इंटरसेक्शनलजेंडर आखिर क्यों लैंगिक हिंसा के गंभीर रूप आर्थिक हिंसा पर है सामाजिक चुप्पी?

आखिर क्यों लैंगिक हिंसा के गंभीर रूप आर्थिक हिंसा पर है सामाजिक चुप्पी?

नैशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन पर साल 2021 में प्रकाशित एक सर्वे में शामिल अनौपचारिक बस्ती क्षेत्रों में रह रही 4906 विवाहित महिलाओं में से 23 प्रतिशत ने अपने पार्टनर या परिवार के किसी अन्य सदस्य की तरफ़ से आर्थिक हिंसा का सामना करने की बात बताई।

देश में रोजाना लैंगिक हिंसा की घटनाएं हम सुनते या देखते हैं। इससे जुड़े कार्यक्रम, योजनाएं या अभियान भी आज आम हैं। लेकिन, सच्चाई ये है कि लैंगिक हिंसा पर आज भी आम जनता की जागरूकता और मान्यताएं बहुत सीमित और संकीर्ण है। लैंगिक हिंसा से आम तौर पर लोग सबसे से पहले शारीरिक हिंसा ही समझते हैं। हालांकि घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 में आर्थिक हिंसा की बात भी शामिल है। लेकिन, इसके बावजूद, आर्थिक हिंसा के लिए अक्सेप्टन्स या जागरूकता बेहद कम है। संयुक्त राष्ट्र अपनी घरेलू हिंसा की परिभाषा में ‘आर्थिक हिंसा’ को शामिल करता है।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार किसी व्यक्ति को आर्थिक रूप से पूरी तरह अपने ऊपर निर्भर बनाने के लिए वित्तीय संसाधनों पर पूरा नियंत्रण बनाए रखना, पैसे तक उसकी पहुंच रोक देना, और/या उसे स्कूल या रोज़गार पर जाने से मना करना, आर्थिक हिंसा माना जाता है। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन पर साल 2021 में प्रकाशित एक सर्वे में शामिल अनौपचारिक बस्ती क्षेत्रों में रह रही 4906 विवाहित महिलाओं में से 23 प्रतिशत ने अपने पार्टनर या परिवार के किसी अन्य सदस्य की तरफ़ से आर्थिक हिंसा का सामना करने की बात बताई। अगर हम सभी राज्यों के आंकड़ों को शामिल करें तो यह संख्या कहीं ज़्यादा होगी। 

नैशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन पर साल 2021 में प्रकाशित एक सर्वे में शामिल अनौपचारिक बस्ती क्षेत्रों में रह रही 4906 विवाहित महिलाओं में से 23 प्रतिशत ने अपने पार्टनर या परिवार के किसी अन्य सदस्य की तरफ़ से आर्थिक हिंसा का सामना करने की बात बताई।

वैवाहिक रिश्ते में आर्थिक हिंसा 

मेरी एक परिचित महिला हाउसवाइफ हैं। उनका ज़्यादातर समय घर के कामों और बच्चों की देखरेख में ही जाता है। उनके पास खुद के कोई पैसे नहीं होते ना ही उनके पति उन्हें हर महीने कोई निश्चित रकम देते हैं। आम तौर पर अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए उन्हें पति से पैसे मांगने पड़ते हैं, जिसका हिसाब भी पति को देना ही पड़ता है। कहने को उनके पास खुद का फोन है, पर अक्सर रिचार्ज के बगैर इंकमिंग की सुविधा बंद रहती है। चूंकि उनके पास खुद के पैसे नहीं होते तो उनकी यात्राओं के फैसले उनके पति ही लेते हैं। देखा जाए तो आमतौर पर ज़्यादातर शादीशुदा महिलाएं आर्थिक हिंसा की ऐसी घटनाओं का सामना करती हैं। इसमें आर्थिक संसाधन तक, जो असल में किसी व्यक्ति की बाकी संसाधनों तक पहुंच का भी साधन होता है, पति और पत्नी की बराबर पहुंच नहीं होती। दहेज की मांग भी महिलाओं के साथ होने वाली आर्थिक हिंसा न सिर्फ एक रूप है बल्कि आगे के दिनों में इसे बढ़ावा देता है।

