इतिहास पितृसत्ता को चुनौती देने वाली गोंडवाना की जननायिका रानी दुर्गावती |#IndianWomenInHistory

पितृसत्ता को चुनौती देने वाली गोंडवाना की जननायिका रानी दुर्गावती |#IndianWomenInHistory

रानी दुर्गावती ने ऐसा नेतृत्व किया जिसमें सबको साथ लेकर चलना शामिल था। उन्होंने अपने कामों से दिखाया कि औरत और मर्द बराबर हैं और दोनों समाज की ताकत हैं। उनका शासन यह साबित करता है कि जब कोई महिला सत्ता संभालती है, तो उसका नजरिया सिर्फ़ औरतों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि पूरे समाज के लिए नई राह खोलता है।

भारतीय समाज के इतिहास में यह साफ दिखता है कि पितृसत्ता ने महिलाओं को अक्सर घर और परिवार की सीमाओं तक ही बांधकर रखा। जन्म से ही उन्हें यह सिखाया गया कि उनका जीवन अनुशासन और आज्ञाकारिता में बीतेगा, जबकि फैसले लेने का अधिकार पुरुषों के पास होगा। समाज ने यह मान लिया था कि स्त्रियों का काम सिर्फ पालन करना है, न कि नेतृत्व करना। युद्ध, सत्ता और निर्णय जैसे विषयों पर महिलाओं को अयोग्य समझा गया। लेकिन इतिहास यह भी कहता है कि हर दौर में कुछ साहसी महिलाएं उठ खड़ी हुईं, जिन्होंने इस सोच को चुनौती दी और साबित किया कि क्षमता किसी एक जेंडर में बांधा नहीं जा सकता। इन्हीं में से एक थीं रानी दुर्गावती, जिन्होंने अपनी अद्भुत शक्ति और नेतृत्व से पितृसत्तात्मक धारणाओं को तोड़ा और इतिहास में अमिट छाप छोड़ी। उस दौर में जब योद्धा का मतलब सिर्फ़ पुरुष माना जाता था, रानी दुर्गावती ने इस सोच को बदल दिया। उन्होंने न केवल तलवार उठाई बल्कि अपने साहस से नेतृत्व की मिसाल कायम की। दुर्गावती ने यह साबित किया कि औरत केवल घर-परिवार की देखभाल करने वाली नहीं है, बल्कि अपनी पूरी प्रजा की रक्षा करने में भी सक्षम है। उनके बलिदान और हिम्मत ने उस सोच को चुनौती दी, जो स्त्री को कमज़ोर मानती थी।

रानी दुर्गावती का शासन काल

रानी दुर्गावती गढ़ा राज्य की वीर और न्यायप्रिय महारानी थीं। उनका जन्म 1524 में उत्तर प्रदेश के महोबा में चंदेल वंश में हुआ था। बचपन से ही वे पढ़ाई, शस्त्र-विद्या, घुड़सवारी और तीरंदाज़ी सीखने लगीं। उस समय यह असामान्य था क्योंकि पितृसत्तात्मक सोच में लड़कियों को शिक्षा और युद्धकला से दूर रखा जाता था। लेकिन दुर्गावती ने इस सोच को चुनौती दी। उनकी शादी गोंडवाना के शासक दलपत शाह गोंड से हुई। गोंडवाना में बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय रहते थे। दलपत शाह की मृत्यु के बाद, मात्र 23 साल की उम्र में रानी दुर्गावती ने शासन की जिम्मेदारी संभाली। शुरू में दरबारियों को उन पर संदेह था, क्योंकि उस दौर में महिलाओं से सत्ता संभालने की उम्मीद नहीं की जाती थी। लेकिन रानी दुर्गावती ने सभी धारणाओं को गलत साबित करते हुए अपने शासन को साहस, न्याय और दूरदर्शिता से चलाया। वे सिर्फ एक शासक ही नहीं, बल्कि आदिवासी समाज और स्त्रियों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बनीं।

गोंडवाना में बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय रहते थे। दलपत शाह की मृत्यु के बाद, मात्र 23 साल की उम्र में रानी दुर्गावती ने शासन की जिम्मेदारी संभाली। शुरू में दरबारियों को उन पर संदेह था, क्योंकि उस दौर में महिलाओं से सत्ता संभालने की उम्मीद नहीं की जाती थी।

