इंटरसेक्शनलजेंडर प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल में जेंडर न्यूट्रल भाषा क्यों ज़रूरी है?

प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल में जेंडर न्यूट्रल भाषा क्यों ज़रूरी है?

भाषा तय करती है कि किसकी पहचान को मान्यता दी जाएगी और किसे अदृश्य बना दिया जाएगा। यही कारण है कि स्वास्थ्य सेवाओं में भाषा की संवेदनशीलता एक नैतिक और सामाजिक ज़रूरत है। भाषा अक्सर मानसिक स्वास्थ्य और यौनिकता जैसे विषयों पर भी भेदभाव को गहरा कर देती है।

भाषा केवल बोलने या लिखने का जरिया नहीं है, बल्कि यह समाज में बने ढांचों, रिश्तों और पहचान को परिभाषित करने का तरीका है। चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवाओं में इसका असर और भी गहरा होता है, क्योंकि यहां भाषा सीधे तौर पर मरीज की देखभाल, उनके अधिकार और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच को प्रभावित करती है। स्वास्थ्य सेवाओं में उपयोग होने वाली भाषा खासकर प्रजनन और महिला स्वास्थ्य से जुड़ी शब्दावली, लैंगिक समावेशिता की कमी के कारण कई समूहों या व्यक्तियों को अदृश्य बना देती है। भाषा की समावेशिता तब और अहम हो जाती है, जब बात स्वास्थ्य सेवाओं की हो। मेडिकल जर्नल द लैंसेट की रिपोर्ट में यह सवाल उठाया गया है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में हम जो भाषा इस्तेमाल करते हैं, क्या वह समावेशी है और किस तरह उसका सीधा असर लोगों की सेहत और अनुभव पर पड़ता है।

भाषा तय करती है कि किसकी पहचान को मान्यता दी जाएगी और किसे अदृश्य बना दिया जाएगा। यही कारण है कि स्वास्थ्य सेवाओं में भाषा की संवेदनशीलता एक नैतिक और सामाजिक ज़रूरत है। भाषा अक्सर मानसिक स्वास्थ्य और यौनिकता जैसे विषयों पर भी भेदभाव को गहरा कर देती है। अगर डॉक्टर संवेदनशील और समावेशी भाषा का इस्तेमाल करें, तो यह न केवल उपचार की गुणवत्ता को बेहतर बनाता है, बल्कि मरीज़ों और डॉक्टरों के बीच भरोसे को भी मजबूत करता है। यानी, स्वास्थ्य सेवाओं में भाषा का समावेशी और संवेदनशील होना केवल शब्दों का सवाल नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक न्याय और मानवाधिकार का मसला है।

स्वास्थ्य सेवाओं में उपयोग होने वाली भाषा खासकर प्रजनन और महिला स्वास्थ्य से जुड़ी शब्दावली, लैंगिक समावेशिता की कमी के कारण कई समूहों या व्यक्तियों को अदृश्य बना देती है। भाषा की समावेशिता तब और अहम हो जाती है, जब बात स्वास्थ्य सेवाओं की हो।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में भाषा क्यों मायने रखती है?

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया

स्वास्थ्य के क्षेत्र में भाषा का बहुत महत्व है, क्योंकि भाषा ही एक ऐसा माध्यम है जो पेशेंट और चिकित्सक के बीच जुड़ाव और भरोसे को बनाए रखती है । इनमें सबसे ज़रूरी है, जेंडर न्यूट्रल शब्दों का इस्तेमाल करना। उदाहरण के लिए, प्रसूति सेवाएं कहने की जगह प्रजनन सेवाएं या प्रसवकालीन सेवाएं कहना उचित माना जाता है। क्योंकि इस तरह की भाषा सभी लोगों को शामिल करती है, चाहे उनकी शारीरिक और सामाजिक पहचान कुछ भी हो । लेकिन यह निति आज भी सिर्फ कागजों तक ही सीमित है। क्योंकि जब बात प्रजनन स्वास्थ्य की आती है तब ज्यादातर शब्दावली सिर्फ महिलाओं पर केंद्रित होती है। रिसर्च गेट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, स्वास्थ्य अनुसंधान से जुड़े 500 लेखों या शोध पत्रों का अध्ययन किया गया। जो कि गर्भावस्था या गर्भवती लोगों पर आधारित था। नतीजे यह रहे कि सिर्फ 1.2 फीसदी लेखों में ही लिंग-समावेशी भाषा का प्रयोग किया गया था, और इनमें से कोई भी (एपिडेमियोलॉजी) महामारी विज्ञान से संबंधित नहीं था।

