इतिहास ज़ोहरा सहगल : एक बेबाक अदाकारा |#IndianWomenInHistory

ज़ोहरा सहगल : एक बेबाक अदाकारा |#IndianWomenInHistory

उनका असली नाम था साहिबज़ादी ज़ोहरा बेगम मुमताज़ उल्लाह खान। दुनिया उन्हें ज़ोहरा सहगल के नाम से जानती रही। 102 साल की लंबी ज़िन्दगी में ज़ोहरा ने अभिनय और नृत्य की विभिन्न शैलियों की शिक्षा ली। साल 2013 में हिंदी सिनेमा ने अपना सौवां बरस देखा, ज़ोहरा भारतीय सिनेमा से भी एक साल बड़ी थीं। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में 27 अप्रैल 1912 में उनका जन्म एक पठान अफ़सर मोहम्मद मुमताजुल्लाह खान के घर हुआ था। उनका नाम उनकी मां नातिक़ बेग़म ने रखा था। ‘ज़ोहरा’ , इस शब्द’ का मतलब होता है हुनरमंद। उन्होंने अपना जीवन अपने नाम को सफ़ल करते हुए जिया। जोहरा के करिश्माई माने जाने की एक सबसे महत्वपूर्ण वजह यह थी है कि 102 साल की उमर में जब उन्होंने दुनिया की मुश्किलों को अलविदा कहा तब भी वे उतनी ही खुशदिल और जीवंत थी, जितनी अपने 80 बरस के करियर में रही। 

ज़ोहरा की मां तब ही चल बसी जब वे छोटी थी। मां ने अपने वसीयत में लिख दिया था कि उनके हिस्से के पैसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में ख़र्च किए जाएं, ख़ासकर बेटियों की पढ़ाई में। मां की आख़री इच्छा थी अपनी बेटी को ग्रेजुएट बनाना। आज़ादी के पहले के हिंदुस्तान में ऐसा होना एक बड़ी बात थी। तब बेटियों की पढ़ाई या पढ़ने के लिए घर से बाहर भेजना आम बात नहीं थी। इसके बाद ज़ोहरा का पहुंची लौहर के क्वीन्स मैरी स्कूल में। वहां ज्यादातर अमीर घरों और राजघरानों की लड़कियां पढ़ती थी। स्कूली शिक्षा के दौरान खेलकूद के साथ साथ वे नाटकों का हिस्सा बनती रही। उनके मन में वहीं से अभिनय का बीज पड़ चुका था। साल 1929 में ज़ोहरा ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। वह तब महज़ सत्रह साल की थी। उनके मामा विदेश से पढ़कर लौटे थे। उनके अनुसार ज़ोहरा को भारत की पहली महिला पायलट बनने की तरफ़ बढ़ना चाहिए था। इसी बीच उनके पिता ने उन्हें इंग्लैंड जाकर अभिनय सीखने की इजाज़त दे दी। राज्यसभा टीवी को दिए एक इंटरव्यू में ज़ोहरा की बेटी किरण सहगल कहती हैं, “पहले वे पायलट बनना चाहती थीं, कहती थीं फिर उन्हें अभिनय सीखना था, पता नहीं क्या हुआ, फिर एक्टिंग।”

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फैज़ की नज़्म पढ़तीं ज़ोहरा सहगल.

जर्मन भाषा सीखते हुए ज़ोहरा सहगल ने डांस स्कूल में दाख़िला लिया। कॉलेज की पढ़ाई और उम्र के 25 बरस पूरी कर चुकी जोहरा सहगल के सिर पर इजाडोरा डंकन के नृत्य का जादू चढ़ चुका था। लेकिन एक रुढ़िवादी मुस्लिम परिवार, तिस पर वह रामपुर के शाही घरानों में से एक हो, कैसे अपने खानदान की लड़की को नाचने-गाने की इज़ाज़त दे देता। नाचने-गाने का काम बहुत अच्छा नहीं माना जाता था। लेकिन ज़ोहरा अपने तरह की एक कमाल औरत थी। वे मैरी विगमैन बैले स्कूल में दाख़िला पाने वाली पहली भारतीय महिला बनी। इस समय को याद करते हुए वह कहती हैं, “मेरा सपना पूरा हो रहा था। घर की रोकटोक से दूर थी। रहने, खाने, स्कूल की फीस, यहां तक कि मनोरंजन के लिए पैसे भरपूर पैसा था।” इस दौरान वे खूब घूमी। वे हंगरी, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, इटली, नॉर्वे, स्वटीज़रलैंड और अन्य देशों में घूमती रही। इसी दौरान उन्हें बैले के बहाने उदय शंकर से मिलने का अवसर मिला। नर्तक पंडित उदयशंकर, प्रसिद्ध सितारवादक पंडित रविशंकर के बड़े भाई थे। पंडित उदयशंकर की एक मंडली थी जिसके साथ वे घूम-घूमकर विश्व भर में नृत्य के कार्यक्रम किया करते थे। उन्हें देखने के बाद ज़ोहरा के मन से पश्चिमी नाट्य शास्त्र का लगाव कम होने लगा। आगे चलकर पंडित उदयशंकर से बक़ायदा प्रशिक्षण लेने के बाद उन्होंने जापान, सिंगापुर, रंगून और दुनियाभर के तमाम देशों में प्रस्तुति दी। उन्हें विदेशों में बहुत लोकप्रियता हासिल हुई। 1935 में कलकत्ता के न्यू एम्पायर थिअटर में उन्होंने अपने जीवन का पहला नृत्य प्रदर्शन किया था। जोहरा सहगल बतौर कलाकार प्रसिद्ध हो चुकी थी।

