इंटरसेक्शनल औरत कोई ‘चीज़’ नहीं इंसान है, जिसके लिए हमें ‘अपनी सोच’ पर काम करना होगा।

औरत कोई ‘चीज़’ नहीं इंसान है, जिसके लिए हमें ‘अपनी सोच’ पर काम करना होगा।

बाज़ार ने औरत को वस्तु की तरह चित्रित किया गया, जिसमें महिलाओं को 'इंसान' की बजाय एक 'वस्तु' की तरह दिखाया जाता है।

हमारे समाज में बदलाव के अलावा कुछ भी स्थायी नहीं होता। इसी बदलाव के चलते आज एक औरत को पुरुषों की ही भांति शिक्षा लेते, नौकरी पर जाते और व्यापार जगत में अपनी जगह बनाते हुए देखते हैं। हालांकि समानता पाने के इस सफर में बहुत सी जगह महिलाओं को आज भी बहुत ख़ास सफलता नहीं मिली है, पर धीरे-धीरे लोग अब स्त्रियों से जुड़े मुद्दो पर मुखर हो रहें हैं। इन्हीं मुद्दों में एक प्रमुख विषय है –  महिलाओं का अपमानजनक निरूपण या उन्हें किसी वस्तु की तरह चित्रित करना।

हमारे इस विकासशील जगत में, जहां महिला सशक्तिकरण की बातें होतीं हैं, वहीं जमीनी हकीकत अक्सर यह देखने के लिए मिलती है कि विश्व का एक बहुत बड़ा भाग आज भी एक औरत को किसी निर्जीव वस्तु, मूक प्राणी या विलास के साधन से ज्यादा नहीं समझता। हम इसबात को उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। अक्सर कहा जाता है कि ‘लड़कियां घर की तिजोरी की तरह होती हैं।’ अगर कभी अकेली हों तो खुली तिजोरी बन जाती हैं, इसलिए उनकी निगरानी करते रहनी चाहिए। इसके अलावा, हमनें अनेकों बार लोगो को यह कहते हुए सुना होगा कि ‘औरत तो गऊ होती है, एकदम भोली, जिसे जैसा कहो वैसा ही करती है।’ पर क्या सच में इन बातों का कोई आधार है? क्या औरत को एक खुली या बन्द तिज़ोरी जैसी वस्तु बनाकर हम उसकी स्वतंत्रता पर सवाल तो नहीं खड़े कर देते? या गाय से जोड़कर उसे भोला, सहनशील या मूक बनने के लिए तो नहीं कहा जाता होगा? इन सब बातो का प्रभाव हमारे समाज पर बहुत गहरा पड़ता है। लोग नारी को सच में किसी वस्तु की तरह लेते हैं। जिसपर वो अपना निरंकुश अधिकार स्थापित कर सके, जो अपनी बात या विचारों को लेकर मूक रहे या जो किसी को खुश रखने और मोहित करने का साधन बने।

जियानी वर्सेस की कहानी

जियानी वर्सेस एक फैशन डिजाइनर थें। जिन्होंने नब्बे के दशक में ऐसी पोशाक बनाने का सोचा जिसमें एक औरत सशक्त, हीरो और पुरुषों से प्रबल लगे। उन्होंने यह पोशाक चमड़े से तैयार की और वोग के 100 साल पूरे होने पर उनकी बहन डोनातेला वर्सेस ने उस पोशाक को पहना। सबने उस पोशाक की तारीफ की, क्रिटिक्स से उसे अच्छी रेटिंग भी मिली पर वो पोशाक बाज़ार में अपना जादू नहीं बिखेर पाई। लोगो ने कहा कि ऐसे वस्त्र महिलाओ पर फबते नहीं हैं। इस घटना के बाद कुछ ऐसे प्रश्न सामने आए, कि जब फिल्मों के अंदर अभिनेत्रियों ने छोटे कपड़े पहनें तब उनकी फिल्म हिट हुई। पर जहां बात वैसे वस्त्रों को असल ज़िन्दगी में अपनाने की आयी, वहीं लोग पीछे हट गए। क्या लोग उन वस्त्रों में नारी के मोहक स्वरूप को ही अपनाना चाहते थे और जब वैसे ही वस्त्रों में उसका प्रबल रूप सामने आया, तब लोगो ने उसे स्वीकार नहीं किया? क्योंकि शायद उसके प्रबल अस्तित्व से लोगों को अपनी रूढ़िवादी सत्ता के गिरने का भय था। शायद वो आगे बढ़कर खुद को वस्तु की तरह इस्तेमाल किए जाने की प्रथा पर विराम लगा देती।

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ये कोई नई बात नही है

महिलाओं का अपमानजनक निरूपण या वस्तु के समान चित्रण करना कोई नई बात नहीं है। इसका एक अच्छा खासा इतिहास है, जो हमें फिल्म जगत की ओर ले जाता है। क्या आपको नब्बे के दशक की फिल्मों में अभिनेत्री की ड्रेस याद हैं? वो कपड़े शरीर से इतने चिपके हुए होते थे कि सामान्य दिनचर्या में उन्हें पहनने पर सांस लेना भी मुश्किल हो सकता है। पर उस समय से ही फिल्मों में एक अभिनेत्री की शारीरिक बनावट को ज्यादा से ज्यादा दर्शाने की कोशिश होती थी, ताकि लोगो को फिल्म में मसाला मिल सके। जितना उन फिल्मों में अभिनेत्री मटक कर चलती थीं, क्या असलियत में भी कोई लड़की इतना मटक कर चलती हैं?