सिंगल महिलाओं के साथ होती आर्थिक हिंसा 

भोपाल की प्रतिमा (बदला हुआ नाम) अविवाहित हैं। वे बताती हैं, “एक समय पर मेरी नौकरी छूट गई थी और मैं घर आ गई थी। उसी टाइम मेरे घर में एक घरेलू कामगार रखने की बात हो रही थी। मैंने अपने परिवार के सामने यह प्रस्ताव रखा कि मैं घर के काम कर दूंगी पर जो पैसे घरेलू कामगार को दिए जाएंगे, वो मुझे दे दीजिएगा। एक तरह से मैंने अपनी ज़रूरत उन्हें अपने शब्दों में बताने की कोशिश की थी। मैंने घर के काम तो किए मगर मुझे परिवार वालों से कोई पैसे नहीं मिले। पैसे न होने से मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर भी काफी बुरा असर पड़ा।” प्रतिमा का अनुभव एक ऐसी महिला की कहानी बयान करता है जो नौकरी नहीं करती और इसलिए उसके पास खुद के पैसे नहीं हैं। लेकिन, सिंगल और नौकरीपेशा महिलाओं पर कई बार उनके परिवारों की तरफ़ से यह भी दबाव होता है कि वे घर के खर्चों में ज़्यादा से ज़्यादा योगदान दें। अपने ही कमाए पैसे अपनी ज़रूरतों पर खर्च करने पर उन्हें परिवारीजनों  की तरफ से ताने भी सुनने पड़ते हैं। कई महिलाएं नौकरी तो करती हैं, लेकिन उसके बाद भी उनके पैसों का हिसाब-किताब परिवार के पुरुष सदस्य रखते हैं। यह भी आर्थिक हिंसा का एक रूप है।

मैंने अपने परिवार के सामने यह प्रस्ताव रखा कि मैं घर के काम कर दूंगी पर जो पैसे घरेलू कामगार को दिए जाएंगे, वो मुझे दे दीजिएगा। एक तरह से मैंने अपनी ज़रूरत उन्हें अपने शब्दों में बताने की कोशिश की थी। मैंने घर के काम तो किए मगर मुझे परिवार वालों से कोई पैसे नहीं मिले।

बेरोजगारी या रोजगार से जुड़ी आर्थिक हिंसा 

कानपुर की आसमीना (बदला हुआ नाम) हाशिए के समुदाय से हैं। शादी से उनके पांच बच्चे हैं। उनके पति ऑटो चलाते हैं। वो कहती हैं, “पति न तो खुद मुझे पैसे देते हैं और न ही मुझे काम करने देते हैं। मैं चाहती हूं कि दूसरों के घर में काम कर के अपना और अपने बच्चों का गुज़ारा कर सकूं। फिलहाल मेरा परिवार दूसरों के घरों से खाना और राशन मांगकर गुज़ारा करता है।” आसमीना की तरह की बहुत सी महिलाओं को पति से आर्थिक सहायता नहीं मिलती और अगर वे नौकरी करना चाहें तो उनके पति उन्हें वह भी नहीं करने देते।  हालांकि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई महिला नौकरी न करना चाहे। ऐसे में परिवार द्वारा उसके छोटे-मोटे खर्चों की ज़िम्मेदारी न लेना और उस पर पैसा कमाने के लिए दबाव डालना भी एक तरह की आर्थिक हिंसा है। इस बारे में कानपुर की 28 वर्षीय आयशा कहती हैं, “मैंने कभी नौकरी नहीं की। लेकिन मेरे ससुराल की तरफ़ से यह अपेक्षा रहती है कि मैं घर के काम भी करूं और कुछ कमाऊं भी।” 

अगर हम आसमीना और आयशा के अनुभवों पर नज़र डालें तो दोनों आर्थिक हिंसा का सामना कर रही हैं और दोनों को घर-परिवार से ऐसा माहौल नहीं मिल रहा कि वे नौकरी कर सकें। दोनों पर ही नौकरी का दबाव है। देखा जाए तो हमारी सामाजिक संरचना भी ऐसी है जहां नौकरी करना और खुद को आर्थिक रूप से सक्षम बना पाना महिलाओं के लिए काफी कठिन होता है। शादी के बाद घर की ज़िम्मेदारियों या मातृत्व जैसी वजहों से नौकरीपेशा लड़की का नौकरी छोड़ देना भी बहुत आम-सी बात है। जो लड़कियां किसी तरह से मशक्कत करके नौकरी करने भी लगती हैं वे कार्यस्थल पर भी असमान वेतन जैसे भेदभाव का सामना करती हैं, यानी महिलाओं के आर्थिक शोषण के मामले में उनके कार्यस्थल भी पीछे नहीं। 

