हमारे रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को अक्सर एक ‘आदर्श महिला’ की छवि वाले खांचे से जोड़कर ही देखा जाता है, जिसमें एक महिला का माँ बनना बहुत ज़रूरी माना जाता है। चाहे फिर कोई महिला माँ बनना चाहती हो या नहीं। हालांकि मातृत्व भावनात्मक, साहसी और प्यार भरा अनुभव भी है क्योंकि इसमें एक व्यक्ति या महिला नया जीवन देने की प्रक्रिया से गुजरते हैं। लेकिन प्रसव प्रक्रिया अब धीरे-धीरे ‘चिकित्साकरण’ के जाल में फंसती चली जा रही है। अब किसी व्यक्ति और महिला का बच्चे को जन्म देना केवल एक परिवार से जुड़ी घटना नहीं रह गया है, बल्कि अस्पताल, तकनीक और मुनाफे से जुड़ी प्रक्रिया बन गया है। इस आधुनिकीकरण ने अपनी जड़ें हर एक जगह पसार ली हैं जिससे महिलाओं का मातृत्व भी इसकी चपेट में आ गया है।
जैसाकि हम जानते हैं कि पहले के समय में दाईयां घरों में ही महिलाओं के प्रसव या डिलीवरी करवाती थीं । लेकिन यह उतने ज्यादा सुरक्षित नहीं होते थे और इससे महिलाओं और बच्चों की जान को खतरा बना रहता था। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) के अनुसार, हर दिन लगभग 800 महिलाओं की गर्भावस्था और प्रसव से संबंधित रोके जा सकने वाले कारणों से और घर पर बच्चे को जन्म देने के कारण मौत होती है। वहीं दूसरी ओर आज के दौर में निजी अस्पतालों में धड़ल्ले से अनावश्यक सी-सेक्शन या सिजेरियन डिलीवरी का चलन एक नई समस्या बनकर सामने आया है। जबकि इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) शोध पत्रिका में छपी डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक, सिजेरियन ऑपरेशन की दर 10 से 15 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। वहीं राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की साल 2015 और 16 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के प्राइवेट अस्पतालों में यह दर 40.9 फीसदी तक पहुंच चुकी थी। हालांकि सार्वजनिक सुविधाओं में यह आंकड़ा 11.9 फीसदी था। इससे यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि किस तरह आसानी से प्रसव या सुरक्षित प्रसव के आड़ में सी-सेक्शन के माध्यम से अस्पतालों में उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया जा रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) के अनुसार, हर दिन लगभग 800 महिलाओं की गर्भावस्था और प्रसव से संबंधित रोके जा सकने वाले कारणों से और घर पर बच्चे को जन्म देने के कारण मौत होती है।
प्रसव का बदलता परिवेश और चिकित्साकरण
साइंस डायरेक्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 20वीं सदी के शुरुआती दौर तक, प्रसव महिलाओं के अधिकार क्षेत्र में था। गर्भवती महिलाएं घर पर ही बच्चे को जन्म देती थीं, आमतौर पर अन्य महिलाएं भी इस दौरान मौजूद रहती थीं। एनेस्थीसिया और दर्द निवारक दवाओं का इस्तेमाल नहीं किया जाता था। वहीं साल 1940 और 1950 के दशक तक, महिला पुरुष चिकित्सकों की देख-रेख में प्रसव के लिए अस्पतालों में आने लगीं। अस्पतालों में, प्रसव के दौरान दर्द को कम करने या खत्म करने के लिए महिलाओं को बेहोश करने की दवा देना आम बात हो गई थी। इस तरह बदलाव की उपभोक्ता मांग बढ़ी और इसके तहत अस्पताल की सर्विस में बदलाव आए। एपीड्यूरल एनेस्थीसिया के चलन ने महिलाओं के प्रसव के अनुभव को बिल्कुल बदलकर रख दिया क्योंकि इसके इस्तेमाल से महिलाएं बिना दर्द महसूस किए बच्चे को जन्म दे सकती हैं।
