उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले में बीस वर्षीय दलित जाति की लड़की के साथ कथित तौर पर तथाकथित ऊंची जाति के लोगों ने ‘सामूहिक बलात्कार’ किया, उसके शरीर को बुरी तरह चोट पहुंचाई गई और उसकी जीभ तक काट दी गई। पीड़िता खेत में बिना कपड़ों के खून से लथपथ मिली, तब उसे पहले अलीगढ़ में और फिर बेहतर इलाज के लिए दिल्ली के सफ़दरजंग अस्पताल में ले जाया गया जहां उसकी मौत हो गई। मौत के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने आनन-फ़ानन में पीड़िता के परिवार की ग़ैर-मौजूदगी में उसका दाह-संस्कार कर दिया और साथ ही, मौत के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस की तरफ़ से ये बयान आया कि पीड़िता के साथ बलात्कार नहीं हुआ। इसके बाद ये घटना मीडिया और सोशल मीडिया की सुर्ख़ियां बन गई और हर तरफ़ इंसाफ़ की मांग उठने लगी। जब मीडिया और विपक्षी पार्टी के नेता पीड़िता से मिलने जाने लगे तो गांव को छावनी में तब्दील कर उन्हें रास्ते में ही रोक दिया गया।
इस घटना की जितनी निंदा की जाए कम है। हमारे देश में हर दिन, हर मिनट महिलाएँ यौन हिंसा का शिकार होती है। कहने को तो हमारे समाज में औरत की अपनी कोई जाति नहीं है पर हाँ पितृसत्ता की बनायी जाति व्यवस्था में वे जाति की दोहरी मार ज़रूर झेलती है और जाति की ये मार हाथरस केस में जानलेवा साबित हुई। इस घटना के बाद कुछ दलित समाज के लोगों ने सोशल मीडिया पर पीड़िता को संबोधित करते हुए ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल किया तो ‘जाति’ पर एक़बार फिर बहस तेज हो गयी। तथाकथित ऊँची जाति के लोगों को ये बात कुछ ज़्यादा ही खटक रही है, उनका तर्क है कि पीड़िता को पीड़िता के रूप में देखा जाना चाहिए, न की उसकी जाति का उल्लेख किया जाना चाहिए।
अब सवाल है कि आख़िर क्यों न पीड़िता की जाति और उसके वर्ग का उल्लेख हो। हमें नहीं भूलना चाहिए कि बलात्कार के पीछे विचार ही अपने विशेषाधिकार की सत्ता का क्रूर प्रदर्शन करना है, वो विशेषाधिकार जो उन्हें अपनी विशेष जाति, धर्म या वर्ग से मिला है। ऐसे में महिला की जाति और उसका वर्ग ये दोनों ही इस सत्ता के दंश को और भी गहरा, गंभीर और नासूर बनाते है। हम लाख कहें कि अब कोई जातिगत भेदभाव नहीं होता या आप जाति को नहीं मानते तो याद रखिए कि ऐसा कह पाना भी ये आपका, आपकी जाति का और आपके वर्ग का विशेषाधिकार है। क्योंकि वो बच्चे जिन्हें बचपन से ही उन्हें उनके नाम की बजाय उनकी जाति से जाना जाता है। उनके साथ दोस्ती भी उनकी जाति पूछकर की जाती है। उनके लिए घरों में लोग अलग बर्तन रखते है और हर दस्तावेज से लेकर, पढ़ाई और नौकरी का अवसर भी उन्हें जाति पूछकर दिया जाता है वे न चाहते हुए भी जातिगत भेदभाव और हिंसा को झेलते है। बाक़ी जाति को मानना या ना मानने का विकल्प उनके पास है ही नहीं।