उनका जीवन इस सोच को तोड़ता है कि महिलाएं केवल घर-परिवार तक ही सीमित रहती हैं। उन्होंने यह साबित किया कि महिलाएं भी सत्ता संभाल सकती हैं और उसे जनता के भले के लिए इस्तेमाल कर सकती हैं। अपने शासन में उन्होंने किसानों और आदिवासियों की समस्याएं सुनीं और उनके लिए न्याय किया। उस समय यह बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि ज़्यादातर राजसत्ता सिर्फ़ राजाओं और अमीरों के हित में काम करती थी। उन्होंने शिक्षा और संस्कृति को भी महत्व दिया। उनके लिए राज करना केवल युद्ध जीतने या ताक़त दिखाने का तरीका नहीं था, बल्कि लोगों की ज़िंदगी सुधारने का एक साधन था। उन्होंने समझा कि समाज का असली विकास तभी होगा, जब हर व्यक्ति तक ज्ञान और कला पहुंच सके। इसलिए उनका राज महलों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सीधे जनता के बीच पहुंचा।

सबको साथ लेकर चलने का हुनर

रानी दुर्गावती ने ऐसा नेतृत्व किया जिसमें सबको साथ लेकर चलना शामिल था। उन्होंने अपने कामों से दिखाया कि औरत और मर्द बराबर हैं और दोनों समाज की ताकत हैं। उनका शासन यह साबित करता है कि जब कोई महिला सत्ता संभालती है, तो उसका नजरिया सिर्फ़ औरतों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि पूरे समाज के लिए नई राह खोलता है। इसी वजह से उनका राज न सिर्फ़ इतिहास में महत्वपूर्ण है, बल्कि आज की नारीवादी सोच के लिए भी प्रेरणा देता है। रानी दुर्गावती ने सत्ता को हुकूमत नहीं, बल्कि जनता की सेवा माना। उस दौर में यह बहुत बड़ी बात थी, जब महिलाओं को समाज और शासन की बुनियादी भूमिकाओं से दूर रखा जाता था।

पति की मृत्यु के बाद दरबारियों का विचार था कि एक विधवा महिला सत्ता नहीं संभाल सकती। मगर रानी दुर्गावती पीछे नहीं हटीं। उन्होंने अपने छोटे बेटे के नाम पर शासन की बागडोर संभाली और कुशल प्रशासन से प्रजा का विश्वास जीत लिया। उन्होंने जनता के दुख-दर्द को समझा और न्याय व सेवा को सबसे बड़ा धर्म माना।

गोंडवाना पर आक्रमण और उनका नेतृत्व

1564 में जब मुगल सम्राट अकबर के सेनापति आसफ़ खान ने गोंडवाना पर आक्रमण किया, तो रानी दुर्गावती के सामने कठिन चुनौती थी। दरबारियों ने उन्हें आत्मसमर्पण करने की सलाह दी, लेकिन रानी ने साफ कहा कि सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए युद्ध करना ही उचित है। वे घोड़े पर सवार होकर खुद सेना का नेतृत्व करने उतरीं। सीमित संसाधनों और कम सैनिकों के बावजूद उन्होंने मुग़लों को डटकर मुकाबला दिया। जब पराजय लगभग तय हो गई, तब उन्होंने आत्मबलिदान का मार्ग चुना। यह निर्णय केवल ‘बलिदान’ नहीं था, बल्कि अपने जीवन और मृत्यु पर खुद फैसला लेने का अधिकार था। रानी का यह कदम पितृसत्ता और साम्राज्यवादी ताकतों दोनों के खिलाफ साहसिक चुनौती था।

तस्वीर साभार: Wikipedia

रानी दुर्गावती का जीवन हमें यह सिखाता है कि महिलाएं केवल घर तक सीमित नहीं होतीं। वे राज्य, सेना और पूरी प्रजा की जिम्मेदारी भी उठा सकती हैं। उन्होंने अपने जीवन के हर फैसले से समाज की बनाई पितृसत्तात्मक दीवारों को चुनौती दी। रानी ने साबित किया कि बुद्धिमत्ता, पराक्रम और नेतृत्व किसी एक जेंडर के अधिकार में नहीं हैं। उनका बचपन भी साधारण राजकुमारियों जैसा नहीं था। उन्हें शिक्षा दी गई और शस्त्र चलाने की विद्या भी सिखाई गई। उस समय यह बहुत असामान्य था, क्योंकि लड़कियों को ऐसी शिक्षा कम ही मिलती थी। लेकिन रानी ने न केवल इन शिक्षाओं को सीखा, बल्कि आगे चलकर इन्हीं गुणों के सहारे अपने शासन और नेतृत्व को मजबूत किया।