मदर इंडिया जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो हमें पता चलता है कि नारी का स्वरूप या तो साड़ियों में लिपटी आज्ञाकारी पत्नी या कोई फटी पुरानी साड़ी पहने बेबस मां या शरीर से चिपके हुए कपड़ों में बार डांसर, जैसे पात्रो में सिमटा हुआ था। क्या आपको सत्यम शिवम् सुंदरम फिल्म याद है? उस फिल्म के अंदर ज़ीनत अमान को जिस तरह की पोशाकें मंदिर के सीन में पहनने के लिए दी गई, क्या असल में भी गांव की औरतें वैसे वस्त्र पहनकर बाहर निकलती हैं? इन फिल्मों में वो दिखता था, जो बाज़ार में बिकता था।

बाज़ार में बेचने के लिए औरत को वस्तु की तरह चित्रित किया गया। एक ओर लोग अपने घर की स्त्रियों को घूंघट में रहना सिखाते थे और दूसरी ओर महिलाओं का अपमानजनक निरूपण करने वाली फिल्में हिट हो रहीं थीं। यह बात बहुत विचित्र सच्चाई है पर इन फिल्मों को हिट करने वाले वही आदर्शवादी लोग थे, जो अपने घर की बहू, बेटियों के सामने अभिनेत्रियों के कम कपड़े पहनने की बुराई करते थे और फिर हॉल में जाकर उन अभिनेत्रियों की फ़िल्मों को हिट बना देते थे। इसके अलावा भी अनेको उदाहरण हैं, जिनको यदि सोचा और समझा जाए तो पता चलता है कि महिलाओं की काबिल-ए-ऐतराज़ तशकील की जड़े इतनी गहरी क्यों हैं।

बाज़ार ने औरत को वस्तु की तरह चित्रित किया गया, जिसमें महिलाओं को ‘इंसान’ की बजाय एक ‘वस्तु’ की तरह दिखाया जाता है।

आज की बात करें तो हम देश में क्वारांटाइन लगने से कुछ समय पहले की घटना को लेते हैं। राजधानी दिल्ली के राजौरी गार्डन में स्थित एक बार ने एक औरत के शरीर के आकार की, बिकनी पहने हुई बोतल बनाई, जिसमें वो अपने ग्राहको को अल्कोहल देते थे। जब उन्होंने अपनी नई बोतल के चित्र इंस्टाग्राम पर साझा किए तब बहुत सी महिलाओं ने उसका विरोध किया। उनमें से कुछ महिलाओ का कहना था कि उस बार को अपनी नाराज़गी जताने पर भी उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उसके बाद बार की तरफ से एक मैसेज आया कि, ‘हम पुरुषों के शरीर के आकर वाली बोतले भी बनातें हैं। और किसी भी महिला को ठेस पहुंचाने का हमारा कोई इरादा नहीं था।’ जबकि ग्राहक महिला का यह भी दावा रहा कि बार ने अपनी गलती की कोई माफ़ी नहीं मांगी और न ही वो पुरुषों के आकार की कोई बोतल बनातें हैं। तीन से चार दिन के बाद बार ने इंस्टाग्राम से अपनी उस पोस्ट को हटा दिया था। पर बोतल का उत्पादन बन्द हुआ या नहीं, इस विषय में अभी कोई सूचना नहीं है।

अब बात करतें हैं, टीवी पर आने वाले विज्ञापनों की जहां लड़के के डियो लगाते ही लड़कियां उसकी तरफ खींची चलीं जाती है। या स्लाइस के उस एड की जिसमें कटरीना कैफ बड़े कामुक तरीके से आम का रस बोतल से पीती हैं। बॉलीवुड ने अपने इतिहास को कायम रखने में कोई कमी नहीं की है। आज भी फिल्मों के अंदर औरत को अधिकांश खूबसूरती बिखेरने के लिए लिया जाता है। एक तरफ जहां आमिर खान जैसे अभिनेता अपने अभिनय में निपुणता लाने के लिए खुद को महीनों तैयार करतें हैं, अपने पात्र में ढलने के लिए भाषाएं सीखते है।

लोगों के मन में अब नारी की ऐसी छवि बन चुकी है, जहां उसे अपनी पहचान को नए आयाम देने के लिए किसी भी पुरुष से ज्यादा मेहनत करनी ही पड़ती है। औरत के सशक्त रूप को अपनाना, जहां उसकी अपनी सोच है, लोगो के लिए आसान नहीं है। और ऐसा अनपढ़ या ग्रामीण स्तर पर ही नहीं, अपितु पढ़े लिखे लोगो के स्तर पर भी है।

आपके अनुसार क्या उचित है? क्या स्त्री को एक वस्तु बनाकर उसके गुणों को अनदेखा करना चाहिए? क्यों हमारी इंडस्ट्री में तापसी पन्नू जैसी और अभिनेत्रियां नहीं है? नारी की पहचान सिर्फ उसके शरीर से है? या क्या उसके शरीर को मार्केटिंग पॉलिसी बनाना सही है? ऐसे बहुत सारे सवाल इस मुद्दे के साथ आते हैं, जिनका जवाब सिर्फ तभी मिलेगा जब लोग अपनी सोच पर काम करना पसंद करेंगे। जब वो समाज में स्थापित पूर्व आयामों से आगे बढ़कर सोचने का प्रयास करेंगे, तब जाकर शायद इस समस्या का हल हो पाएगा।

और पढ़ें : आखिर आँकड़ों से बाहर क्यों है स्त्री-श्रम?


तस्वीर साभार : indianexpress

Comments:

  1. Dhananjay says:

    यथार्थ का वर्णन देखने को मिला।ऐसी शानदार लेखनी के लिए शुक्रिया।

  2. Vikas Tripathi says:

    Very nicely put.

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