तस्वीर साभार, बॉलीवुड ट्ट्रेंड्स

साल 1939 में उदयशंकर ने अलीगढ़ में ‘उदय शंकर सांस्कृतिक केंद्र’ खोला था जहां जोहरा सहगल युवाओं को नृत्य सिखाती थी। वहां उनकी मुलाकात इंदौर से आए कामेश्वर सहगल से हुई। जब कामेश्वर ने शादी का प्रस्ताव उनके सामने रखा तो बाते हुई। पहला वह हिन्दू थे, दूसरा वे उनसे आठ साल छोटे थे  इस बारे में ज़ोहरा कहती हैं, “प्रेम में धर्म, उम्र मायने नहीं रखता। हम प्रेम करते थे और हमने शादी कर ली।” आगे कामेश्वर सहगल के साथ उन्होंने युवाओं को नृत्य की तालीम देने के लिए लाहौर में ‘जोरेश डांस इंस्टिट्यूट’ की स्थापना भी की। जोरेश डांस इंस्टिट्यूट जल्दी ही बंद हो गया। जल्दी ही लगने लगा कि इंस्टीट्यूट चलाना तो दूर, लाहौर में जिंदा बचना मुश्किल हो जाएगा। साल भर की बच्ची किरण को लेकर दोनों बंबई भाग आए।

ज़ोहरा सहगल ने एक इंटरव्यू में कहा था, “जिंदगी मेरे साथ बहुत सख्त रही है और मैं जिंदगी के साथ।”

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दोनों को मुंबई में बसना पड़ा। मुंबई आकर जोहरा सहगल ‘इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा)’ का हिस्सा बन गई। मुंबई में उस समय थिएटर और सिनेमा साथ-साथ तरक्की कर रहे थे। ‘इप्टा’ के बाद जोहरा पृथ्वी थिएटर से भी जुड़ीं। पृथ्वीराज कपूर को गुरु मानकर जोहरा सहगल ने अभिनय में कदम रखा। साल 1946 में उन्होंने इप्टा की मदद से बनी चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ में अभिनय किया था। कान फिल्म महोत्सव में पुरस्कार जीतकर अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने वाली यह पहली भारतीय फिल्म थी।  इसके बाद जोहरा सहगल ने इप्टा और पृथ्वी थिएटर के साथ कई नाटक किए साथ ही कई हिंदी फिल्मों के लिए कोरियोग्राफी की। राज कपूर की फिल्म ‘आवारा’ का मशहूर स्वप्न गीत जोहरा सहगल का ही सजाया हुआ है। ज़ोहरा के पति कला विज्ञान में प्रतिभा रखते थे लेकिन उन्होंने कभी मुख्यधारा में सफलता नहीं पाई थी। वे अवसाद में रहने लगे थे। 1959 में वे दुनिया से चले गए, उनकी मौत आत्महत्या से हुई। एक साक्षात्कार के दौरान जब जोहरा से पति की आत्महत्या की वजह पूछी गई तो उन्होंने अपने चिर-परिचित जिन्दादिल अंदाज में जवाब दिया कि जो आदमी उनके जैसी लड़की से शादी करेगा वो आत्महत्या नहीं तो और क्या करेगा। 

ज़ोहरा सहगल पर बनाया गया गूगल डूडल

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उनके जाने के बाद ज़ोहरा लंदन चली गईं। उन्होंने ‘डॉक्टर हू’ और 1984 की ‘मिनिसरीज द ज्वेल इन द क्राउन’ जैसी ब्रिटिश टेलीविजन क्लासिक्स में दिखाई दीं। उन्होंने ‘बेंड इट लाइक बेकहम’ में भी अहम भूमिका निभाई। साल 1990 में जोहरा सहगल वापस भारत लौट आईं। फिल्मों, नाटकों और टीवी कार्यक्रमों में अभिनय करने के अलावा, उन्होंने कविता प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था। उनका पहला प्रदर्शन 1983 रविशंकर द्वारा आयोजित उदय शंकर के स्मारक पर था। उसके बाद, उन्हें कई निमंत्रण मिले, और उन्होंने ‘एन इवनिंग विद जोहरा’ के लिए पाकिस्तान में भी शो किए। उन्होंने छोटे पर्दे यानि टेलीविजन पर लंबी पारी खेली। उम्र के कई पड़ाव देख चुकीं इस फ़नकारा ने प्रसिद्ध फिल्में जैसे ‘चीनी कम’, ‘हम दिल दे चुके सनम’, ‘वीर ज़ारा’ में काम किया। आख़री बार वे 2007 में फ़िल्म ‘सावरिया’ में नज़र आई। 

फिल्म ‘वीर ज़ारा ‘ से , तस्वीर साभार ‘सत्याग्रह’

जोहरा सहगल को 1998 में पद्मश्री, 2001 में कालीदास सम्मान, 2004 में संगीत नाटक अकादमी सम्मान मिले। संगीत नाटक अकादमी ने उन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड के तौर पर अपनी फेलोशिप भी दी। 2010 में उन्हें देश के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से नवाज़ा गया। 10 जुलाई, 2014 में जीवन के 102 साल जी चुकीं ज़ोहरा सहगल ने आख़री सांस ली। अपने अंतिम समय में वे दिल्ली में थीं। ज़ोहरा सहगल ने एक इंटरव्यू में कहा था, “जिंदगी मेरे साथ बहुत सख्त रही है और मैं जिंदगी के साथ।” ज़ोहरा सहगल बहुमुखी प्रतिभा की धनी और जिंदादिली से ज़िन्दगी के सभी दौर को जीने वाली एक सुंदर व्यक्तित्व थी। 

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