हमारे देश में माँ बनना हमेशा भगवान का आशीर्वाद या एक बहुत बड़ी कामयाबी कि तरह माना गया है। विज्ञापनों से लेकर फिल्मों तक “माँ” की महिमा का गुणगान किया जाता है। लेकिन, जैसे ही बात कामकाजी माताओं के अधिकारों की आती है, समाज और संस्थाएं अक्सर उनका साथ छोड़ देती हैं। ऐसे में जो मातृत्व जीवन का उत्सव होना चाहिए, वह कामकाजी महिलाओं के लिए कई बार नौकरी और करियर पर संकट बन जाता है। कई कंपनियों और दफ्तरों में अब भी यह सोच है कि गर्भवती महिला या माँ बनने के बाद महिला पहले जैसी सक्षम नहीं रह जाती। यही सोच महिलाओं के प्रति भेदभाव और असमान व्यवहार को जन्म देती है। हालांकि इनसे बचने के लिए मातृत्व सुरक्षा कानून बनाया गया।
लेकिन, ये कागज़ पर जितना मजबूत और सुंदर दिखता है, ज़मीन पर उतना ही अधूरा और खोखला साबित होता है। इस कानून के अनुसार संगठित क्षेत्र की महिलाओं को माँ बनने पर 26 हफ्ते तक का मातृत्व अवकाश, नौकरी में सुरक्षा, क्रेच की सुविधा और स्तनपान के लिए समय मिलना चाहिए। लेकिन, अनुभव बताते हैं कि दफ्तरों की असलियत इससे बिल्कुल इतर है। कई महिलाएं कहती हैं कि जैसे ही वे गर्भवती होने की सूचना देती हैं, उन्हें महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स से हटा दिया जाता है या प्रमोशन की संभावना तुरंत खत्म कर दी जाती है। इस विषय पर कानपुर की शिप्रा, जो एक प्राइवेट फर्म में अकाउंट्स का काम करती थीं, बताती हैं, “मुझे लगा था कि दफ्तर में सब खुश होंगे, लेकिन जैसे ही मैंने मैनेजर को बताया कि मैं माँ बनने वाली हूं, उन्होंने तुरंत कहा कि आप अब इस्तीफ़ा देकर आराम कीजिए। उस पल मुझे लगा जैसे मैं कंपनी के लिए बोझ बन गई हूं।”
मुझे लगा था कि दफ्तर में सब खुश होंगे, लेकिन जैसे ही मैंने मैनेजर को बताया कि मैं माँ बनने वाली हूं, उन्होंने तुरंत कहा कि आप अब इस्तीफ़ा देकर आराम कीजिए। उस पल मुझे लगा जैसे मैं कंपनी के लिए बोझ बन गई हूं।
यह स्थिति सिर्फ़ प्राइवेट कंपनियों की नहीं है, बल्कि कई सामाजिक काम करने वाली कई संस्थाओं में भी देखने को मिलती है। कागज़ों और रिपोर्टों में ये संस्थाएं महिला अधिकार, सामाजिक सुरक्षा और बराबरी की बात तो करती हैं, लेकिन जब उनकी अपनी महिला कर्मचारी मातृत्व अवकाश की ज़रूरत जताती हैं, तो सारी बड़ी-बड़ी बातें पीछे छूट जाती हैं। लखनऊ की पूनम, जो लड़कियों की शिक्षा और अधिकारों पर काम करने वाली एक संस्था में काम करती हैं बताती हैं, “मेरे यहां मातृत्व अवकाश की पॉलिसी तो है, लेकिन जब मैंने छह महीने की छुट्टी के लिए मैनेजर से कहा, तो उन्होंने जवाब दिया कि आप छुट्टी नहीं, इस्तीफ़ा दीजिए। जब आप ठीक हो जाएंगी तो दोबारा आकर जॉइन कर लेना। बिना मतलब इतने दिन की तनख़्वाह कोई नहीं देगा। और वैसे भी, बच्चे के बाद आप काम पर कितना ध्यान दे पाएंगी।” ऐसे अनेक घटनाएं दिखाती हैं कि कानून काग़ज़ पर भले मजबूत हो, लेकिन हकीकत में मातृत्व अवकाश मांगना कई बार नौकरी से हाथ धोने जैसा है।
क्या केवल प्रगतिशील कानून काफी है?