स्वास्थ्य सेवा को अब एक ऐसे उद्योग के रूप में देखा जाता है, जहां देखभाल के पहलू की तुलना में तकनीकी पहलू पर अधिक ज़ोर दिया जाता है। आज प्रसव को अस्पतालों और डॉक्टरों की निगरानी में होना ज्यादा सुरक्षित और वैज्ञानिक माना जाने लगा है। ईपीडब्ल्यू की रिपोर्ट के मुताबिक, गर्भावस्था को एक रोगात्मक स्थिति और गर्भवती माँ को एक रोगी के रूप में देखा जाने लगा है। पहले जहां महिलाएं अपने शरीर के संकेतों को समझकर प्रसव का अनुभव करती थीं।अब हर प्रक्रिया अस्पताल और तकनीक के नियमों से तय होती है। इसमें गर्भावस्था के दौरान बार-बार डॉक्टरों की जांच बच्चे की हर हरकत पर मशीन से नजर रखना,प्रसव को कृत्रिम रूप से शुरू करना और सी सेक्शन जैसे चीजें आम हो गई हैं। इस कारण महिलाओं का अपने शरीर से नियंत्रण कम होता जा रहा है और सारा ध्यान डॉक्टर की सुविधा और अस्पताल में क्या – क्या फैसिलिटी मिलेंगी इस पर केंद्रित होता जा रहा है।
ईपीडब्ल्यू की रिपोर्ट के मुताबिक, गर्भावस्था को एक रोगात्मक स्थिति और गर्भवती माँ को एक रोगी के रूप में देखा जाने लगा है। पहले जहां महिलाएं अपने शरीर के संकेतों को समझकर प्रसव का अनुभव करती थीं।अब हर प्रक्रिया अस्पताल और तकनीक के नियमों से तय होती है।
भारत में बढ़ता चिकित्साकरण और सी-सेक्शन का व्यापार
रिपोर्ट के मुताबिक, धीरे-धीरे, महिलाएं यह सोचने लगती हैं कि प्रसव एक कमज़ोर करने वाली प्रक्रिया है, जिसमें किसी भी परेशानी को दूर करने के लिए ऑपरेशन ज़रूरी है। इसी वजह से बीते कुछ सालों में अनावश्यक सिजेरियन डिलीवरी की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी है। भारत में, सामान्य प्रसव कराने वाली महिलाओं को अक्सर प्रसव पीड़ा बढ़ाने वाली दवाएं दी जाती हैं, और उन्हें अपनी डिलीवरी तेज़ करने के लिए असुरक्षित सर्जिकल तकनीकों का सामना करना पड़ता है। इसके साथ ही उन्हें डेलीवेरी रूम में मौखिक हिंसा, अपमान और यहां तक कि शारीरिक हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन की साल 2020 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में अपमानजनक मातृत्व देखभाल की व्यापकता 71.31 फीसदी थी। जबकि दुर्व्यवहार के सबसे आम रूप में गैर-सहमति और मौखिक दुर्व्यवहार थे, इसके बाद धमकी, शारीरिक हिंसा और भेदभाव आदि शामिल थे। देखा जाए तो इस कारण भी महिलाएं सी-सेक्शन की तरफ बढ़ रही हैं।
बिज़नेस स्टैंडर्ड में छपे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट अहमदाबाद(आईआईएमए) के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में हर साल निजी अस्पतालों में होने वाले लगभग 70 लाख प्रसवों में से करीब 9 लाख ऐसे सिजेरियन ऑपरेशन होते हैं, जिन्हें आसानी से टाला जा सकता है। ये ज्यादातर अस्पतालों के पैसे कमाने या वित्तीय फायदे की वजह से किए जाते हैं। अध्ययन में पाया गया कि जो महिलाएं निजी अस्पतालों में प्रसव कराती हैं, उनमें अनियोजित या अचानक से सी-सेक्शन होने की संभावना सार्वजनिक अस्पतालों की तुलना में लगभग 13.5 से 14 फीसदी ज़्यादा होती है। निजी अस्पतालों में सी-सेक्शन प्रसव ज़्यादातर पैसे कमाने की वजह से किए जाते हैं। यानी डॉक्टर या अस्पताल खुद ही ऐसी मांग पैदा करते हैं ताकि उन्हें ज़्यादा आर्थिक लाभ मिल सके। एनएफएचएस का हवाला देते हुए, आईआईएमए के अध्ययन में बताया गया है कि निजी अस्पतालों में सामान्य प्रसव की औसत लागत लगभग 10,814 रुपये होती है, जबकि सी-सेक्शन की लागत करीब 23,978 रुपये तक पहुंच जाती है। इससे यह देखा जा सकता है कि किस तरह उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। साथ ही बहुत से अस्पतालों में मैटर्निटी पैकेज उपलब्ध होते हैं, जो सुरक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर उपभोक्तावाद को बढ़ावा देते हैं।
नैशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन की साल 2020 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में अपमानजनक मातृत्व देखभाल की व्यापकता 71.31 फीसदी थी। जबकि दुर्व्यवहार के सबसे आम रूप में गैर-सहमति और मौखिक दुर्व्यवहार थे, इसके बाद धमकी, शारीरिक हिंसा और भेदभाव आदि शामिल थे। देखा जाए तो इस कारण भी महिलाएं सी-सेक्शन की तरफ बढ़ रही हैं।
क्यों खतरनाक है यह प्रवृत्ति
