इंटरसेक्शनलजेंडर मेरा फेमिनिस्ट जॉय: पितृसत्ता के खिलाफ़ मेरे फैसले, मेरी जीत

मेरा फेमिनिस्ट जॉय: पितृसत्ता के खिलाफ़ मेरे फैसले, मेरी जीत

आज मैं अकेले शहरों में सफर करती हूं। कभी ट्रेन, कभी फ्लाइट, कभी टैक्सी। यूपी, जयपुर, बेंगलुरु हर जगह अकेले जाती हूं। जो घर कभी मुझे अकेले गली के मोड़ तक जाने नहीं देता था, आज वही घर गर्व से मेरा सफर देखता है।

मैंने बचपन से ही घर की दीवारों के भीतर पितृसत्ता का सबसे सीधा और सबसे कड़वा रूप देखा है। हमारे घर में लड़की होना किसी कमी की तरह माना जाता था। जैसे, मेरी मौजूदगी किसी गलती का नतीजा हो। एक पेंसिल मांगने भर से माहौल बिगड़ जाता और उसकी कीमत मेरी माँ को अपमान सुनकर चुकानी पड़ती। मेरे लिए त्योहार कभी रोशनी का नहीं, हमेशा तनाव और डर का मौसम रहा, जहां दिवाली की जगमगाहट भी घर के शोर और झगड़ों में खो जाती थी।मेरी माँ इस घर की वास्तविक मज़दूर थीं —भावनात्मक और शारीरिक तौर पर भी। घर संभालना उनके लिए कोई विकल्प नहीं था बल्कि एक लगातार चलने वाला बिना वेतन का श्रम था,  जिसे सबने स्वाभाविक मान लिया था। उनकी जरूरतें हमेशा आख़िरी पायदान पर धकेल दी जातीं। कहीं जाने या कुछ खरीदने की उनकी हर इच्छा बहस, तानों और डर में बदल जाती।

उन्होंने अपने सपनों को इतने साल दबाकर रखा कि धीरे-धीरे उन्होंने मान ही लिया कि चाहत जताना भी किसी अपराध जैसा है। मैंने उन्हें हज़ार बार टूटते देखा है, पर हर बार मुझे बचाने के लिए खड़े होते भी देखा है। उनकी यही मजबूती मेरे अंदर एक सवाल बनकर जन्म लेने लगी। अगर माँ जैसी औरत जो इतना कुछ सहती है, फिर भी हम सबको संभालती है, तो फिर इस समाज में लड़की होना बोझ क्यों माना जाता है? घर में मेरे जन्म को भी कभी खुले मन से स्वीकार नहीं किया गया। हर छोटी से छोटी बात पर ताना सुनना पड़ता था कि बेटा होता तो घर संभाल लेता। मुझ पर नहीं, मेरे जेंडर के लिए धारणा दिखती थी और फैसले सुनाए जाते थे। पितृसत्ता की यही सबसे कड़वी सच्चाई है कि वह आदमी के श्रम को कमाई कहती है लेकिन औरत के श्रम को फर्ज़।

घर में मेरे जन्म को भी कभी खुले मन से स्वीकार नहीं किया गया। हर छोटी से छोटी बात पर ताना सुनना पड़ता था कि बेटा होता तो घर संभाल लेता। मुझ पर नहीं, मेरे जेंडर के लिए धारणा दिखती थी और फैसले सुनाए जाते थे। पितृसत्ता की यही सबसे कड़वी सच्चाई है कि वह आदमी के श्रम को कमाई कहती है लेकिन औरत के श्रम को फर्ज़।

पितृसत्ता और मेरे अधूरे सपने  

मेरा सपना इंजीनियर बनने का था। मैं पढ़ाई में हमेशा से अच्छी रही, पर जैसे ही मैंने बाहर जाकर पढ़ने की बात की, घर वालों ने साफ़ मना कर दिया। यह तर्क दिया गया कि बाहर पढ़ने वाली लड़कियां बिगड़ जाती हैं। लेकिन, असल वजह यह थी कि उन्हें डर था कि एक लड़की अगर दुनिया देखेगी तो खुद को और अपनी आवाज़ को पहचान लेगी। यह पहचान यह आत्मविश्वास पितृसत्तात्मक ढांचे के लिए सबसे बड़ा खतरा है। मेरी इच्छाओं को दबाकर मुझे एक ऐसा विकल्प दे दिया गया जिसका मैंने कभी सपना भी नहीं देखा था। मैंने बीएससी में दाख़िला ले लिया। मेरे लिए यह सिर्फ एक कोर्स बदलने की बात नहीं थी; यह उस व्यवस्था की याद दिलाने वाला ज़ख्म था जिसमें लड़की की इच्छाओं को मायने ही नहीं दिए जाते।