बाकी 98.8 फीसदी लेखों में महिलाओं पर केंद्रित भाषा का ही उपयोग किया गया था। जब स्वास्थ्य के क्षेत्र में किसी मरीज को केवल महिला, पुरुष या मां जैसे पारंपरिक शब्दों से संबोधित किया जाता है, तो यह उन सभी को अदृश्य बना देता है। जो इन रूढ़िवादी ढांचों में फिट नहीं बैठते। उदाहरण के लिए, ट्रांसजेंडर पुरुष जो गर्भवती हो सकते हैं, या नॉन-बाइनरी लोग जिनकी स्वास्थ्य ज़रूरतें गर्भधारण और प्रजनन से जुड़ी हो सकती हैं, उनके अनुभव को मान्यता ही नहीं दी जाती। यह धारणा न केवल जेंडर-डाइवर्स लोगों को अनदेखा करती है, बल्कि महिलाओं की ज़रूरतों को भी सीमित परिभाषाओं तक बांधती है, जैसे कि उनका स्वास्थ्य केवल प्रसव और मातृत्व तक ही जुड़ा है। जबकि महिलाओं का स्वास्थ्य इससे कहीं व्यापक है, जिसमें मानसिक स्वास्थ्य, उम्र से जुड़ी बीमारियां, कार्यस्थल पर स्वास्थ्य सुरक्षा, और अन्य स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतें शामिल हैं।  यह तय करती है कि सेवाएं  कितनी सुलभ, न्यायपूर्ण और सम्मानजनक होंगी। 

स्वास्थ्य अनुसंधान से जुड़े 500 लेखों या शोध पत्रों का अध्ययन किया गया। जो कि गर्भावस्था या गर्भवती लोगों पर आधारित था। नतीजे यह रहे कि सिर्फ 1.2 फीसदी लेखों में ही लिंग-समावेशी भाषा का प्रयोग किया गया था। बाकी 98.8 फीसदी लेखों में महिलाओं पर केंद्रित भाषा का ही उपयोग किया गया था।

स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रभाव

भाषा और स्वास्थ्य का रिश्ता बहुत गहरा है। जिस तरह हम शब्दों का उपयोग करते हैं, वह तय करता है कि स्वास्थ्य सेवाएं  किस तक पहुंचेंगी और किसकी जरूरतें नजरअंदाज कर दी जाएंगी । भाषा का यह असर नया नहीं है, बल्कि सदियों से स्वास्थ्य सेवाओं को प्रभावित करता रहा है। महिला स्वास्थ्य को मातृत्व और प्रसव तक सीमित करने वाली भाषा ने यह मान लिया कि महिलाओं की पहचान केवल उनकी प्रजनन क्षमता से जुड़ी है। इससे उनके शरीर और स्वास्थ्य की अन्य ज़रूरतें हाशिये पर चली गईं। इतिहास में महिलाओं की बीमारियों और अनुभवों को अक्सर नज़रअंदाज़ किया गया या गलत तरीके से परिभाषित किया गया। हिस्टीरिया जैसे शब्दों ने महिलाओं की मानसिक और शारीरिक समस्याओं को मज़ाक या कमजोरी बताकर खारिज कर दिया ।

तस्वीर साभार : BBC

पीरियड्स और प्रसव को चुप्पी और शर्म की भाषा में ढक दिया गया, जिससे महिलाओं का स्वास्थ्य प्रभावित हुआ। चिकित्सा के क्षेत्र में स्थानीय भाषा को समझा पाना भी एक समस्या है जिस कारण भी महिलाएं स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करती हैं। इसी तरह क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों और जेंडर-डाइवर्स लोगों के लिए तो स्थिति और भी कठिन रही है । भाषा में उनकी कोई जगह नहीं थी, इसलिए उनकी स्वास्थ्य ज़रूरतें न तो दर्ज हुईं और न ही उन्हें सेवाओं में प्राथमिकता दी गई। जब शोध पत्र या सरकारी योजनाएं महिला स्वास्थ्य कहकर केवल महिलाओं को ही प्रजनन या गर्भावस्था से जोड़ती हैं, तो इससे ट्रांसजेंडर पुरुषों और नॉन-बाइनरी लोगों के अनुभव छूट जाते हैं। इसका सीधा असर डेटा पर पड़ता है और अधूरी जानकारी के आधार पर बनाई गई नीतियां सभी को न्याय नहीं दे पातीं। 

इतिहास में महिलाओं की बीमारियों और अनुभवों को अक्सर नज़रअंदाज़ किया गया या गलत तरीके से परिभाषित किया गया। हिस्टीरिया जैसे शब्दों ने महिलाओं की मानसिक और शारीरिक समस्याओं को मज़ाक या कमजोरी बताकर खारिज कर दिया ।

नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन के मुताविक, 54 फीसदी ट्रांसजेंडर लोग अपनी जैविक संतान चाहते हैं या बच्चे पैदा करना चाहते हैं। लेकिन ज़्यादातर लोग सामाजिक और मेडिकल दिक़्क़तों की वजह से इसे पूरा नहीं कर पाते। लेकिन जो लोग फर्टिलिटी प्रिज़र्वेशन सेवाएं लेना चाहते हैं, उनमें से बहुत ही कम लोग इन्हें हासिल कर पाते हैं। केवल 3.1 फीसदी ट्रांस पुरुष और 9.6 फीसदी ट्रांस महिलाएं ही इन सेवाओं का उपयोग कर पाती हैं। अगर कोई व्यक्ति अस्पताल जाता है और स्वास्थ्यकर्मी उसके लिए गलत संबोधन या असंवेदनशील भाषा का उपयोग करता है, तो वह मरीज अपमानित और असुरक्षित महसूस करता है। इससे इलाज में देरी होती है और कई बार लोग स्वास्थ्य सेवाओं से दूरी बना लेते हैं। आज भी स्वास्थ्य सेवाओं में कई स्तरों पर यही पैटर्न देखने को मिलता है। अस्पतालों के रजिस्ट्रेशन फॉर्म से लेकर राष्ट्रीय स्वास्थ्य अभियानों तक, अधिकांश जगहों पर केवल पुरुष/महिला के विकल्प दिए जाते हैं। इसी तरह प्रजनन स्वास्थ्य कार्यक्रमों को महिला सशक्तिकरण के रूप में पेश किया जाता है। 

