हाल के वर्षों में भारत में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के अधिकारों में बढ़ोत्तरी देखी गई है। हालांकि अब भी एक नागरिक के तौर पर समान अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष जारी है क्योंकि प्रगति की रफ़्तार बेहद धीमी है। जब तक पूरी तरह से समान अधिकार प्राप्त नहीं हो जाते हैं तब तक यह सारे सुधार अपर्याप्त ही हैं। आज भी देश में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों को न तो समान क़ानूनी अधिकार प्राप्त हैं, न ही सामाजिक तौर पर स्वीकृति मिल पाई है।
2013: सुरेश कुमार कौशल बनाम एनएजेड फाउंडेशन मामला
इस साल सुरेश कुमार कौशल बनाम एनएजेड फाउंडेशन में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया। यह माना गया कि होमोसेक्शूऐलिटी को अपराध की श्रेणी से हटाने का अधिकार केवल संसद को है, न्यायालय को नहीं। यह माना गया कि धारा 377 व्यक्तियों के किसी समूह को लक्षित या वर्गीकृत नहीं करती है, यह केवल कुछ ‘कृत्यों’ को आपराधिक बनाती है। उन्होंने क्वीयर समुदाय के उन व्यक्तियों की अपेक्षाकृत कम संख्या पर प्रकाश डाला, जिन पर धारा 377 के तहत मुकदमा चलाया गया था।
2014: ट्रांसजेंडर को मान्यता
एलजीबीटी+ समुदाय के एक वर्ग ट्रांसजेंडर के अधिकार के लिए यह एक ऐतिहासिक साल था, जिसने इनके अस्तित्व को वैधता और मान्यता प्रदान की। इससे पहले स्त्री और पुरुष के बाइनरी खांचे में सिमटा यह समाज इससे अलग किसी ओर ध्यान ही नहीं देता था। हालांकि सदियों से ही ट्रांसजेंडर इसी दुनिया का हिस्सा रहे हैं। लेकिन इन्हें उपेक्षा या कौतूहल की दृष्टि से देखा जाता है। 2012 में राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण (NALSA) ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर ट्रांसजेंडर लोगों की अधिकारों को क़ानूनी मान्यता देने की सिफ़ारिश की।
इसके 2 साल बाद उच्चतम न्यायालय इन्हें ‘थर्ड जेंडर’ का दर्जा प्रदान करते हुए सामाजिक-आर्थिक योजनाओं में पिछड़े वर्ग के तहत रखे जाने का निर्देश दिया। इसके साथ ही न्यायालय ने थर्ड जेंडर समुदाय के लिए विशेष स्वास्थ्य सुविधाएं सुनिश्चित करने और अलग से सार्वजनिक शौचालय बनाने का भी निर्देश दिया। यह थर्ड जेंडर के गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार के लिए एक महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय क़दम था। इसके बाद से मतदाता पहचान पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस समेत तमाम दस्तावेजों में स्त्री और पुरुष के अलावा थर्ड जेंडर का कॉलम बनाया जाने लगा, जिससे समावेशिता का मार्ग प्रशस्त हुआ।
2017: जस्टिस के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ
2017 में, सुप्रीम कोर्ट ने वह फैसला सुनाया जो शायद सबसे बड़े फैसलों में से एक था। जस्टिस के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ यह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना। यहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि परिवार, विवाह, प्रजनन और यौनिकता सभी व्यक्ति की गरिमा के अभिन्न अंग हैं। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से गरिमापूर्ण जीवन के लिए किसी के लिंग, यौनिकता, परिवार, विवाह और जीवन के अन्य ऐसे सार्थक पहलुओं के अधिकार के बीच संबंध बताया।
2018: धारा 377 का ख़ात्मा और क्वीयर संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर करना
2016 में डांसर नवतेज सिंह जौहर, पत्रकार सुनील मेहरा, शेफ रितु डालमिया और होटल व्यवसायी अमन नाथ व अन्य याचिकाकर्ताओं ने होमोसेक्शूऐलिटी को अपराध की श्रेणी से हटाने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक जनहित याचिका दायर की। यह मामला नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ के तौर पर प्रसिद्ध हुआ। 2 साल तक सुनवाई चलने के बाद 6 दिसंबर 2018 को भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस पर अपना फ़ैसला सुनाया। न्यायालय ने माना कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पूरी तरह से क्वीयर व्यक्तियों के अधिकारों और गरिमा के विरुद्ध है और उसे रद्द कर दिया। यह धारा संविधान में मौलिक अधिकारों के अंतर्गत वर्णित समानता, निजता और गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार के विरुद्ध थी। यह एलजीबीटी+ समुदाय के लिए अत्यंत भावुक कर देने वाला पल था, जब इन्हें सदियों की जकड़न से मुक्ति का रास्ता मिला। साथ ही बिना किसी डर के अपनी पहचान और प्यार को ज़ाहिर करने का मौका मिला।
2019: ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक
