इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ मेरी लैंगिक पहचान को भी मिले समान अधिकार | #लोकतंत्र, चुनाव और मैं

मेरी लैंगिक पहचान को भी मिले समान अधिकार | #लोकतंत्र, चुनाव और मैं

एक लोकतांत्रिक देश में व्यक्तिगत स्तर पर मुझे लोकतांत्रिक मूल्यों में कमी महसूस होती है। न तो यहां स्वतंत्रता सभी के लिए समान रूप से मौजूद है न ही समानता। इसी तरह सामाजिक न्याय का पूरी तरह से क्रियान्वयन अभी बाकी है। वर्तमान परिदृश्य में जहां अभिव्यक्ति की आज़ादी पर भी ख़तरा महसूस होता है, वहां हाशिए के समुदाय को अपने अस्तित्व की स्वीकृति के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है।

लोकतंत्र पर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का एक प्रसिद्ध कथन है, “लोकतंत्र जनता का, जनता द्वारा तथा जनता के लिए शासन है।” अर्थात यह एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें जनता अपने प्रतिनिधि खुद चुनती है।‌ पहले दुनिया में लोकतंत्र के बजाय राजतंत्र का प्रचलन था, जिसमें राजा वंशानुगत रूप से जनता पर शासन करने के लिए अधिकृत होता था। लेकिन समय के साथ दुनिया के अधिकतर देशों ने लोकतंत्र को अपनाया और अब भी यह एक आदर्श शासन प्रणाली के तौर पर दुनियाभर में स्थापित हो चुकी है।

भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है। यहां की शासन व्यवस्था लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है। भारत का संविधान देश के प्रशासन के लिए एक आधारभूत मार्गदर्शन और नियमावली के तौर पर काम करता है और संविधान का आधार लोकतंत्र है। स्वतंत्रता, समानता और समता लोकतंत्र के आधार स्तंभ हैं। हमारे संविधान में भाग 3 में अनुच्छेद 12 से लेकर 35 तक मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। इनमें से कुछ प्रमुख मौलिक अधिकार हैं जैसे समानता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध अधिकार और संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

जनसंख्या में 29 प्रतिशत से अधिक की हिस्सेदारी रखने के बावजूद भारतीय संसद में एलजीबीटी+ समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं है। हालांकि 1998 में शबनम मौसी ने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में पहली ट्रांस महिला विधानसभा सदस्य बनने का गौरव हासिल किया।

लोकतंत्र किसी भी तरह के भेदभाव से परे अपने नागरिकों को एक समान दर्ज़ा देता है। इसमें किसी भी जाति, धर्म, लिंग, जन्मस्थान इत्यादि आधारों पर भेदभाव का प्रतिबंध है। हालांकि सैद्धांतिक तौर पर देखा जाए तो हमें एक नागरिक के तौर पर समान अधिकार मिले हैं। लेकिन ज़मीनी स्तर पर अलग-अलग वर्ग, अलग-अलग समुदाय की अपनी अलग परिस्थितियां हैं। आज भी सार्वजनिक स्थानों पर अन्य लैंगिक व्यक्तियों की तुलना में पुरुषों का वर्चस्व साफ दिखाई देता है। आज भी अधिकतर स्थानों पर घरेलू अवैतनिक कार्यों में महिलाओं को ही जिम्मेदार माना जाता है जिससे उन्हें अपने व्यक्तित्व के विकास और महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने का समय और अवसर नहीं मिल पाता। तमाम अधिकार होने के बावजूद लैंगिक भेदभाव हमारे समाज की जड़ों में स्थापित है जहां लैंगिक पहचान की वजह से लोगों को उनके मौलिक अधिकार से दूर रखा जा रहा है। उनके साथ भेदभाव किया जाता है और अपने दैनिक जीवन में हिंसा का सामना करना पड़ता है। यौनिक पहचान की वजह से उन्हें हीनता की नज़रों से देखा जाता है।

