“पंथ रहने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला।”
हिन्दी साहित्य की दुनिया में महादेवी वर्मा के नाम को किसी परिचय की जरूरत नहीं। उनकी रचनाएं सिर्फ सौंदर्यबोध तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि उन्होंने समाज में महिलाओं की स्थिति पर गहरी दृष्टि डाली। महादेवी वर्मा का साहित्य स्त्री के संघर्ष, उसके अधिकारों और उसकी अस्मिता की आवाज़ है। महादेवी महिलाओं के जीवन के दुख और समाज में रहकर भी वो जो अकेलापन सहती है उन पीड़ाओं की कवयित्री हैं। उनकी कविताओं में वे सामाजिक व्यवस्था में घुटती हुई महिला की लयबद्ध सिसकियां हैं जिन्हें स्वर में गाते हुए एक अंनत उदासी स्वर में आ बसती है। जैसे दुख और पीड़ा का कोई अबूझ सागर कविताओं में लहराता है। उनकी कविता की कुछ पंक्ति तो रहस्य और अबुझता को पार करके सीधे कहती हैं कि ‘इन सपनों के पंख न काटो/ इन सपनों की गति मत बांधो।’

महिलाओं की मुक्ति को लेकर महादेवी के भीतर इतना उद्वेग इतनी छटपटाहट और इतनी गहरी पीड़ा है कि वे बार-बार निराशा की तरफ जाती हुई दिखती हैं फिर जैसे कोई आस पकड़ लौट आती हैं। प्रकति उनकी सहचरी है। उसी से वे अपना अंतर्मन कहती रहती हैं। अपना दुख, अपने स्वप्न, अपनी पीड़ा और अपना आत्मिक प्रेम भी। बादल, नदी, दीपक, वृक्ष सागर, रंग, पक्षी, हवा सब उनकी कविताओं में चरित्र के रूप में विचरते हैं। उनकी कविताओं में दुख और अमूर्तन को कभी लौकिक और निजी जीवन से जोड़कर देखा गया तो कभी अलौकिक और रहस्यमय कह दिया गया जबकि वह किसी एक स्त्री का दुख या जीवन नहीं होता उनकी कविता में वेदना, आँसू, पीड़ा की अधिकता इसी लिए है क्योंकि स्त्री जीवन में ही इन्हीं तत्वों की अधिकता है। प्रकृति के साथ वे एक होती हैं। कविताओं को ध्यान से देखा जाए तो वे सिर्फ़ पीड़ा और वेदना की कविता नहीं है बल्कि इससे भी आगे जीवन और प्रकृति के सानिध्य के साथ उल्लास की, जीवन के उत्सव की कविताएं भी हैं।
महादेवी वर्मा ने अपने निजी दुख को सिर्फ अपना नहीं माना, बल्कि उसे हर स्त्री के दुख और अंत में पूरे संसार के दुख से जोड़ दिया। जैसे उनकी पंक्तियों में— “मेरे हंसते अधर नहीं जग की आँसू लड़ियां देखो/ मेरे गीले पलक छुओ मत/ मुरझाई कलियां देखो।”
आशा और विश्वास के रूप में उनकी कविताओं का दर्शन
कहां से आए बादल…. में महादेवी कहती हैं कि “अंधकार मेरा विश्वास नहीं है। अंधकार होता तो बहुत ही है। अंधकार विस्तार में तो होता है परंतु उसमें एक दीपक भी संघर्ष कर सकता है। एक छोटे से दीपक को भी अंधेरा नहीं निगल पाता इसलिए अंधकार की चिंता न करें।” उनके यहां अंधेरा जितना गहन है अंधेरे से निकलने की चाह भी उतनी ही तीव्र है। यहां उनकी चेतना में विश्वास और उम्मीद और बार-बार दीपक की प्रबलता दिखती है। यही शायद उनकी कविताओं में जीवन की साहस और जीवन शक्ति का रूपक है।
सब बुझे दीपक जला लूं
घिर रहा तम आज दीपक रागिनी जगा लूं
