समाजखेल कैसे ग्रामीण भारत ने मुझे मेरे खेल के अधिकार से वंचित कर दिया

कैसे ग्रामीण भारत ने मुझे मेरे खेल के अधिकार से वंचित कर दिया

मैं भी एक बार अपने भाइयों के साथ दौड़ने जाती थी। मुझे अच्छा लगता था। लेकिन मेरी माँ ने कहा कि मैं क्यों जा रही हूं? दौड़कर क्या करना है? शायद उन्हें मेरे लिए डर होता था।

जब मैं अपने बचपन के बारे में सोचती हूं तो लौटना नहीं चाहती। उस उम्र की यादों में मैं खुद को हमेशा दुबकी हुई, डरी हुई पाती हूं। मेरे लड़की होने के कारण मुझे लगातार भेदभाव का सामना करना पड़ा। मुझे बहुत छोटी उम्र में ही ज़िम्मेदारी का बोझ डाल दिया गया। पितृसत्तात्मक माहौल में लड़की होना अपने आप में एक तरह का नियंत्रण होता है। बचपन से ही हमें सिखाया जाता था कि लड़कियां घर का काम करें, घर के अंदर रहें और अपनी सीमाओं में जिएं। बाहर खेलने-कूदने की आज़ादी नहीं थी। वहीं गाँव के लड़के खुले में खेलते, इधर-उधर घूमते और कम सामाजिक बंधनों का सामना करते। मैं चाहकर भी उनके साथ खेलने नहीं जा सकती थी। मेरे जीवन में खेल का कोई समय नहीं था। गाँव के बच्चे बाहर खेलते थे और मेरा मन भी करता था, लेकिन घर से निकलने की अनुमति कभी नहीं मिली। उस समय मुझे भेदभाव की भाषा नहीं आती थी, लेकिन भीतर कुछ बार-बार खटकता था कि क्यों मेरे लिए नियम अलग हैं?

ग्रामीण समाज में लड़कियों से उम्मीदें

गाँव में मैंने हमेशा यही देखा कि लड़कियों की पढ़ाई अक्सर 12वीं के आगे नहीं बढ़ती थी। कई लड़कियों की शादी 12वीं से पहले या उसी के आस-पास तय हो जाती थी। मुझे बचपन में शादी की चहल-पहल बड़ी आकर्षक लगती थी, इसलिए 12वीं में पढ़ने वाली लड़कियां मुझे बहुत ‘बड़ी’ लगती थीं। लेकिन आज समझ आता है कि वे बड़ी नहीं थीं, बस जल्दी ही वयस्क जिम्मेदारियों में धकेल दी जाती थीं। मैंने कभी किसी लड़की को खेलते नहीं देखा। सभी लड़कियां घर का काम, पानी भरना, बर्तन धोना और पशुओं की देखभाल करती दिखती थीं। तब मुझे पितृसत्ता शब्द और उसके मायने भी नहीं पता था। यह भी नहीं समझ पाती थी कि यह व्यवस्था लड़कियों की ज़िंदगी को कैसे नियंत्रित करती है। घरवाले उन लड़कियों को अधिक पसंद करते थे जो ज्यादा काम करती थीं। गाँव में भी वही लड़की ‘अच्छी’ कहलाती थी जो बिना थके घर के सारे काम संभाल ले। मैं भी उसी सोच में ढली हुई थी। पढ़ाई में बहुत आगे बढ़ने की चाह नहीं थी, क्योंकि उसके लिए माहौल ही नहीं था। खेलना तो कल्पना जैसा था। बस यही सीखा था कि लड़की का काम घर में रहकर काम करना है।

जब मैं अपने बचपन के बारे में सोचती हूं तो लौटना नहीं चाहती। उस उम्र की यादों में मैं खुद को हमेशा दुबकी हुई, डरी हुई पाती हूं। मेरे लड़की होने के कारण मुझे लगातार भेदभाव का सामना करना पड़ा। मुझे बहुत छोटी उम्र में ही ज़िम्मेदारी का बोझ डाल दिया गया।

