इंटरसेक्शनल काले लोगों के लिए घृणा हमारे समाज की मानसिकता में है ।

काले लोगों के लिए घृणा हमारे समाज की मानसिकता में है ।

कुछ गोरे लोग जो यह कहते हैं ना कि उन्हें काले और गोरे से कोई फर्क नहीं पड़ता। दरअसल सबसे ज़ादा फर्क इन्हें ही पड़ता है।

हाल ही में, अमेरिका में फिर से एक काले व्यक्ति को गोरे लोगों ने मार डाला। यह सुनकर बिल्कुल भी हैरानी नहीं हुई, क्योंकि उस देश में तो क्या इस दुनिया में यह हज़ारों सालो से होता आया है और आगे भी होता रहेगा। नेल्सन मंडेला ने अपनी एक उम्र इसी भेदभाव को खत्म करने में लगा दी थी लेकिन उनके जाने के इतने साल बाद भी यह अब तक खत्म नहीं हो पाया है

जॉर्ज फ़्लायड तो शारीरिक मौत मरा है। अगर मैं बात करूं अपने आस-पास की, तो हम जैसे तमाम लोग ऐसी मानसिक मौत हर रोज़ मरा करते हैं, मगर अफसोस इस मृत्यु को कोई समझ नहीं पाता है। यह मौत पैदा हुए बच्चे को देखकर कहना कि बच्चा काला है से शुरू होती है और बच्चे के ये कहने कि आप मेरे स्कूल मत चलो क्योंकि आप काले हो तक जाती है। पैदा होने के कुछ वक़्त बाद ही हमें हमारे असली नाम से नहीं बल्कि, कलुआ, कल्लू, कालिया जैसे नामों से बुलाया जाता है। ऐसा नहीं है कि इसमें सिर्फ समाज का ही हाथ है इसमें हमारे माता-पिता की भी भागदारी है, क्योंकि समझ नहीं आता दिन में दस बार साबुन से मुंह धुलने से और महंगे-मंहगे क्रीम पाउडर लगा कर वे किसको और क्या साबित करना चाहते हैं?

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स्कूलों से लेकर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में है भेदभाव

यह सब समाज के इस स्तर पर किया जाता है कि गोरे बच्चों के अंदर भी यह आ जाता है कि वे अच्छे हैं और काले लोग बुरे हैं। स्कूल में ऐसा होता है कि मानो जैसे काला होकर हमने कितना बड़ा पाप कर दिया है। हमारी भावनाओं और प्रेम की किसी को कद्र नहीं होती और अगर उस प्रेम का इस्तेमाल करने वाला हमें कुछ वक़्त के लिए अपना भी ले, तो वो अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से उसे इस तरह छुपाते हैं जैसे मानो उन्हें कोई अछूत की बीमारी लग गई हो।

कुछ गोरे लोग जो यह कहते हैं ना कि उन्हें काले और गोरे से कोई फर्क नहीं पड़ता। दरअसल सबसे ज़ादा फर्क इन्हें ही पड़ता है।

इस दुनिया का एक सबसे बड़ा सत्य यह है कि कुछ गोरे लोग जो यह कहते हैं ना कि उन्हें काले और गोरे से कोई फर्क नहीं पड़ता। दरअसल सबसे ज़ादा फर्क इन्हें ही पड़ता है ये लोग हमारे साथ फोटो नहीं खिचवाते हैं। अगर कहीं साथ में कोई फोटो खिंच जाए तो सोशल मीडिया पर लगाने से पहले फोटो में इतने फिल्टर लगाते हैं कि किसी तरह बस हम इनके बराबर दिखने लगे।

जैसे-तैसे इस सब से गुज़र कर खुद को समझा भुजा कर रखते हैं, तो फिर दौर आता है विवाह का। यहां आप अपने काले रंग को दो चीजों से छुपा सकते हैं या तो आपके पास सरकारी नौकरी हो या फिर देने के लिए लाखों का दहेज। इसके बावजूद भी कई सालों तक आपके कालेपन का एहसास आपको कराया जाता है। दुनिया तो गोल है ही यदि हमारे बच्चे गोरे हुए तो वो वे हमारा मज़ाक उड़ाएंगे और अगर वे काले हुए तो वो भी काले लोगों की तरह लोगो के लिए मज़ाक बनकर रह जाएंगे।

मेरा इन मज़ाक उड़ाने वालों से और भेदभाव करने वालो से सिर्फ एक सवाल है जब एक सिक्के के दो पहलू होते है जिनके रंग रूप अलग-अलग होते हैं, जब उस सिक्के की कीमत कम नहीं होती, तो फिर हम काले लोगों की कीमत कैसे कम हो जाती है ? जब दिन की भाग दौड़ के बाद आराम का मौका काली रात में ही मिलता है जब उस काली रात का महत्व कम नहीं होता तो फिर हम काले लोगों का महत्व कम कैसे हो जाता है?

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यह लेख आज़ाद रेहान ने लिखा है, जिसे इससे पहले आदिवासी लाइव मैटर में प्रकाशित किया जा चुका है।

तस्वीर साभार : news18

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