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उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िले से थोड़ी दूरी पर निशा (बदला हुआ नाम) का गांव था। वो गौंड जाति से थी। गोरी रंगत और भरे-पूरी शरीर वाली निशा को अक्सर उसके घर और आस-पास वाले कहते, ये तो लगती ही नहीं अपनी जाति की है। पढ़ाई में तेज निशा ने जब पाँचवी के बाद प्राइवेट स्कूल में पढ़ाई शुरू की तो दूसरी जाति के बच्चों के साथ भी पढ़ने का मौक़ा मिला। लेकिन गांव में जाति की जड़ बहुत गहरी थी, इसलिए ऊँची जाति के लोगों को पढ़ाई में तेज निशा खटकने लगी। वे अक्सर कहते, जंगलों में लकड़ी चुनने वाली कितना ही पढ़ लेगी। वहीं स्कूल के लड़के उसे परेशान लगे। बारहवीं में निशा के साथ ऊँची जाति के लड़कों ने सामूहिक बलात्कार करने की कोशिश की, लेकिन निशा जैसे-तैसे जान बचाकर भागी। उसके बाद उसे बनारस अपने चाचा के यहाँ पढ़ने भेजा गया और आज निशा एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर है।
दलित पीड़िता को बिना परिवार की मौजूदगी में आनन-फ़ानन जलाकर मामले को रफ़ा-दफ़ा किया गया और यही मौजूदा सत्ता का घिनौना चरित्र है।
ऐसा अनुभव हर उस जाति की महिला को झेलना पड़ता है वो तथाकथित ऊँची जाति में शामिल नहीं है। ये जाति की जंग ही है जिसपर हर सत्ता अपने चरित्र की आज़माइश करती है। हाथरस की घटना में भी यही हुआ। वरना पुलिस कब से अपराधी का पता लगाने और क़ानूनी कार्यवाई करने की बजाय पीड़िता का दाह-संस्कार करने लगी? उत्तर प्रदेश के कितने बलात्कार या हत्या के मामले में पीड़ित की मौत के बाद उसके गांव को छावनी बनाया गया?
यों तो हर सरकार किसी न किसी महिला हिंसा की घटना को आधार बनाकर नयी सरकार सत्ता पर क़ाबिज़ होती है और महिला सुरक्षा को अपने मैनिफ़ेस्टो में शामिल करती है। पर दूसरी तरफ़ इसे सिरे से दरकिनार कर देती है। लेकिन मौजूदा समय में हिंदुत्व के एजेंडे के साथ चलने वाली सरकार जातिगत भेद को बढ़ाने और उसपर अपनी रोटी सेंकने का काम तेज़ी से कर रही है। इसी तर्ज़ पर दलित पीड़िता को बिना परिवार की मौजूदगी में आनन-फ़ानन जलाकर मामले को रफ़ा-दफ़ा किया गया और यही मौजूदा सत्ता का घिनौना चरित्र है। अब एक-एक करके सरकारी मुलाजिमों से इस केस के हर पहलू को निराधार बताकर लीपापोती करने का ड्राफ़्ट तैयार किया जा रहा है और वास्तव में यही इस सरकार का मुख्य आधार है, जो जातिगत और धार्मिक भेदभाव और हिंसा की जड़ों को मज़बूत और फैलाने का काम कर रहा है।
हमारे देश में हर मिनट कोई न कोई महिला यौन हिंसा का शिकार होती है और निर्भया जैसे केस में भी न्याय मिलने में सालों का समय लगता है, ऐसे में हाथरस की ये घटना सत्ता के उस घिनौने चरित्र को दिखाती है, जिसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की ज़रूरत है, क्योंकि इसमें पीड़िता के साथ ऊँची जाति के लोगों ने बलात्कार किया और सत्ता ने उसकी लाश के साथ-साथ उसके परिवार व उनके अधिकारों का भी तिरस्कार किया है और ऐसा सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वो ‘दलित’ जाति से थी और सत्ता की डोर तथाकथित ऊँची जाति ने थाम रखी गयी है। बाक़ी जब सत्ता का मद चरम पर तो हो जनता की हर बात सिरे से निराधार बतायी जा सकती है।
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तस्वीर साभार : thehindu