र की यात्रा पर थे, जहां मैंने तुंगनाथ का ट्रेक किया।

अपने शरीर में हो रहे बदलावों को समझना और खुद के लिए अच्छा महसूस करना ज़रूरी है। मैं अच्छा खाना खाती हूं, छोटी-छोटी खुशियों में आनंद ढूंढती हूं और अपने घरवालों को भी मुस्कुराने के लिए प्रेरित करती हूं। उन्हें भी कहती हूं कि थोड़ा समय अपने लिए निकालो क्योंकि यही असली सुख है। मेरे लिए फेमिनिस्ट जॉय का मतलब है खुद को समझना, अपनी इच्छाओं को पहचानना और उन्हें जीने की हिम्मत करना। यह खुशी किसी बाहरी मंज़ूरी से नहीं, बल्कि अपने भीतर से आती है। जब हम पितृसत्ता के बनाए डर और सीमाओं को तोड़ते हैं, तभी असली आज़ादी महसूस होती है, वही खुशी, वही स्वतंत्रता मेरे लिए फेमिनिस्ट जॉय है।

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