इंडियास्पेन्ड की एक रिपोर्ट अनुसार भारत में मातृत्व लाभ संबंधी कानून सबसे प्रगतिशील कानूनों में से एक हैं। लेकिन, भारत के अधिकतर कार्यबल अनौपचारिक कामों में लगे हुए हैं। इसके अलावा, यह कानून छोटी फर्मों को ये लाभ प्रदान करने से छूट देता है। नतीजन, सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि देश में 93.5 फीसद महिला श्रमिक मातृत्व लाभ प्राप्त नहीं कर पाती हैं। बिज़नेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट बताती है कि 75 फीसद महिलाओं ने माना कि मातृत्व अवकाश लेने के बाद उनके करियर को 1–2 साल का नुकसान हुआ। लगभग 40 फीसद महिलाओं का कहना है कि अवकाश के बाद उनकी सैलरी पर सीधा असर पड़ा। कई महिलाओं ने यह भी साझा किया कि उनके काम की भूमिका बदल दी गई या उन्हें कम महत्व वाले पदों पर भेज दिया गया।
बिज़नेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट बताती है कि 75 फीसद महिलाओं ने माना कि मातृत्व अवकाश लेने के बाद उनके करियर को 1–2 साल का नुकसान हुआ। लगभग 40 फीसद महिलाओं का कहना है कि अवकाश के बाद उनकी सैलरी पर सीधा असर पड़ा। कई महिलाओं ने यह भी साझा किया कि उनके काम की भूमिका बदल दी गई या उन्हें कम महत्व वाले पदों पर भेज दिया गया।
भारत में आज सरोगेसी से गुजरने वाली महिला सरकारी कर्मचारियों के लिए भी मातृत्व अवकाश लेने के प्रावधान शामिल किए गए हैं। नियम अब यह सुनिश्चित करते हैं कि ऐसी स्थिति में दो से कम जीवित बच्चों वाली महिलाएं 180 दिनों के मातृत्व अवकाश की हकदार हैं। हालांकि मातृत्व लाभ अधिनियम साल 1961 में बना था। इसमें साल 2017 में महत्वपूर्ण बदलाव किए गए। इन बदलावों के तहत, दो बच्चों तक की माताओं को अब 26 हफ्ते का सवेतन अवकाश मिलता है। वहीं, दत्तक माताओं और सरोगेसी से मातृत्व पाने वाली महिलाओं को 12 हफ्ते का अवकाश देने का प्रावधान किया गया। इस संशोधन में यह भी तय किया गया कि नियोक्ता महिलाओं को गैर-समाप्ति और निष्पक्ष व्यवहार नीतियों का पालन करते हुए काम दें। कंपनियों को यह प्रोत्साहन दिया गया कि वे महिलाओं को घर से काम करने की सुविधा दें। इसके अलावा, 50 से ज्यादा कर्मचारियों वाली कंपनियों के लिए कार्यस्थल पर एक क्रेच (शिशु देखभाल केंद्र) बनाना अनिवार्य किया गया। इसका पूरा खर्च नियोक्ता को उठाना होगा।

सिर्फ अनुभव ही नहीं, बल्कि शोध भी यही दिखाते हैं कि मातृत्व सुरक्षा कानून का असर बहुत सीमित है। हालांकि मातृत्व सुरक्षा कानून संगठित क्षेत्र की महिलाओं के एक बड़ा विक्लप है लेकिन, मातृत्व सुरक्षा कानून महिलाओं को सिर्फ गर्भवती होने पर अवकाश का अवसर और अधिकार ही नहीं देता बल्कि कई बार यह उनके लिए सज़ा की तरह साबित होता है। इस प्रवृत्ति को ही हम ‘मातृत्व दंड’ कहते हैं, जहां मातृत्व महिलाओं के करियर और उनके पेशेवर विकास में रुकावट बन जाती है। एनडीटीवी की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2018–19 में कानून लागू होने के बाद लगभग 11 से 18 लाख महिलाओं की नौकरियां जाने का अनुमान लगाया गया था।
एनडीटीवी की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2018–19 में कानून लागू होने के बाद लगभग 11 से 18 लाख महिलाओं की नौकरियां जाने का अनुमान लगाया गया था।