लेकिन यही रोक, यही निरुत्साह मेरे भीतर एक नई ताकत बनकर उभरा। मैंने तय कर लिया था कि मेरी ज़िंदगी पर मेरा हक़ होगा। मैं किसी और की बनाई सीमाओं में कैद होकर नहीं जीऊंगी। माँ की चुप्पी ने मुझे बोलना सिखाया, और उनकी तकलीफों ने मुझे लड़ना।समय के साथ मैंने खुद को मज़बूत बनाना शुरू किया। पढ़ाई में, काम में, और सोच में। जो रास्ता मुझे नहीं दिया गया, मैंने खुद बनाना शुरू किया। आज जब मैं नौकरी करती हूं, अपनी कमाई पर खुद फैसला लेती हूं, तो यह सिर्फ आर्थिक स्वतंत्रता नहीं है। यह उस व्यवस्था के खिलाफ़ मेरा प्रतिरोध है जो लड़कियों को आर्थिक रूप से निर्भर रखकर उन्हें नियंत्रित करती है। जब पहली बार अपनी कमाई से मैंने माँ को उनकी पसंद की साड़ी दिलाई, तो वह पल मेरे लिए सिर्फ उपहार देने का नहीं था। यह उनके उन सालों की भरपाई थी जिनमें उन्होंने खुद को मिटाकर हमें संभाला था। उनकी आँखों में खुशी देखकर मुझे एहसास हुआ कि औरतों को खुश होने का अधिकार भी इस समाज ने कितना सीमित कर रखा है।

आज मैं अकेले शहरों में सफर करती हूं। कभी ट्रेन, कभी फ्लाइट, कभी टैक्सी। यूपी, जयपुर, बेंगलुरु हर जगह अकेले जाती हूं। जो घर कभी मुझे अकेले गली के मोड़ तक जाने नहीं देता था, आज वही घर गर्व से मेरा सफर देखता है। माँ जब कहती हैं कि तू तो बिलकुल नहीं डरती, तो मुझे महसूस होता है कि यह सिर्फ मेरा नहीं, उनकी भी जीत है।

चुनौतियों से परे मेरी आज़ादी  

आज मैं अकेले शहरों में सफर करती हूं। कभी ट्रेन, कभी फ्लाइट, कभी टैक्सी। यूपी, जयपुर, बेंगलुरु हर जगह अकेले जाती हूं। जो घर कभी मुझे अकेले गली के मोड़ तक जाने नहीं देता था, आज वही घर गर्व से मेरा सफर देखता है। माँ जब कहती हैं कि तू तो बिलकुल नहीं डरती, तो मुझे महसूस होता है कि यह सिर्फ मेरा नहीं, उनकी भी जीत है। पहले लोग मुझे ‘बेटे जैसी’ कहकर तारीफ करते थे। यह भी पितृसत्ता ही है कि लड़की की तारीफ़ के लिए भी या  सम्मान देने के लिए उसे ‘बेटे’ का खिताब दिया जाता है। लेकिन अब घर वाले गर्व से कहते हैं कि ये हमारी बेटी है। यह बदलाव मेरे लिए किसी जीत से कम नहीं, क्योंकि अब सम्मान मेरे होने से मिलता है, किसी और जैसा बनने से नहीं।आज मैं उन सभी नियमों के खिलाफ बोलती हूं, जिन्हें सहना मेरी आदत बना दी गई थी। चाहे वह घर के अंदर की मौन हिंसा हो, ऑफिस में होने वाली भेदभाव हो या समाज की वह सोच जो औरतों को सीमाओं में बांधकर रखती है।

मेरी जिंदगी मेरे फैसले और मेरी खुशी  

मेरी ज़िंदगी अब किसी और के फैसलों से नहीं चलती। मैं अपनी राह खुद तय करती हूं; किस शहर जाना है, किस फैसले पर टिकना है, किस आवाज़ के साथ खड़ा होना है। मेरा आत्मविश्वास अब किसी की ‘अनुमति’ का मोहताज नहीं। यह वही आत्मविश्वास है जो मुझसे हमेशा छीना गया था, और जिसे मैंने खुद वापस हासिल किया है।जब मैं अपने बचपन की उस डर से भरी लड़की को याद करती हूं, जो आवाज़ उठाने से पहले सौ बार सोचती थी। मुझे आज की अपनी ज़िंदगी किसी सपने जैसी लगती है। यह लड़की अब सफर करती है, कमाती है, बोलती है, लिखती है, और सबसे ज़रूरी खुद को महत्व देती है।

मेरे लिए फेमिनिस्ट जॉय सिर्फ अकेले घूम लेने या पैसे कमाने भर का मामला नहीं है। यह उससे कहीं बड़ा है। यह उस पूरे ढांचे के खिलाफ़ मेरी जीत है जिसने मेरे सपनों को कभी वैल्यू नहीं दी।

मेरी माँ ने मुझे हमेशा यही सीख दी कि औरत चाहे जितनी दबाई जाए, उसके भीतर हमेशा ताकत और उम्मीद बनी रहती है। इन्हीं दो चीज़ों ने मुझे वहां पहुंचाया है, जहां पहुंचने की इजाज़त मुझे कभी नहीं दी गई थी। मेरे लिए फेमिनिस्ट जॉय सिर्फ अकेले घूम लेने या पैसे कमाने भर का मामला नहीं है। यह उससे कहीं बड़ा है। यह उस पूरे ढांचे के खिलाफ़ मेरी जीत है जिसने मेरे सपनों को कभी वैल्यू नहीं दी। यह मेरी आवाज़ का वापस मिलना है, मेरी पहचान का खुद के नाम पर खड़ा होना है।आज मेरी खुशी, मेरा साहस, मेरी पहचान; सब मैंने खुद गढ़ा है। अपनी जिंदगी को अपने हिसाब से जीने की आज़ादी और अपना नाम ही मेरा फेमिनिस्ट जॉय है।

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