पति के मौत बाद राजदरबार की देखभाल

पति की मृत्यु के बाद दरबारियों का विचार था कि एक विधवा महिला सत्ता नहीं संभाल सकती। मगर रानी दुर्गावती पीछे नहीं हटीं। उन्होंने अपने छोटे बेटे के नाम पर शासन की बागडोर संभाली और कुशल प्रशासन से प्रजा का विश्वास जीत लिया। उन्होंने जनता के दुख-दर्द को समझा और न्याय व सेवा को सबसे बड़ा धर्म माना। सबसे कठिन समय तब आया जब मुग़ल सेनापति आसफ खान ने उनके राज्य पर आक्रमण किया। दरबारियों ने उन्हें आत्मसमर्पण की सलाह दी। लेकिन रानी ने साफ़ कह दिया कि “सिंहनी के लिए यह शोभा नहीं देता कि वह सियारों से समझौता करे।” यह केवल एक युद्ध नहीं था, बल्कि स्त्री के आत्मसम्मान और पितृसत्ता के बीच सीधी टक्कर थी। युद्ध में गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद रानी पीछे हटने को तैयार नहीं हुईं। उन्होंने शत्रु के हाथों बंदी बनने के बजाय आत्मबलिदान को चुना। यह कदम केवल वीरता का नहीं, बल्कि आत्मसम्मान की रक्षा का प्रतीक था।

1564 में जब मुगल सम्राट अकबर के सेनापति आसफ़ खान ने गोंडवाना पर आक्रमण किया, तो रानी दुर्गावती के सामने कठिन चुनौती थी। दरबारियों ने उन्हें आत्मसमर्पण करने की सलाह दी, लेकिन रानी ने साफ कहा कि सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए युद्ध करना ही उचित है। वे घोड़े पर सवार होकर खुद सेना का नेतृत्व करने उतरीं।

रानी दुर्गावती सिर्फ़ एक योद्धा नहीं थीं, बल्कि ऐसी स्त्री थीं जो हर परिस्थिति में अपने सम्मान और स्वतंत्रता की रक्षा करना जानती थीं। उनका जीवन आज भी हमें प्रेरणा देता है कि कठिनाइयों के सामने हार मानने के बजाय साहस के साथ डटे रहना चाहिए। आज भी राजनीति और समाज में महिलाओं की भागीदारी सीमित है। खासकर आदिवासी, दलित और ग्रामीण महिलाओं की आवाज़ अक्सर दबा दी जाती है। ऐसे समय में रानी दुर्गावती का जीवन हमें याद दिलाता है कि सत्ता और नेतृत्व में महिलाओं की बराबरी कितनी ज़रूरी है।

रानी दुर्गावती का जीवन इस बात का प्रमाण है कि औरतें सिर्फ घर की रक्षक नहीं होतीं, बल्कि समाज और इतिहास की निर्माता भी होती हैं। उन्होंने अपने साहस और नेतृत्व से यह साबित किया कि महिलाएं किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में रानी दुर्गावती को आज भी जन-नायिका के रूप में याद किया जाता है। उनके नाम पर विश्वविद्यालय, संग्रहालय और स्मारक बनाए गए हैं। यह उनकी ऐतिहासिक और सामाजिक भूमिका की मान्यता है। उनकी कहानी हमें यह भी सिखाती है कि औरतों के बिना इतिहास अधूरा है। जब भी महिलाएं पितृसत्ता की जंजीरों को तोड़ती हैं, तो वे न केवल खुद को बल्कि पूरे समाज को नई दिशा देती हैं। वह यह संदेश देती हैं कि असली बराबरी तभी संभव है जब हर तबके की महिला , चाहे वह रानी हो, किसान या आदिवासी महिला, उनकी कहानी सुनी और लिखी जाए।

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