धनबाद, झारखंड की रहने वाली अर्चना के अनुभव भी कुछ अलग नहीं हैं। इनका मानना है कि वर्तमान परिस्थितियों में लोकतंत्र की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है क्योंकि दिनों-दिन लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। वह कहती है, “महिलाओं के राजनीति और अन्य क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व के मामले में हम अब भी काफ़ी पीछे चल रहे हैं। इसलिए राजनीति में महिलाओं की सक्रिय सहभागिता की आवश्यकता है, चाहे वह चुनाव लड़ना हो या फिर वोट देना। इसमें भी घर के विशेषकर पुरुष सदस्यों की भूमिका काफ़ी मायने रखती है। उन्हें अपना विशेषाधिकार छोड़कर महिलाओं को समान अवसर देने में अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी।”

हमारे देश में लोकसभा में महिला सांसदों का अनुपात अभी भी 15 फीसदी के लगभग है जो कि बेहद कम है। नॉर्वे, स्वीडन और यहां तक कि दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों की संसद में महिलाओं का अनुपात 45 प्रतिशत से भी अधिक है। समानता, स्वतंत्रता, न्याय और भागीदारी लोकतंत्र के मूल तत्त्व हैं। संवैधानिक रूप से तो हमें यह अधिकार बरसों पहले ही मिल गए हैं लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यह सब गायब है। एक क्वीयर महिला होने के नाते जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से भेदभाव का सामना करना पड़ता है। महिला होने के नाते हमें कहीं भी किसी भी वक़्त कहीं आने-जाने से पहले सोचना पड़ता है। घरेलू अवैतनिक श्रम, कन्या विदाई, दहेज जैसी कुप्रथाएं परंपरा के नाम पर आज भी समाज में प्रचलित हैं। इससे हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन हो रहा है।

मैरिज इक्विलिटी को कानूनी मान्यता मिलना ज़रूरी है

तस्वीर साभारः The Conversation

फ़रीदाबाद में अपनी पार्टनर निवेदिता दत्ता के साथ रहने वाली पूजा श्रीवास्तव एलजीबीटी+ समुदाय से ताल्लुक रखती हैं। शादी में समानता को कानूनी मान्यता देने वाले याचिकाकर्ताओं में से एक पूजा श्रीवास्तव का कहना है, “शादी में समानता को मान्यता न मिलने से बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मैरिज इक्विलिटी को कानूनी मान्यता या फिर सिविल यूनियन का दर्जा मिलना समानता की दिशा में बेहद ज़रूरी क़दम है। इसके अलावा सामाजिक तौर पर एलजीबीटी+ समुदाय के प्रति लोगों को संवेदनशील और जागरूक बनाने की भी ज़रूरत है। इन सब के लिए कानून में बदलाव सबसे ज़रूरी क़दम है।” 

किसी भी क्षेत्र में जब प्रतिनिधित्व की बात आती है तो वहां यह ज़रूरी हो जाता है कि संबंधित समुदाय के व्यक्ति अपने विचार रख सकें। प्रतिनिधित्व का सवाल इसलिए भी अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अपना भोगा हुआ यथार्थ व्यक्ति स्वयं सबसे बेहतर तरीके से व्यक्त कर सकता है। इसके अलावा बहुसंख्यकों की भीड़ में अल्पसंख्यकों की आवाज हाशिए पर न चली जाए इसलिए भी भागीदारी बहुत ज़रूरी है। हर स्तर पर प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए समय-समय पर सरकार द्वारा नियम-कानून बनाए जाते हैं। अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और महिलाओं का आरक्षण इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। अब जबकि शादी में समानता को लेकर उच्चतम न्यायालय द्वारा सरकार को ज़िम्मेदारी सौंप दी गई है, ऐसे में संसद में एलजीबीटी+ समुदाय की भूमिका और बढ़ गई है। राष्ट्रीय स्तर पर विधायिका में एलजीबीटी+ समुदाय का प्रतिनिधित्व न होना चिंता का विषय है। संसद के पास कानून बनाने का संवैधानिक अधिकार होने से समावेशी विकास हेतु सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व आवश्यक है। 