यह स्थिति दिखाती है कि जब कंपनियों पर महिलाओं को अधिकार देने का दबाव पड़ता है, तो वे जिम्मेदारी निभाने के बजाय उन्हें नौकरी से बाहर करना आसान समझती हैं। बीबीसी की एक रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि भारत में बड़ी संख्या में महिलाएं बच्चे होने के बाद नौकरी छोड़ने को मजबूर हो जाती हैं। इसकी मुख्य वजह है कार्यस्थलों पर लचीले समय की कमी, क्रेच जैसी सुविधाओं का न होना और संवेदनशील माहौल का अभाव। यानी, मातृत्व कई महिलाओं के लिए पेशेवर जीवन को जारी रखने की राह में सबसे बड़ी रुकावट बन जाता है।
पितृसत्ता और पूंजीवाद का गठजोड़

यह सिर्फ़ मातृत्व का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह पितृसत्ता और पूंजीवाद का गठजोड़ भी है। पूंजीवादी व्यवस्था में नियोक्ताओं को ऐसे श्रमिक चाहिए जो चौबीसों घंटे उपलब्ध रहें और जिनके ऊपर देखभाल की कोई ज़िम्मेदारी न हो। इसी तर्क से महिलाएं हमेशा कमज़ोर या कमतर श्रमिक मानी जाती हैं। पितृसत्ता इस सोच को और गहरा करती है, क्योंकि अमूमन बच्चों की देखभाल को केवल माँ की ज़िम्मेदारी समझ लिया जाता है। कानून भी पितृत्व अवकाश को अनदेखा कर देता है, जिसका नतीजा यह होता है कि पूरा बोझ महिला पर ही आ जाता है। इस तरह यह कानून अनजाने में ही पितृसत्तात्मक सोच को मज़बूत करता है। वर्ग और जाति की परतें भी इस अनुभव को और जटिल बना देती हैं। संगठित क्षेत्र की सभी महिलाओं के हालात एक जैसे नहीं होते। अक्सर कथित ऊंचे वर्ग और ऊंची जाति की महिलाएं निजी अस्पतालों और निजी क्रेच का खर्च उठा पाती हैं। लेकिन, असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं विशेषकर कम वेतन पाने वाली महिलाएं काफी असुरक्षित महसूस करती हैं। उनके लिए मातृत्व अवकाश संभव नहीं होता और कई बार उनके कामकाजी जगहों पर ये प्रावधान नहीं होता।
क्या हो सकता है आगे का रास्ता
अगर सच में मातृत्व सुरक्षा को कामकाजी महिलाओं के जीवन में लागू करना है तो कई स्तरों पर बदलाव ज़रूरी हैं। कंपनियों को क्रेच और स्तनपान की सुविधाएं उपलब्ध करानी होंगी। साथ ही, पितृत्व अवकाश और जेंडर-न्यूट्रल पैरेंटल लीव को भी अनिवार्य करना होगा, ताकि बच्चे की परवरिश का पूरा बोझ केवल महिला पर न पड़े। ऑफिस संस्कृति में भी बदलाव जरूरी है। कंपनियों को यह समझना होगा कि मातृत्व किसी ‘करियर की बाधा’ नहीं है, बल्कि जीवन का स्वाभाविक हिस्सा है। जब तक महिलाएं मातृत्व के कारण कमतर समझी जाती रहेंगी, तब तक कोई भी कानून उनकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर पाएगा। मातृत्व सुरक्षा कानून कागज़ पर मजबूत दिखता है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर अक्सर खोखला साबित होता है। अनुभव और शोध बताते हैं कि महिलाएं मातृत्व अवकाश के बाद करियर में पिछड़ जाती हैं, कई बार नौकरी खो देती हैं और मानसिक दबाव झेलती हैं। मातृत्व को केवल महिला का निजी अनुभव नहीं समझा जा सकता। यह वर्ग, जाति, जेंडर और श्रम से जुड़ा सामूहिक सवाल है। जब तक इसे इस नज़रिए से नहीं देखा जाएगा, तब तक मातृत्व सुरक्षा कानून सिर्फ़ नीतियों और किताबों तक सीमित रहेगा और कामकाजी महिलाएं हर दिन उसकी हकीकत से जूझती रहेंगी।

