इंटरसेक्शनलजेंडर पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं हर दिन संघर्ष करती हैं

पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं हर दिन संघर्ष करती हैं

रोज़मर्रा की जिंदगी में पितृसत्ता का अनुभव महिलाओं को सोचने का समय भी नहीं देता कि उनके साथ न केवल असमान व्‍यवहार हो रहा बल्‍कि अन्‍याय भी हो रहा है। जिसकी शुरुआत जन्म के समय से हो जाती है या यूं कहें कि गर्भ के समय से शुरू हो जाती है

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में मानसिकता को इस प्रकार पोषित किया जाता है कि लगता ही नहीं है कि कुछ गलत हो रहा है। तमाम तरह के उत्पीड़नों को कुदरती या प्राकृतिक कहकर जायज़ ठहरा दिया जाता है। प्राकृतिक कहकर उसे कभी न बदलने वाला नियम बना दिया जाता है। स्त्री को स्‍वतंत्र इंसान न समझकर पुरूष का गुलाम माना जाता है, इसलिए स्त्री को पुरूष जैसा मान नहीं दिया जाता है। मान-अपमान का प्रश्न समाज में सभी के लिए समान महत्व नहीं रखता। स्त्री जब समाज में अपमानित महसूस करती है तो उसके अपमान को सामान्‍य व्‍यवहार बताकर बार-बार दोहराया जाता है। अगर इस तरह के व्‍यवहार का स्‍त्री विरोध करें भी तो इससे परिवार टूट जाएगा, समाज की व्यवस्था छिन-भिन हो जाएगी कहकर चुप करा दिया जाता है, यही सोचकर महिलाओं को इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत केवल सहन करना सिखाया जाता है। 

पितृसत्तात्मक व्यवस्था वर्तमान में कोई नई चीज नहीं है। यह तो सदियों से चली आ रही है, वैदिक, उत्तरवैदिक, औपनिवैशिक भारत या आधुनिक और समकालीन समय में भी भारत में इसको स्पष्ट देखा जा सकता है। किस प्रकार महिलाओं से संबंधित फैसले पुरूष ही लेते हैं और महिलाओं को कहीं भी बड़े निर्णय में शामिल नहीं किया जाता। उनकी सलाह नहीं ली जाती, उन्हें मात्र प्रजनन और घरेलू कार्य के लिए उचित समझा गया है। वैदिक समय में मनु और अन्य कानून निर्माताओं जो पुरूष ही हैं, उन्होंने लड़कियों की कम उम्र में ही शादी की वकालत की। विधवा पुनः विवाह को भी इसीलिए अपनाया गया ताकि उसकी संपत्ति पर पति (पुरूष) का नियंत्रण आ जाए। इन सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए जो सामाजिक आंदोलन चलाए गए वह भी अधिकतर पुरूष द्वारा ही चलाए गए। महिलाओं को इन सामाजिक आंदोलनों में निर्णायक भूमिका नहीं दी गई। यह औपनिवेशिक भारतीय समाज का पितृसत्तात्मकता रूप दिखाती है। समकालीन भारतीय समाज में महिलाओं से संबंधित कई कुरीतियां मौजूद हैं जैसे – कन्या भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, लड़की को बोझ समझने की रीति, जबरन विवाह, घरेलू हिंसा, संपत्ति में अधिकार न देना, दहेज प्रथा, वैवाहिक बलात्कार, बिना तलाक के त्‍याग देना ये सभी बुराईयां पितृसत्तात्मकता सोच का ही परिणाम हैं।

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प्राचीन से वर्तमान समय तक महिलाओं को कभी भी न तो समाज में न ही परिवार में वैसा सम्मान, गौरव, पद, पहचान हासिल हुआ जैसा पुरूषों को मिलता है, क्‍योंकि महिलाओं के पास न तो निर्णय लेने की शक्ति है न ही संसाधनों पर समान पहुंच क्‍योंकि महिला के काम के बदले पैसे नहीं मिलते करते नतीजन घर में काम करने वाली औरत का महत्व घट जाता है और महिलाओं को पुरूषों से कमतर रूप में देखा जाता है। सार्वजनिक और निजी क्षेत्र का विभाजन इसी पितृसत्तात्मकता सोच को बनाए रखने व उसे ज़ायज़, प्राकृतिक दिखाने के लिए किया है। ताकि महिलाएं केवल परिवार और घर के दायरे तक सीमित रहे। घरेलू काम उसे कोई वेतन नहीं दिलाता इसी के चलते घरेलू काम का कोई मूल्‍य नहीं रह जाता। अगर महिलाएं सार्वजनिक स्थल के काम करती भी हैं तो या तो उन्‍हें घरेलू काम का विस्‍तार करने वाले ही काम दिए जाते हैं। जैसे नर्सिंग, अध्यापन, सेकेट्ररी या औरतों को पुरूषों से कम वेतन दिया जाता है जिसे पूरक वेतन के रूप में नहीं बल्‍कि परिवार की सहायक आय की तरह लिया जाता है।