राजनीति में क्वीयर समुदाय की भागीदारी

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

जनसंख्या में 29 प्रतिशत से अधिक की हिस्सेदारी रखने के बावजूद भारतीय संसद में एलजीबीटी+ समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं है। हालांकि 1998 में शबनम मौसी ने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में पहली ट्रांस महिला विधानसभा सदस्य (एमएलए) बनने का गौरव हासिल किया। 2018 में राजनीतिज्ञ और पत्रकार अप्सरा रेड्डी, अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव के रूप में कांग्रेस में पद संभालने वाली पहली ट्रांस महिला बनीं। सेंटर फॉर जेंडर एंड पॉलिटिक्स के अनुसार, 2019 में आम आदमी पार्टी की चिरपी भवानी और बहुजन समाज पार्टी की काजल सहित पांच अन्य ट्रांसजेंडर व्यक्तियों ने चुनाव लड़ा।

सितंबर 2020 में, तेलंगाना के मल्काजगिरी निर्वाचन क्षेत्र से सांसद रेवंत रेड्डी ने एक ऑनलाइन याचिका में नामांकन और चुनावों के माध्यम से संसद और राज्य विधानसभाओं में ट्रांसजेंडर प्रतिनिधित्व की बात भी की। इस बार के अपने चुनावी घोषणा पत्र में कांग्रेस पार्टी ने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए सिविल यूनियन का वादा भी किया है। हालांकि जनसंख्या में अनुपात को देखते हुए ये प्रयास अपर्याप्त है फिर भी इससे एक उम्मीद जगती है कि इस दिशा में कम से कम पहल तो शुरू हो चुकी है।

शादी में समानता को लेकर उच्चतम न्यायालय द्वारा सरकार को ज़िम्मेदारी सौंप दी गई है, ऐसे में संसद में एलजीबीटी+ समुदाय की भूमिका और बढ़ गई है। राष्ट्रीय स्तर पर विधायिका में समुदाय का प्रतिनिधित्व न होना चिंता का विषय है।

सबके लिए हो समान अधिकार

इस तरह एक लोकतांत्रिक देश में व्यक्तिगत स्तर पर मुझे लोकतांत्रिक मूल्यों में कमी महसूस होती है। न तो यहां स्वतंत्रता सभी के लिए समान रूप से मौजूद है न ही समानता। इसी तरह सामाजिक न्याय का पूरी तरह से क्रियान्वयन अभी बाकी है। वर्तमान परिदृश्य में जहां अभिव्यक्ति की आज़ादी पर भी ख़तरा महसूस होता है, वहां हाशिए के समुदाय को अपने अस्तित्व की स्वीकृति के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। भारतीय संविधान में वर्णित संवैधानिक उपचारों के अधिकार सबकी पहुंच नहीं है। न हीं इतनी जागरुकता है कि वंचित वर्ग को अपने अधिकारों की जानकारी हो। हालांकि समय के साथ काफ़ी चीज़ें बदल रही हैं, जैसे संपत्ति का अधिकार महिलाओं के लिए लागू होना या फिर एलजीबीटी+ समुदाय के लिए लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता देना। लेकिन जब तक वंचित वर्गों को जीवन के सभी क्षेत्रों में समान अवसर और प्रतिनिधित्व नहीं मिलता तब तक यह प्रयास अपर्याप्त ही हैं। वर्तमान में देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षण और पुनर्स्थापन की आवश्यकता है। जिससे देश के सभी नागरिकों के लिए समान अवसर, स्वतंत्रता, समता और न्याय सुनिश्चित किया जा सके तथा देश के सभी नागरिकों के लिए गरिमापूर्ण जीवन का मार्ग प्रशस्त हो सके।


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