2014 में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को कानूनी मान्यता मिलने के बावजूद सामाजिक तौर पर स्वीकृति नहीं मिल पाई थी। इनके प्रति भेदभाव, उत्पीड़न संबंधी तमाम घटनाएं देश के विभिन्न भागों में देखी जा रही थी। इसके लिए 2019 में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक पारित किया गया। इसके अंतर्गत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अपने लैंगिक पहचान के साथ अपने घर में अपने माता-पिता के साथ रहने का प्रावधान किया गया था।
इसके साथ ही विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं, कार्यालयों, अस्पतालों और सार्वजनिक स्थानों पर किसी भी प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध संरक्षण प्रदान किया गया। इस अधिनियम में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों के संरक्षण उनके लिए विशेष सामाजिक-आर्थिक योजनाओं के क्रियान्वयन और मूल्यांकन के लिए एक परिषद की स्थापना का निर्देश भी दिया गया। इससे उनके ख़िलाफ़ हो रहे भेदभाव और उत्पीड़न को ख़त्म कर मुख्यधारा में लाने के लिए एक और पहल की गई।
2021: अंजलि गुरु संजना जान बनाम महाराष्ट्र राज्य मामला
2021 में अंजलि गुरु संजना जान बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में फ़ैसला सुनाते हुए मुंबई उच्च न्यायालय ने व्यक्ति के लैंगिक पहचान के अधिकार को मान्यता प्रदान की। ग्राम पंचायत चुनाव के लिए याचिकाकर्ता ने ख़ुद को एक महिला के रूप में पहचान दर्ज़ किया। उनका आवेदन इस आधार पर ख़ारिज हो गया कि वह ट्रांस वुमन थीं। हालांकि, न्यायालय में भविष्य में उन्हें अपना लिंग पहचान दोबारा न बदलने का निर्देश दिया। इस प्रकार न्यायालय ने लैंगिक पहचान के अधिकार को मान्यता देते हुए भी जेंडर फ्लूडिटी की अवधारणा को ख़ारिज़ कर दिया।
2022: परिवार की परिभाषा में क्वीयर जोड़ों की बात
2022 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय में परिवार की परिभाषा की व्याख्या करते हुए इसमें क्वीयर जोड़ों के भी शामिल होने की बात की। जिस तरह परंपरागत परिवार जिसमें माता-पिता बच्चे होते हैं उनको अधिकार प्राप्त है, इसी तरह क्वीयर जोड़े को भी एक परिवार के तौर पर देखा जाना चाहिए। यह फ़ैसला क्वीयर जोड़ों के बच्चे गोद लेने के अधिकार के लिए रास्ता मजबूत तो करता है अबतक इसके लिए कोई क़ानूनी प्रावधान नहीं है।
2023: सेम सेक्स, सुप्रियो चक्रवर्ती बनाम भारत संघ मामला
दो समान-लिंग वाले जोड़ों ने सेम सेक्स के व्यक्तियों के बीच विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने विशेष रूप से तर्क दिया कि विशेष विवाह अधिनियम की धारा 4(सी) असंवैधानिक थी। यह प्रावधान केवल ‘पुरुष’ और ‘महिला’ के बीच विवाह को मान्यता देता है। उन्होंने तर्क दिया कि क्वीयर जोड़ों को शादी के अधिकार से बाहर रखने से वे गोद लेने, सरोगेसी, प्रॉपर्टी में अधिकार, सामाजिक सुरक्षा लाभ और भी बहुत से वैवाहिक लाभों से वंचित हो जाते हैं।भारत की शीर्ष अदालत ने सेम सेक्स विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया है। फैसले का मतलब है कि देश के लोग हालांकि अब संवैधानिक सुरक्षा के आश्वासन के साथ क्वीयर संबंधों में शामिल होने के लिए स्वतंत्र होंगे।
लेकिन, समान लिंग के व्यक्ति से विवाह करना कानूनी रूप से मनाही है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि सेम सेक्स विवाह अधिकारों पर कानून पेश करना अदालत के अधिकार क्षेत्र में नहीं बल्कि यह देश के संसद के अधिकार क्षेत्र है। एलजीबीटी+ समुदाय के लोगों के अधिकारों के लिए पहल तो हुई। लेकिन क्वीयर जोड़ों को क़ानून में मान्यता मिलने के बावजूद कई तरह से भेदभाव जारी है। भेदभाव का सबसे बड़ा आधार है, क्वीयर लोगों के शादी को क़ानूनी मान्यता नहीं दी गई है। अक्टूबर 2023 में जब सुप्रीम कोर्ट का आखिरी फैसला आया, तो एलजीबीटी+ समुदाय और समर्थकों के लिए निराशाजनक रहा।
मोदी सरकार का क्वीयर समुदाय के प्रति रवैया
हालांकि उच्चतम न्यायालय ने सेम सेक्स मैरिज को क़ानूनी मान्यता देने की ज़िम्मेदारी सरकार पर डाल दी है। पर मोदी सरकार हमेशा से इसके ख़िलाफ़ रही है। अलजज़ीरा में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, न्यायालय के फैसले पर टिप्पणी करते हुए मोदी सरकार ने क्वीयर लोगों के सेम सेक्स मैरेज के अधिकारों को ‘शहरी, अभिजात्यवादी विचार’ कहा था जो भारतीय परिवार अवधारणा के बराबर नहीं है, जिसमें पति, पत्नी और बच्चे शामिल हैं।
इसके अलावा लोकसभा चुनाव में बीजेपी के घोषणापत्र में भी एलजीबीटी+ समुदाय को कोई जगह नहीं मिली है जबकि कांग्रेस के घोषणा पत्र में क्वीयर व्यक्तियों को सिविल यूनियन के तहत क़ानूनी दर्ज़ा देने का वादा किया गया है। सेम सेक्स मैरेज का क़ानून एलजीबीटी+ समुदाय के लिए बच्चे गोद लेने, विरासत या अन्य क़ानूनी अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है। इससे धीरे-धीरे लोगों की मानसिकता में भी परिवर्तन लाया जा सकता है। इस तरह यह संविधान में दिए गए समानता, समता, न्याय और मानवाधिकारों की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम साबित हो सकता है।