यात्रा सिर्फ एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने का साधन नहीं होती, बल्कि यह आत्मखोज, आज़ादी और सीखने की प्रक्रिया भी होती है। नई जगहों को अपनी तरह से देखना, वहां की संस्कृति और समाज को समझना, किसी भी यात्री को आत्मविश्वास से भर देता है। अगर यात्री जब एक महिला हो तो यात्रा का रोमांच अक्सर सुरक्षा, घूरती निगाहों और सामाजिक रोकटोक के बोझ तले दब जाता है। “अकेली आई हो?”, “अकेले मत घूमा करो” जैसी हिदायतें उसके हर कदम का पीछा करती हैं। फेमिनिस्ट ट्रैवलिंग का हिस्सा सिर्फ महिलाएं ही नहीं है, बल्कि यह यात्रा किसी भी व्यक्ति जो घूमने की इच्छा रखते हैं और एक समावेशी यात्रा करना चाहते है। वह इसके अंतर्गत आज़ादी के साथ सुरक्षित यात्रा कर सकते हैं ।
यात्रा दरअसल केवल दूरी तय करने का अनुभव नहीं, बल्कि यह एक सामाजिक-राजनीतिक अभ्यास भी है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि रास्तों और गंतव्यों तक किसकी पहुंच है और किसे रोका जाता है। सड़कें, परिवहन और सार्वजनिक स्थल सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध दिखते हैं, लेकिन असल में उनका इस्तेमाल हर किसी के लिए समान रूप से आसान नहीं होता। कई बार जाति, वर्ग, लिंग या जेंडर पहचान के आधार पर लोगों को न सिर्फ यात्रा में असुविधा होती है बल्कि उन्हें असुरक्षा और भेदभाव का सामना भी करना पड़ता है। फेमिनिस्ट ट्रैवलिंग इस असमानता को उजागर करती है और यह कहती है कि यात्रा का अधिकार सबका है।
यात्री जब एक महिला हो तो यात्रा का रोमांच अक्सर सुरक्षा, घूरती निगाहों और सामाजिक रोकटोक के बोझ तले दब जाता है। “अकेली आई हो?”, “अकेले मत घूमा करो” जैसी हिदायतें उसके हर कदम का पीछा करती हैं।
महिलाओं की यात्राओं की शुरुआत कैसे हुई

फेमिनिस्ट ट्रैवलिंग सुनने में भले ही नया शब्द लग सकता है । लेकिन महिलाओं की यात्रा और उससे जुड़ा विषय बिल्कुल नया नहीं है। महिलाएं सदियों पहले से ही दुनिया की तमाम बेड़ियों को तोड़ते हुए देश-विदेश की यात्रा करती आई हैं। यहां तक कि जब महिलाओं को घर से निकलने की भी आजादी नहीं थी तब भी उन्होंने विदेशों में जाकर अपनी पढ़ाई पूरी की। उन महिलाओं में आनंदी गोपाल जोशी भी हैं, जब महिलाओं को शिक्षित करने के बारे में सोचना ही मुश्किल था। उस समय आनंदी ने अमेरिका से मेडिकल की पढ़ाई की और वह भारत की पहली महिला डॉक्टर बनी। यात्राएं सिर्फ घूमने भर तक सीमित नहीं है। वे व्यक्ति के जीवन में बदलाव ही नहीं लाती, बल्कि उनके जीवन के सपनों को पूरा करने में मदद करती है। ऐसी ही एक कहानी है, सरोजिनी नायडू की जो न केवल भारत की स्वतंत्रता संग्राम की अग्रणी नेता थीं, बल्कि उन्हें “भारत कोकिला” के नाम से भी जाना जाता है।
उन्होंने इंग्लैंड और अमेरिका की यात्राएं की। जहां उन्होंने न केवल साहित्यिक सभाओं में हिस्सा लिया बल्कि भारतीय स्वतंत्रता की मांग को भी मजबूती से उठाया। अमेरिका में दिए गए उनके भाषणों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। उन्होंने भरतीय महिलाओं की शिक्षा, उनके अधिकार और आत्मनिर्भरता के सवालों को भी अंतरराष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनाया। इस तरह उनकी यात्राएं भारतीय महिलाओं के लिए सार्वजनिक जीवन और वैश्विक राजनीति में कदम रखने की एक ऐतिहासिक शुरुआत साबित हुईं। तब से लेकर आज तक महिलाओं की यात्राओं का क्रम यू ही चलता रहा है। इनकी तरह बहुत सी महिलाओं ने उन दशकों में यात्राएं की जब महिलाओं के लिए घर से बाहर निकलना ही मुश्किल था। उन नारीवादी महिलाओं की पहल ने आज कई महिलाओं को यात्रा करने की प्रेरणा दी है।