पीड़ा उनकी सबसे आत्मीय केंद्र पीड़ा और वही उनकी खोज भी है लेकिन वो कहीं से कवियत्री की नितांत पीड़ा नहीं है। वो समाज में उपेक्षित स्त्रियों की सभी की पीड़ा है। किसी पलायनवादी या खुद से निराश मन की व्यथा नहीं है। पीड़ा उनके यहां जीवन-राग है जिसमें संगीत है लय है और सामजिक यथार्थ की तकलीफ है। वे पीड़ा की खोज करते हुए दरअसल जीवन के मूल का खोज करती हैं। वहां जीवन का सारा दामोदर पीड़ा पर ही है और उसी को पुकारते हुए वे जैसे अचानक कह उठती हैं “तुमको पीड़ा में ढूंढा\तुममें ढूँढंगी पीड़ा।’’ महादेवी अपने कविता में पीड़ा के ताप को बार-बार जैसे शक्ति दे रहीं हैं, उसे पुकारती हैं और जैसे यही ताप और उसकी चमक वह स्त्री के भीतर भी चाहती है। ये उनकी कविताएं ‘‘जो ज्वाला नभ में बिजली है\जिसमें रवि-शशि ज्योति जली है\तारों में बन जाती है जो\शीतलदायक उजियाला” में दिखती है।

महादेवी महिलाओं के लिए अपना आकाश चाहती थीं और उसकी प्राकृतिक शक्ति को जानती हैं। इसपर वे कहती हैं कि ”दर्पण का उपयोग तभी तक है जब तक वह किसी दूसरे की आकृति को अपने हृदय में प्रतिबिंबित करता रहा है वरना लोग उसे निरर्थक जानकर फेंक देते हैं। पुरूष के बगैर सोचे-समझे नकल ने स्त्री के व्यक्तित्व को अपना दर्पण बनाकर उसकी उपयोगिता तो सीमित कर ही दी। साथ ही समाज को भी अपूर्ण बना दिया।” यह सपना किसी मुक्ति को चाहने वाली महिला का हो सकता है, जहां वो महिला के भीतर पुरुषों के आचरण की जगह नहीं है। महादेवी की कविताओं के दुख पूरी मनुष्यता के दुख थे।
साहित्यिक आलोचक, भाषाविद्, शिक्षाविदनामवर सिंह ने इसे रेखांकित किया है कि ‘‘निजी आँसुओं के ‘नीहार’ में बंदिनी रहने वाली महादेवी ने ‘रश्मि’ के आलोक में जीवन की व्याप्ति का दर्शन किया और प्रखर ताप को झेलते हुए सांध्य क्षणों तक जाते-जाते समाजव्यापी दुख की अनुभूति करने लगी।’’ महादेवी वर्मा ने अपने निजी दुख को सिर्फ अपना नहीं माना, बल्कि उसे हर स्त्री के दुख और अंत में पूरे संसार के दुख से जोड़ दिया। जैसे उनकी पंक्तियों में— “मेरे हंसते अधर नहीं जग की आँसू लड़ियां देखो/ मेरे गीले पलक छुओ मत/ मुरझाई कलियां देखो।” वे प्रकृति से इतनी घुल-मिल गई हैं कि कई बार लगता है वे इंसान का दुख कह रही हैं, तो कई बार लगता है जैसे प्रकृति का दुख बयान कर रही हों। उनकी कविता में अमूर्त भावनाएँ भी अचानक बहुत ठोस और साफ़ रूप में सामने आ जाती हैं। कई बार तो लगता है जैसे वो खुद ही उन भावनाओं का रूप ले लेती हैं।
नारीवादी हिंदी कविता की ज़मीन महादेवी के हाथों से रखे गये दीपों से जगमगाता रहता है। एक प्रखर चेतना से भरी हुई वह कवियत्री और लेखिका के रूप में वह हमेशा इतिहास में रहेंगी। भारतीय साहित्य, कविता या स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका हमेशा मौजूद रहेगा।
पितृसत्ता और समानता की पुकार