नीति और प्रशिक्षण में समावेश की ज़रूरत

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

स्वास्थ्य सेवाओं को वास्तव में समान और न्यायपूर्ण बनाने के लिए केवल सुविधाएं ही नहीं, बल्कि भाषा और नीतियां भी समावेशी होनी चाहिए। चिकित्सा शिक्षा, शोध और नीतियों में अभी भी पुरुष और महिला को ही मुख्य आधार माना जाता है। उदाहरण के लिए, गर्भवती महिलाएं शब्द का इस्तेमाल यह मान लेता है कि केवल महिलाएं ही गर्भवती हो सकती हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। इसलिए ज़रूरी है कि शब्दों को बदला जाए और गर्भवती व्यक्ति जैसे जेंडर समावेशी शब्द अपनाए जाएं। सही जेंडर सर्वनाम का उपयोग करना बहुत ज़रूरी है ताकि स्वास्थ संबंधित क्षेत्रो में मरीज को उसकी पसंदीदा पहचान से संबोधित किया जा सके। केवल भाषा बदलना काफी नहीं है, बल्कि पूरे सिस्टम में सुधार होना चाहिए। 

गर्भवती महिलाएं शब्द का इस्तेमाल यह मान लेता है कि केवल महिलाएं ही गर्भवती हो सकती हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। इसलिए ज़रूरी है कि शब्दों को बदला जाए और गर्भवती व्यक्ति जैसे जेंडर समावेशी शब्द अपनाए जाएं।

अस्पतालों के रजिस्ट्रेशन फॉर्म और मेडिकल रिकॉर्ड्स में केवल पुरुष/महिला न होकर अन्य विकल्प भी हों ताकि किसी व्यक्ति को अपनी पहचान बताने से पहले सोचना न पड़े। स्वास्थ्य केंद्रों और गांवों में प्रजनन स्वास्थ्य से जुडी देखभाल में जेंडर समावेशी भाषा के बारे में जागरूकता अभियान और प्रशिक्षण देने की शुरुआत करनी चाहिए।  ताकि कोई भी व्यक्ति भषा के आधार पर स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना न करे। स्वास्थ्य सर्वेक्षण और जनगणना में भी जेंडर-डाइवर्स विकल्प शामिल किए जाएं। इससे सरकार और नीति-निर्माताओं को सटीक डेटा मिलेगा और स्वास्थ्य सेवाओं की योजना बनाते समय कोई भी समुदाय पीछे नहीं छूटेगा।स्वास्थ्य सेवाओं में भाषा का महत्व अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है, जबकि यह मरीजों के अनुभव और उनकी सेहत दोनों को गहराई से प्रभावित करती है। जब किसी को केवल महिला, पुरुष या मां जैसे सीमित शब्दों से परिभाषित किया जाता है।

इससे उन लोगों की पहचान मिट जाती है, जो इन पारंपरिक ढांचों में फिट नहीं बैठते। खासकर प्रजनन स्वास्थ्य में, जहां ज़्यादातर शब्दावली केवल महिलाओं पर केंद्रित है, ट्रांसजेंडर पुरुषों, नॉन-बाइनरी और अन्य जेंडर-डाइवर्स लोगों के अनुभव अदृश्य बना दिए जाते हैं। समावेशी भाषा अपनाना इसलिए बेहद ज़रूरी है क्योंकि यह स्वास्थ्य सेवाओं को सभी के लिए समान और सम्मानजनक बनाता है। जब डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी संवेदनशील शब्दों का उपयोग करते हैं और मरीज की पहचान को मान्यता देते हैं, तो इससे भरोसा बढ़ता है और उपचार का अनुभव बेहतर होता है। भाषा बदलना केवल बोलचाल का सुधार नहीं है, बल्कि सोच और दृष्टिकोण का परिवर्तन है। यह परिवर्तन सुनिश्चित करेगा कि स्वास्थ्य सेवाएं सचमुच लोकतांत्रिक हों,जहां हर व्यक्ति उसकी लैंगिक पहचान चाहे जो भी हो, सम्मान और सुरक्षा के साथ इलाज पा सके। यही बदलाव हमें एक ऐसे समाज की ओर ले जा सकता है, जहां स्वास्थ्य सेवाएं केवल कुछ लोगों के लिए नहीं, बल्कि सबके लिए समान और न्यायपूर्ण हों।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content