जब महिलाओं को शिक्षित करने के बारे में सोचना ही मुश्किल था। उस समय आनंदी गोपाल जोशी ने अमेरिका से मेडिकल की पढ़ाई की और वह भारत की पहली महिला डॉक्टर बनी। यात्राएं सिर्फ घूमने भर तक सीमित नहीं है। वे व्यक्ति के जीवन में बदलाव ही नहीं लाती, बल्कि उनके जीवन के सपनों को पूरा करने में मदद करती है।
आखिर क्यों जरूरी है फेमिनिस्ट ट्रैवलिंग

यह इसलिए जरूरी है क्योंकि यह यात्रा को केवल मनोरंजन या पर्यटन तक सीमित नहीं रहने देती, बल्कि इसे समानता समावेशिता और सशक्तिकरण का अनुभव बना देती है। आम तौर पर यात्रा के दौरान महिलाएं, ट्रांस, क्वीयर समुदाय के व्यक्ति और हाशिये के समुदायों के लोग असुरक्षा और भेदभाव जैसी समस्याओं का सामना करते हैं। जिस कारण यात्रा करना उनके लिए आसान होता। ट्रैवल ट्रेंड्स टुडे पत्रिका के एक अध्ययन के मुताबिक, 92 फीसदी भारतीय क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों ने सफर के दौरान भेदभाव झेला। इसमें से 79 फीसदी को साथी यात्रियों से और 81 फीसदी को यात्रा गंतव्य पर स्थानीय लोगों से किसी न किसी तरह का भेदभावपूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ा ।
करीब 70 फीसदी भारतीयों ने पिछले साल ऐसे जगहों की यात्रा रद्द की, जहां क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता। फेमिनिस्ट ट्रैवलिंग लोगों को किसी भी तरह के भेदभाव पूर्ण व्यवहार के प्रति जागरूक करती है और इसे खुद पर होने से भी रोकती है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि हर व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के सुरक्षित रूप से यात्रा कर सके। नारीवादी यात्रा इसलिए जरूरी है, क्योंकि महिलाओं को अक्सर सार्वजनिक स्थलों पर भेदभाव और यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह ऐसे सभी जोखिमों को कम करने और एक सुरक्षित यात्रा वातावरण तैयार करने का प्रयास करती है।
चार से पांच ट्रेन जर्नी मैने अकेले तय की हैं । एक बार तो पूरी बोगी में 3 से 4 महिलाएं भी नहीं थी लेकिन फिर भी आत्मविश्वास के साथ मैंने पूरा सफर तय किया। लेकिन अक्सर मेरी यात्रा दिन की रही है, तो मेरा सोलो ट्रैवलिंग का अनुभव बेहतर रहा है।
भारत में महिला यात्रियों की सुरक्षा और अनुभव

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी ) की साल 2022 की रिपोर्ट के अनुसार,हर रोज़ औसतन 88 महिलाएं भारत में यौन हिंसा की शिकार होती हैं। भारतीय रेल से प्रतिदिन 23 मिलियन यात्री यात्रा करते हैं, जिनमें से 20 फीसदी यानी लगभग 4.6 मिलियन महिलाएं होती हैं। हाल के दिनों में, रेलगाड़ियों और रेल परिसरों में महिलाओं के विरुद्ध अपराध की घटनाएं चिंता का एक प्रमुख विषय रही हैं। ऐसे में किसी महिला के लिए सोलो ट्रैवलिंग के बारे में सोचना कई तरह की चिंताओं से भर देता है। इसी सिलसिले में हमने कुछ नारीवादी महिलाओं से उनके फेमिनिस्ट ट्रैवलिंग के अनुभव को जानने का प्रयास किया। प्रज्ञा मिश्रा जो कि बेसिक शिक्षा परिषद में अध्यापिका हैं, उन्होंने बताया कि, “यात्रा के दौरान मैंने बहुत कुछ सीखा है, जिसमें कुछ अनुभव सकारात्मक रहे हैं , और कुछ निराशाजनक भी। लेकिन मैं शौकिया घुमक्कड़ रही हूं। मैंने हर तरह के अनुभवों का स्वागत किया है और इसलिए कभी परिवार के साथ और एक आध बार सोलो ट्रैवलिंग भी आजमाई है।”