पितृसत्ता कोई ऐसी सत्ता नहीं है जिसमें पुरूष हमेशा डंडे या जोर जबरदस्ती के बल पर अपनी सत्ता या दबदबे को कायम करता हो, बल्कि इस सत्ता में महिलाओं को मानसिक तौर पर तैयार किया जाता है जो कुछ भी हो रहा है वह प्राकृतिक है। महिलाओं को संस्‍कृति के नाम पर पूजा-पाठ, उत्सव, धार्मिक त्योहार था और रीति-रिवाजों मे उलझा दिया जाता है। महिलाएं अपनी ही गुलामी को आसानी से स्‍वीकार करती चली जाती है। समाज में हर इंसान अपने समाजीकरण की प्रक्रिया यानि पैदा होने के बाद से ही सिखाया जाता है। जैसे- पुरूष महिलों से श्रेष्ठ हैं इसलिए पुरूषों को अलग से अपने महत्व और श्रेष्ठता को हासिल करने की जरूरत महसूस नहीं होती। जिसका फायदा और आनंद वे जीवन भर इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत उठाते है। 

रोज़मर्रा की जिंदगी में पितृसत्ता का अनुभव महिलाओं को सोचने का समय भी नहीं देता कि उनके साथ न केवल असमान व्‍यवहार हो रहा बल्‍कि अन्‍याय भी हो रहा है।

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रोज़मर्रा की जिंदगी में पितृसत्ता का अनुभव महिलाओं को सोचने का समय भी नहीं देता कि उनके साथ न केवल असमान व्‍यवहार हो रहा बल्‍कि अन्‍याय भी हो रहा है। जिसकी शुरुआत जन्म के समय से हो जाती है या यूं कहें कि गर्भ के समय से शुरू हो जाती है, जैसे बच्चे के जन्म से पहले उसके लिंग का पता लगाना। बच्चें के जन्म के बाद अगर वह लड़का है तो ढोल-नगाड़े खूब बजाए जाते हैं क्योंकि बेटा उत्तराधिकारी का पद संभालता है जबकि लड़की के जन्‍म पर एक खमोशी छा जाती है, बच्चे कितने पैदा करने है यह फैसला स्‍त्री न लेकर पुरूष या परिवार लेते हैं। बच्चों की शिक्षा से संबंधित निणर्य भी पुरूष के हाथों में ही होता है, शादी विवाह संबंधित निर्णय भी पुरूष द्वरा लिए जाते हैं। बहुत से परिवारों में आज भी महिलाएं घरेलू हिंसा का सामना करती हैं फिर भी वो कानूनी सलाह न लेकर सहन करने की आदि बना दी जाती हैं। समाज और परिवार में महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार, अपमान, अवमानना चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो उसे दर्द सहने का धीरे-धीरे आदि बना दिया जाता है। हमें यह समझना होगा कि महिलाएं पुरूष के वर्चस्व को क्‍यों सहयोग करती है? क्‍योंकि उनकी संसाधनों तक समान पहुंच न होना,  पितृसत्ता विचारधारा को रीति-रिवाजों धर्म के आधार पर स्वीकृति दे देना, इसके खिलाफ़ जाने पर हिंसा का डर, महिलाएं अपनी अधीनता के बदले में पितृसंरक्षण और अवैतानिक श्रम के बदले में महज़ बुनियादी ज़रूरतें पूरी कर पाती हैं क्योंकि वे आर्थिक रूप से पुरूषों पर निर्भर रहती है। इस प्रकार पितृसत्ता व्यवस्था को बल मिलता है। 

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तस्वीर : सुश्रीता भट्टाचार्जी

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