डब्ल्यूएचओ के अनुसार, दुनिया भर में सिजेरियन सेक्शन का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है, और अब सभी प्रसवों में से 5 में से 1 या 12 फीसदी से ज़्यादा प्रसव सिजेरियन सेक्शन के माध्यम से हो रहा है। इस शोध में पाया गया है कि आने वाले दशक में यह संख्या और बढ़ेगी, और साल 2030 तक लगभग एक तिहाई यानी 29 फीसदी प्रसव सिजेरियन सेक्शन से होने की संभावना है। हालांकि सिजेरियन एक ज़रूरी और जीवनरक्षक सर्जरी हो सकती है, लेकिन अगर इसे चिकित्सीय आवश्यकता के बिना किया जाए, तो यह महिलाओं और शिशुओं को अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याओं के अनावश्यक जोखिम में डाल सकती है।
डब्ल्यूएचओ के यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और अनुसंधान विभाग, और संयुक्त राष्ट्र के संयुक्त कार्यक्रम एचआरपी के निदेशक डॉ. इयान एस्क्यू के मुताबिक ऐसी परिस्थितियों में जहां योनि से प्रसव जोखिम भरा हो, उस समय जीवन बचाने के लिए सिजेरियन सेक्शन बहुत ज़रूरी है, इसलिए सभी स्वास्थ्य प्रणालियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जरूरत पड़ने पर सभी महिलाओं को समय पर उपचार मिल सके। लेकिन, इस समय किए जाने वाले सभी सिजेरियन ऑपरेशन चिकित्सीय कारणों से ज़रूरी नहीं होते हैं। अनावश्यक सर्जिकल प्रक्रियाएं महिला और उसके बच्चे, दोनों के लिए हानिकारक हो सकती हैं । सभी सर्जरी की तरह, इसमें भी जोखिम हो सकते हैं। इनमें भारी रक्तस्राव या संक्रमण की संभावना, प्रसव के बाद रिकवरी में देरी, स्तनपान और भविष्य की गर्भावस्थाओं में समस्या की संभावना बढ़ जाती है। इससे महिलाओं की शारीरिक स्थिति ही खराब नहीं की संभावना नहीं होती, बल्कि उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ सकता है ।
अनावश्यक सर्जिकल प्रक्रियाएं महिला और उसके बच्चे, दोनों के लिए हानिकारक हो सकती हैं । सभी सर्जरी की तरह, इसमें भी जोखिम हो सकते हैं। इनमें भारी रक्तस्राव या संक्रमण की संभावना, प्रसव के बाद रिकवरी में देरी, स्तनपान और भविष्य की गर्भावस्थाओं में समस्या की संभावना बढ़ जाती है।
क्या हो सकता है आगे का रास्ता
डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सीजेरियन सेक्शन के बढ़ते उपयोग को रोकने के लिए गुणवत्तापूर्ण, महिला केंद्रित देखभाल की जरूरत है। सभी महिलाओं के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि वे स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं से बात कर सकें और अपने जन्म से संबंधित निर्णय लेने में भागीदार बन सकें। साथ ही महिलाओं को इसके जोखिमों और फ़ायदों के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। साथ ही भावनात्मक समर्थन गर्भावस्था और प्रसव के दौरान अच्छी देखभाल का एक बहुत ज़रूरी पहलू है। ऐसे शैक्षिक कार्यक्रम जो महिलाओं को अपने प्रसव की योजना में शामिल करते हैं, जैसे प्रसव की तैयारी की कार्यशालाएं, आराम, और जरूरत पड़ने पर दर्द या चिंता का सामना कर रही महिलाओं के लिए मनोवैज्ञानिक सहायता बहुत मददगार साबित हो सकते हैं।
भारत में प्रसव का चिकित्साकरण केवल एक स्वास्थ्य प्रणाली के बदलाव का रूप नहीं है, बल्कि इसने महिलाओं के मातृत्व और शरीर को पूरी तरह से नियंत्रित कर लिया है। जहां एक और तकनीक और आधुनिक चिकित्सा ने प्रसव को सुरक्षित बनाया है, वहीं दूसरी और मातृत्व को उपभोक्तावाद और मशीनों पर डिपेंड रहने वाली प्रक्रिया में बदल दिया है। यहां तक कि निजी अस्पतालों में मुनाफे के लिए अनावश्यक सी – सेक्शन के मामलों में दिन प्रतिदिन बढ़ोतरी होती जा रही है। इसका सीधा असर महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।अब जरूरत यह है कि महिलाओं या उस व्यक्ति के प्रसव की प्रक्रिया को एक मानवीय अनुभव के रूप में देखा जाए न कि किसी चिकित्सकीय घटना के रूप में। ताकि महिलाएं अपने मातृत्व को अपने अनुभव और मन से महसूस कर पाएं।