खेल और बचपन की यादें

खेल किसी भी बच्चे के जीवन का जरूरी हिस्सा होते हैं। खेल भेदभाव नहीं करते, बल्कि हमें जोड़ते हैं और एक समावेशी माहौल बनाते हैं। मेरे गाँव में मैं अक्सर लड़कों के साथ पकड़न–पकड़ाई, छुपन–छुपाई और अड्डू जैसे खेल खेलती थी। इन खेलों में मुझे बहुत मज़ा आता था। लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ कि मुझे मम्मी ने डांटा कि अब तुम बड़ी हो गई हो, लड़कों के साथ मत खेला करो। यह डर मेरे खेलते कदमों को रोक देता था। गाँव की महिलाएं भी कहतीं कि इतनी बड़ी लड़की को ऐसे खेलने दिया है! ये बातें मुझे अंदर तक चोट देती थीं, लेकिन मैं कुछ कह नहीं पाती थी। मैं बचपन से ही उत्सुक और बाहर खेलने वाली बच्ची थी। जहां भी बच्चों के खेलने की आवाज़ आती, मेरे पैर वहीं चल पड़ते थे। लेकिन, कई बार जब हम छुपन–छुपाई खेलते, तो कुछ लड़के छुपने के बहाने मुझे गलत तरीके से छूने की कोशिश करते। ये अनुभव बहुत असहज और डराने वाले थे। धीरे-धीरे मैंने बाहर खेलना लगभग बंद कर दिया। मुझे समझ आने लगा कि मेरे शरीर और मेरी सुरक्षा के साथ क्या हो रहा है। खेल का आनंद मेरी ज़िंदगी से कम होता गया, और मेरे अंदर का खुशमिजाज़ बच्चा कहीं खोता चला गया।

खेल में समान स्थान और सुरक्षा का अभाव

गाँव में लड़कियों के खेलने के लिए न तो सुरक्षित जगह थी और न ही समाज का सहयोग। लड़कियों को हमेशा कमजोर खिलाड़ी समझा जाता है। लड़के अक्सर टीम में हमें शामिल नहीं करना चाहते थे, या सारी लड़कियों को एक ही टीम में डाल देते थे। यह दिखाता था कि लड़कियों के प्रति जो मानसिकता समाज में थी, वही खेल के मैदान में भी दिखाई देती थी। शिक्षा किसी भी भेदभाव से लड़ने का सबसे मजबूत साधन है। लेकिन मेरे स्कूल में खेल को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। खेल सामग्री अक्सर इसलिए नहीं दी जाती थी कि वह टूट जाएगी। लड़कियां तो और भी कम खेलती थीं। उनमें खेल के प्रति उदासीनता इस कदर बैठ चुकी थी कि वे खुद आगे नहीं बढ़ती थीं।

मेरे गाँव में मैं अक्सर लड़कों के साथ पकड़न–पकड़ाई, छुपन–छुपाई और अड्डू जैसे खेल खेलती थी। इन खेलों में मुझे बहुत मज़ा आता था। लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ कि मुझे मम्मी ने डांटा कि अब तुम बड़ी हो गई हो, लड़कों के साथ मत खेला करो। यह डर मेरे खेलते कदमों को रोक देता था। गाँव की महिलाएं भी कहतीं कि इतनी बड़ी लड़की को ऐसे खेलने दिया है!

लड़कियां अक्सर ग्रुप बनाकर बैठ जाती थीं, बातें करती या घर–घर खेलने जैसे पितृसत्तात्मक खेल खेलती थीं जहां खाना बनाना, सफाई करना या घर संभालना ही ‘खेल’ बन जाता था। इन खेलों से भी हमें केवल वही भूमिकाएं मिलती थीं, जिन्हें समाज पहले से ही हमारे लिए तय कर चुका था। कक्षा 9वीं के बाद मैंने खेलना लगभग छोड़ दिया। मैदान में लड़के दौड़ते और खेलते दिखते, जबकि लड़कियां दीवारों से सटी बैठी रहतीं। हमारे मन में ‘लड़की होने’ का अपराधबोध इतना भरा गया था कि मैदान में उतरते ही शरीर झिझकने लगता। कभी दुपट्टा खिसक जाएगा, कभी कोई टोक देगा या कभी कोई यौन हिंसा हो सकती है जैसे डर हमें रोकते थे। हमारी देह, जो खेल में खुलकर भाग लेना चाहती थी, उसे जैसे हर तरफ से बाँध दिया गया था।

हमारे गाँव में भी एक बड़ा मैदान है। वहां सभी अनेक लड़के खेलते हुए दिखाई देते हैं। पर लड़कियां वहां कभी नज़र नहीं आतीं। मैं जब पानी भरने जाती हूं तो कुछ देर खड़े होकर खेल देखती हूं।

