पिछले दिनों दिल्ली सरकार से प्रस्तावित एक योजना से समाज में एक नई बहस शुरू हो गयी है| दिल्ली सरकार द्वारा लिया गया फैसला जिसमें औरतों को मेट्रो और बस में मुफ्त यात्रा प्रदान करने की बात की गई है, उसका कुछ लोग विरोध कर रहें हैं। वे यह कह रहे हैं कि इससे समाज में मुफ्तखोरी बढ़ेगी। दिलचस्प है कि इसतरह की कुछ सुविधायें चुनाव से पूर्व आम बजट में देने की सोची गयी थी तब बहुतों को सरकार का कदम क्रांतिकारी लग रहा था। जाहिर सी बात है कि इस वैचारिक पक्षपात के पीछे उनकी राजनीतिक मजबूरी रही हो। वे अपनी राजनीति करे, लेकिन इस बहाने कुछ बिन्दुओं पर विचार किया जा सकता है।
क्या हमने परिवार की देखभाल करती औरतों को उनके 24 घंटे के श्रम के एवज में कोई मूल्य चुकाने की बात या पारिश्रमिक देनी की बात सोची है? क्या घर पर रहने वाली स्त्रियों को उनके किये हुए परिश्रम के अनुसार उनकी आय निर्धारित करने के विषय में सोचा गया है? इस दिशा में न तो राजनीतिक तौर पर और न ही सांस्कृतिक तौर पर हमने कभी विचार किया है| ऐसा इसलिए कि हमने इसे सामाजिक संरचना के सहज और स्वाभाविक रूप के तौर पर लिया है| स्त्री की मुख्य भूमिका परिवार के दायरे और घर की चार दीवारों के भीतर ही महदूद रहे तो हम सहज महसूस करते हैं| ऐसे में अगर कोई सरकार या राजनीतिक वर्ग स्त्रियों की बाहरी दुनिया को सहज बनाये या बनाने की कोशिश करे तो जाहिर है ऐसे में हमारे सहज बोध को चुनौती मिलेगी| इसलिए जो विरोध हो रहा है तो उससे अगर एक बड़े दायरे का सहज बोध प्रभावित हो रहा है या उन्हें इस निर्णय से असहजता महसूस हो रही है तो इसे समझा जा सकता है|
स्त्री अगर घर के साथ-साथ बाहर भी नौकरी करने जाती है तो उसके ऊपर से घर के काम का बोझ कुछ कम नहीं किया जाता है| बल्कि उससे उम्मीद की जाती है कि वह घर में अपनी केंद्रीय भूमिका का वहन करने के साथ-साथ बाहर नौकरी भी करती रहे| इसे उसकी आधुनिकता का, उसके पढ़े लिखे सभ्य और संस्कारित होने का प्रमाण माना जाएगा| समाज इसे सहजता और आधुनिकता का विकास मानता है|
ऐसे में अगर कोई निर्णय उसके बाहर की दुनिया को आसान कर दे तो यह खतरनाक साबित हो सकता है| संभव है कि वह घर में अपनी केन्द्रीय भूमिका से इंकार कर दे और एक तथाकथित संतुलित और समरस समाज का ढांचा बिखरने लग जाए| यह एक बड़ा डर है जो समाज में स्त्रियों की बदलती भूमिका को लेकर समाज के तथाकथित ठेकेदारों को महसूस होती रहती है|
स्त्री अगर घर के साथ-साथ बाहर भी नौकरी करने जाती है तो उसके ऊपर से घर के काम का बोझ कुछ कम नहीं किया जाता है|
मेट्रो और बसों में स्त्रियों को यात्रा किराये में दी जाने वाली संभावित छूट का विरोध करने वालों ने गैस सिलिंडर में दी जाने वाली छूट पर इस तरह आपत्ति नहीं की थी क्योंकि वह समाज की स्वाभाविकता के अनुरूप ही थी| इसमें उन्हें कुछ भी विचित्र नहीं लगा था| क्योंकि उसके पीछे सोच यह रही होगी कि खाना बनाना लड़कियों का धर्म है, जिसके तहत साफ़ और धुआं रहित गैस की सुविधा देना एक बेहतर समाज की दिशा में उठाया गया कदम है| लेकिन सड़कों पर निकलना लड़कियों का स्वाभाविक हक नहीं, इसलिए ये सुविधा देना उनपर दया दिखाना हुआ|
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आप लड़कियों को घर में ही रखना चाहते है| उन्हें वही सुविधा देना चाहते है जिनसे आपके बने समाज की सत्ता की चूले हिले नहीं| लड़कियों का बाहर निकलना अपने आप में एक सत्ता से टकराहट है, फिर उसी लड़की का आप ही की बनायीं सड़कों पर बिना किसी मूल्य चुकाए निकलना तो एक तरह से बगावत की शुरुआत मानी जाएगी|
बात को एक अलग तरह से भी देखा जा सकता है| कितनी लड़कियां, औरतें हमारे अपने समाज में बाहर उतने ही सुरक्षा से घूम सकती है, जितनी आसानी से पुरुष निकल सकता है| जवाब हम सभी के पास है| पर अगर मेट्रो और बस की सुविधा उनके पास होगी तो वो भी अपना पारिवारिक दायित्व निभाते हुए कुछ पल अपनी चारो तरफ की दुनिया को देखने के लिए निकाल सकती है| जो आज तक नहीं निकली, वो भी एक कदम घर के बाहर रख सकती है, बिना इस भय के कि घर जाकर पति को पूरा हिसाब देना होगा|
सड़कों पर निकलना लड़कियों का स्वाभाविक हक नहीं, इसलिए ये सुविधा देना उनपर दया दिखाना हुआ|
अब एक नई पहल से उन्ही स्त्रियों को अगर कुछ सुविधाएं समाज सब्सीडी के तौर पर दे रहा है तो इसका तो स्वागत होना चाहिए। आपने स्त्री से कम या फ्री में इतने काम करा लिए है कि बतौर समाज के सदस्य होने के नाते अब उन्ही श्रीमिकों को उनके पसीने और मेहनत का कुछ हिस्सा सब्सिडी के उपहार के रूप में देना क्या गलत है। और अगर गलत तो हम भी यूरोप के उस सोच का हिस्सा बन जाएंगे जब वहां industrial revolution के तहत ज्यादा से ज्यादा औरतों और बच्चों से काम करवाया जाता था क्योंकि वो सस्ते श्रमिक थे। हम भी कुछ ऐसा ही करते आ रहे है, अब मौका है अपनी कुछ गलतियों को सुधारने का। अगर स्त्रियों को कोई ऐसी सुविधा मिले जिससे वे पुरुषों के बगैर अपने दम पर इस जटिल दुनिया का स्वाभाविक और सहज अंग बन सके तो जाहिर है ऐसे में पुरुषों की सहजता बाधित होगी| हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसतरह के निर्णय जाने अनजाने समाज में गुणात्मक परिवर्तन ला देते हैं और ऐसे में समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग की सहजता या यथास्थिति टूटती है तो उनकी घबराहट और बेचैनी को समझा जाना चाहिए आखिर सदियों की पूंछ के अवशेष चेतना से इतनी जल्दी गायब नहीं होते|
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यह लेख रूबल मित्तल ने लिखा है|
तस्वीर साभार : dailyhunt