पर हां हमेशा ही अकेले यात्रा के बारे में सतर्क और चिंतित रही हूं। अगर कभी अकेले ट्रैवलिंग का चुनाव किया है। इन सब बातों का ध्यान रखा है कि जहां वहां सुरक्षा कैसी है, और कैसे वहां तक पहुंचना है। इन सारी स्थितियों को समझने के बाद ही घर वालों से अनुमति मिली है, क्योंकि महिलाओं की सुरक्षा की जो स्थिति है हमारे आस पास उसे देखकर घर वालों के लिए अब भी निश्चिंत होकर जाने देना मुश्किल होता है।”बातचीत के सिलसिले में हमने उत्तर प्रदेश की रहने वाली अंजली वर्मा से बात की, जिन्होंने हाल ही में मास्टर्स कंपलीट किया है। 23 वर्षीय अंजली अब आगे की पढ़ाई के लिए अक्सर भारत के विभिन्न शहरों और प्रदेशों में भ्रमण करती रहती है।”
यात्रा के दौरान मैंने बहुत कुछ सीखा है, जिसमें कुछ अनुभव सकारात्मक रहे हैं , और कुछ निराशाजनक भी। लेकिन मैं शौकिया घुमक्कड़ रही हूं। मैंने हर तरह के अनुभवों का स्वागत किया है और इसलिए कभी परिवार के साथ और एक आध बार सोलो ट्रैवलिंगभी आजमाई है। पर हां हमेशा ही अकेले यात्रा के बारे में सतर्क और चिंतित रही हूं।
“अंजलि कोलकाता,दिल्ली कई बड़े राज्यों में सोलो ट्रैवलिंग कर चुकी है। उन्होंने बताया कि “ चार से पांच ट्रेन जर्नी मैने अकेले तय की हैं । एक बार तो पूरी बोगी में 3 से 4 महिलाएं भी नहीं थी लेकिन फिर भी आत्मविश्वास के साथ मैंने पूरा सफर तय किया। लेकिन अक्सर मेरी यात्रा दिन की रही है, तो मेरा सोलो ट्रैवलिंग का अनुभव बेहतर रहा है।” लेकिन जब बात रात की हो तो मुझे पैदल रोड पर 9:30 के बाद डर लगने लगता है। क्योंकि उसके बाद अक्सर लड़कियां कम हो जाती हैं। सिर्फ सड़कों पर पुरुषों की तादाद होती है,और मैने अक्सर महसूस किया है कि रात के 9 बजने के बाद सड़क की हर आंख मेरे कदमों पर नजर गड़ाए रहती हैं। इसलिए भी शायद मैं रात 10:30 के बाद कभी अकेले बाहर नहीं रही हूं।”
रास्तों पर बराबरी की ओर नारीवादी यात्रा

फेमिनिस्ट ट्रैवलिंग केवल घूमने का माध्यम नहीं, बल्कि एक सशक्तिकरण, समानता और समावेशिता की यात्रा है। यह हमें यह समझने में मदद करती है कि रास्तों और सार्वजनिक स्थानों तक पहुंच हर किसी के लिए समान नहीं होती, और कई बार जाति, वर्ग या जेंडर पहचान के आधार पर असमानताएं और असुरक्षा देखने को मिलती हैं। महिलाओं और हाशिए के समुदायों के लोग यात्रा के दौरान भेदभाव और जोखिम का सामना करते हैं, लेकिन यह इन्हीं चुनौतियों को उजागर करती है और सुरक्षित, समावेशी यात्रा की दिशा में जागरूकता फैलाती है। ऐतिहासिक उदाहरण जैसे आनंदी गोपाल जोशी और सरोजिनी नायडू की यात्राएं दिखाती हैं कि महिलाओं की यात्राएं सिर्फ व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि समाज और राजनीति में बदलाव लाने का माध्यम भी रही हैं। आज भी, भारतीय महिलाओं और अन्य हाशिए के समुदायों के लिए यात्रा सुरक्षित नहीं है, लेकिन सतर्कता और तैयारी के साथ यात्रा करना संभव है। फेमिनिस्ट ट्रैवलिंग हमें यह संदेश देती है कि हर व्यक्ति को बिना भेदभाव के यात्रा करने का अधिकार है और यह सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि सशक्तिकरण, आत्मविश्वास और सामाजिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