ग्रामीण मैदानों से गायब लड़कियां

गाँव की शामों में लड़कों का शोर सुनाई देना एक आम बात है। मैदान में क्रिकेट हो रहा हो, वॉलीबॉल खेला जा रहा हो, या बस दोस्तों की आवाजें, ये सब हमारे रोज़ के माहौल का हिस्सा हैं। लड़कों के पास खेलने और बाहर रहने का भरपूर समय होता है। लेकिन लड़कियों के पास ऐसा समय नहीं होता। घर का काम, छोटे भाई–बहनों की देखभाल, और माँ के साथ जंगल से लकड़ी या घास लाना; यह सब लड़कियों की ज़िम्मेदारी मान ली जाती है। जैसे यह काम पीढ़ियों से विरासत में मिलता आया हो। हमारे गाँव में भी एक बड़ा मैदान है। वहां सभी अनेक लड़के खेलते हुए दिखाई देते हैं। पर लड़कियां वहां कभी नज़र नहीं आतीं। मैं जब पानी भरने जाती हूं तो कुछ देर खड़े होकर खेल देखती हूं।

देखने में बहुत अच्छा लगता है। मन में हमेशा यही ख्याल आता है कि काश लड़कियों के लिए भी ऐसा ही माहौल होता जहां हम सब मिलकर खेलते और एक-दूसरे से सीखते। लेकिन हमारे यहां लड़कियों का ज़्यादा खेलना, दौड़ना, या खुलकर बोलना अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता। कई बार तो ऊंची आवाज़ में बोलने पर भी कहा जाता है कि लड़कियों की आवाज़ घर की चारदीवारी से बाहर नहीं जानी चाहिए। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे घर के अंदर रहें, चुप रहें और अपनी इच्छाओं को खुद ही दबा दें। लड़कियाँ क्या चाहती हैं, यह जानने की कोशिश बहुत कम लोग करते हैं।

बचपन में एक दुर्घटना में मेरी एक आँख की रोशनी चली गई थी। माँ को लगता होगा कि दौड़ने से क्या फायदा। लेकिन पापा ने हमेशा कहा कि क्या सिर्फ भर्ती होने के लिए ही दौड़ते हैं? जा, तू भाग। उन्होंने मुझे कभी नहीं रोका।

जब भी मैं गाँव में होती हूं, सुबह-सुबह लड़के तेज़ गाने लगाकर दौड़ते दिख जाते हैं। कई लड़के प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं, जहां दौड़ ज़रूरी होती है। लेकिन लड़कियां अभी भी इन तैयारियों से दूर दिखती हैं। मैं भी एक बार अपने भाइयों के साथ दौड़ने जाती थी। मुझे अच्छा लगता था। लेकिन मेरी माँ ने कहा कि मैं क्यों जा रही हूं? दौड़कर क्या करना है? शायद उन्हें मेरे लिए डर होता था। बचपन में एक दुर्घटना में मेरी एक आँख की रोशनी चली गई थी। माँ को लगता होगा कि दौड़ने से क्या फायदा। लेकिन पापा ने हमेशा कहा कि क्या सिर्फ भर्ती होने के लिए ही दौड़ते हैं? जा, तू भाग। उन्होंने मुझे कभी नहीं रोका। अगर किसी दिन मैं देर से उठती, तो पापा पूछते कि आज नहीं जाना रनिंग में? उनके ये शब्द मुझे आज़ादी और सुकून देते हैं। सुबह जब मैं दौड़ने जाती हूं, तब अंधेरा रहता है। कभी मैं अकेले जाती हूं, कभी अपने दोस्तों के साथ। उनके साथ मुझे हमेशा सुरक्षित और सहज महसूस होता है। हम एक्सरसाइज़ करते हैं और फिर घर लौट आते हैं।

पापा ने न कभी मेरे दोस्तों पर सवाल उठाया, न कभी पूछा कि मैं किसके साथ जाती हूं। शायद यही भरोसा मुझे खुश करता है। और यही मुझे यह एहसास भी दिलाता है कि लड़कियों को सपने पूरे करने के लिए सिर्फ आज़ादी ही नहीं, बल्कि परिवार का विश्वास भी चाहिए। गाँव के मैदानों से लड़कियों का गायब होना केवल खेल की कमी नहीं, बल्कि उनके बचपन, आज़ादी और अधिकारों का गायब होना है। जब समाज लड़कियों के लिए सुरक्षित और समान अवसर नहीं देता, तो वह उनके आत्मविश्वास, सपनों और भविष्य को सीमित कर देता है। खेल सिर्फ शरीर को नहीं, बल्कि मन को भी मज़बूत बनाते हैं। यह बराबरी सिखाते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि ग्रामीण और शहरी दोनों समाजों में ऐसी जगहें और माहौल बनाए जाएं जहां लड़कियां बिना डर, बिना रोक-टोक और बिना अपराधबोध के खेल सकें, सीख सकें और अपने बचपन को जी सकें। परिवार का भरोसा, समुदाय का समर्थन और समाज की संवेदनशीलता ही उनके रास्ते खोल सकते हैं। जब लड़कियां मैदान में लौटेंगी, तभी सच में बराबरी की शुरुआत होगी।

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