महादेवी की कविताओं में एक और खास बात है कि कई जगह वे छायावाद की परंपरा को पार करके सीधे एक नई और आधुनिक स्त्री की आवाज़ बन जाती हैं। जैसे उन्होंने लिखा है- “उनसे कैसे छोटा है, मेरा यह भिक्षुक जीवन’’ (यामा)। अपनी कविताओं में वे निरंतर अपनी अस्मिता के प्रति जागरूक है, वह अपने अस्तित्व को कहीं भी कम करके नहीं आंकती और बराबरी का दावा करती है। उनको विरह की कवि कहा जाता है। जैसे- “मिलन का मत नाम ले मई चिर विरह में हूं, विरह जिसका उद्गम है प्रेम।” इसलिए प्रेम ही महादेवी का मूल स्वर है लेकिन वह व्यक्तिक भर नहीं है। विरह की कविताओं में सम्पूर्ण स्त्री-जाति के गहरे विषाद की भी छाया है। महादेवी के यहां विरहिणी की पीड़ा उसके प्रेमी से बिछड़ने की नहीं है। बल्कि भारतीय स्त्री का, इस अन्यायपूर्ण जीवन में शक्तिहीन और अधिकारहीन होने के कारण दुख है। वो इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था को भली भाति समझ गयीं थीं जहां मनुष्य में समानता नहीं, स्त्री-पुरुष में समानता नहीं। ऐसे समाज में भला प्रेम में कहां से समानता होगी। इसलिए, उनके जीवन में कविताओं में लगातार प्रेम का स्थगन दिखता है और अपनी कविता में वे जैसे पुकार उठती हैं कि– “पंथ रहने दो अपरचित\ प्राण रहने अकेला।
साहित्य और समाज में महादेवी की विरासत

जब तक का प्रेम का इच्छित संसार नहीं बनता तब तक महादेवी का दीपक अकेला जलेगा।” महादेवी वर्मा की कविताओं में दुख और विरह दोनों का रंग बहुत गाढ़ा है। जैसे- “मैं नीर भरी दुख की बदली\परिचय इतना इतिहास यही।” देखा जाए तो भारतीय समाज में स्त्री इतिहास और परिचय भी ये कविता हो सकती है। वे स्त्री के संघर्ष की राह कितनी लम्बी और दुर्गम है अपनी कविता के माध्यम से कहती रहीं हैं– “जाग तुझको दूर जाना।” सम्पूर्ण स्त्री संसार की लड़ाई को बेचैनी को को जैसे वह आवाज़ दे रहीं हैं कि स्त्री संघर्ष की मंजिल दूर है, उसे चलते रहना होगा। बार-बार उनकी कविताओं एकाएक आक्रोश के स्वर फूट पड़ते हैं।” जैसे, अकुला कर वह कविता कहती हैं कि “तोड़ दो वह क्षितिज में भी देख लूं कि उस ओर क्या है।”
महिलाओं की मुक्ति को लेकर महादेवी के भीतर इतना उद्वेग इतनी छटपटाहट और इतनी गहरी पीड़ा है कि वे बार-बार निराशा की तरफ जाती हुई दिखती हैं फिर जैसे कोई आस पकड़ लौट आती हैं। प्रकति उनकी सहचरी है। उसी से वे अपना अंतर्मन कहती रहती हैं।
नारीवादी हिंदी कविता की ज़मीन महादेवी के हाथों से रखे गये दीपों से जगमगाता रहता है। एक प्रखर चेतना से भरी हुई वह कवियत्री और लेखिका के रूप में वह हमेशा इतिहास में रहेंगी। भारतीय साहित्य, कविता या स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका हमेशा मौजूद रहेगा। वर्जिनिया वुल्फ का कथन है कि “इतिहास में जो कुछ अनाम है वो औरत से जुड़ा है।” महादेवी वर्मा की कविताओं में औरत का वही अदृश्य दृश्य बनकर अपनी उपस्थिति को दर्ज करता है। उन्होंने नारी चेतना के अपने चिर-परिचित स्वर से साहित्य के इतिहास में स्त्री को उसकी अस्मिता के साथ दर्ज किया। महादेवी वर्मा की विरह और एकांत की कविताओं में सम्पूर्ण भारतीय महिलाओं का विषाद जैसे छाया बनकर डोलता रहता है। आधुनिक हिंदी कविता में उनकी कविताएं स्तंभ की तरह हैं जहां स्त्री-अस्मिता का विमर्श कोमल या दुख के स्वरुप में ही सही लेकिन आवाज में दृढ दिखता है। महादेवी वर्मा की कवितायें हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं।