मैंने कभी नौकरी नहीं की। लेकिन मेरे ससुराल की तरफ़ से यह अपेक्षा रहती है कि मैं घर के काम भी करूं और कुछ कमाऊं भी।

भारत में क्या है आर्थिक हिंसा की स्थिति

आर्थिक हिंसा के ज़्यादातर मामले रिपोर्ट ही नहीं हो पाते क्योंकि महिलाएं इसके बारे में खुलकर बात करने से झिझकती हैं और हमारा समाज भी इसे हिंसा नहीं मानता। कई बार इसका सामना करने वाली महिलाएं आर्थिक हिंसा को हिंसा के तौर पर देख भी नहीं पातीं। यही वजह है कि इसके सटीक आंकड़े हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट अनुसार भारत में कोविड और इसके बाद के दौर में महिलाओं के साथ आर्थिक हिंसा के मामलों में बढ़ोतरी देखी गई। आर्थिक हिंसा विवाह और परिवार जैसी जगहों में फलती-फूलती है क्योंकि वहां इसे सामान्य माना जाता है। विवाह जैसी संस्था में तो काफी हद तक महिलाएं विवाह के बाद आर्थिक तौर पर अपने पति पर ही निर्भर हो जाती हैं।

आर्थिक हिंसा की बात वे खुलकर बोल भी नहीं पातीं। ऐसे मसलों पर समाज भी चुप्पी धारण कर लेता है क्योंकि इन्हें घर-परिवार के मसले मान लिया जाता है। जब तक महिलाओं की आर्थिक ज़रूरतों को दोयम दर्जे का माना जाता रहेगा और परिवार के पुरुष सदस्य ये सोचेंगे कि वे सब कुछ ले ही आते हैं फिर महिलाओं को अलग से पैसे की क्या ज़रूरत, तब तक आर्थिक हिंसा बरकरार रहेगी। साथ ही, अगर महिला नौकरीपेशा है तो उसके पैसों पर पूरा नियंत्रण उसी का होना चाहिए क्योंकि आर्थिक एजेंसी किसी व्यक्ति का बुनियादी अधिकार होता है।  

द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट अनुसार भारत में कोविड और इसके बाद के दौर में महिलाओं के साथ आर्थिक हिंसा के मामलों में बढ़ोतरी देखी गई। आर्थिक हिंसा विवाह और परिवार जैसी जगहों में फलती-फूलती है क्योंकि वहां इसे सामान्य माना जाता है।

क्या हो सकता है आगे का रास्ता

जहां शारीरिक और मौखिक हिंसा आसानी से नज़र आती है, आर्थिक हिंसा इतनी आसानी से नज़र में आनेवाली चीज़ नहीं है। कई बार इसका सामना करने वाले व्यक्ति को भी इसका पता नहीं चल पाता। हालांकि कोई भी इसका सामना कर सकता है, लेकिन अमूमन आर्थिक रूप से सक्षम व्यक्ति दूसरे के साथ आर्थिक हिंसा करते हैं या ऐसी परिस्थतियां पैदा कर सकता है कि कोई व्यक्ति अपनी आर्थिक एजेंसी सुनिश्चित न कर सके। आर्थिक हिंसा भी एक गंभीर समस्या है, लेकिन इस पर अक्सर बात ही नहीं होती। खासकर सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ी महिलाएं इसका सबसे अधिक सामना करती हैं। इसे सिर्फ शारीरिक या यौन हिंसा से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।

कई बार परिवार या साथी महिलाओं को नौकरी करने से रोकते हैं और आर्थिक संसाधनों पर पूरा नियंत्रण रखते हैं। फिल्मों और समाज में इसे सामान्य मान लिया गया है। आर्थिक हिंसा को खत्म करने की शुरुआत इसे ‘हिंसा’ मानने से होती है। क्योंकि आर्थिक हिंसा, अन्य प्रकार की हिंसा को बढ़ाती है और अन्य हिंसा भी महिलाओं को आर्थिक रूप से कमजोर कर देती है। शारीरिक, यौन या मानसिक हिंसा सामना करने वाली महिलाएं नौकरी छोड़ने, कमज़ोर प्रदर्शन करने या नेतृत्व के अवसरों से दूर होने पर मजबूर हो जाती हैं। इसलिए आर्थिक हिंसा को अलग रूप में समझना और इसके अन्य हिंसाओं से संबंध को पहचानना ज़रूरी है, तभी इसके समाधान की दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकते हैं।

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