इंटरसेक्शनलजेंडर मातृत्व और मज़दूरी के बीच प्रवासी महिलाओं का दोहरा श्रम

मातृत्व और मज़दूरी के बीच प्रवासी महिलाओं का दोहरा श्रम

प्रवासी महिलाएं अक्सर अपने छोटे बच्चों को काम की जगहों पर साथ लेकर जाती हैं, क्योंकि उनके पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जहां वे अपने बच्चों को सुरक्षित छोड़कर काम कर सकें।

प्रवासी मज़दूरों की कहानियों में अक्सर पुरुषों की मेहनत और चुनौतियों की चर्चा होती है। लेकिन इन कहानियों के बीच एक अहम किरदार लगभग अदृश्य रह जाता है। प्रवासी महिलाएं, जो न सिर्फ मजदूर हैं, बल्कि मां भी हैं। उनका जीवन दोहरी ज़िम्मेदारियों और अंतहीन संघर्षों से भरा होता है। मातृत्व और मज़दूरी के बीच झूलती ये महिलाएं न तो ‘आदर्श मां’ की परिभाषा में फिट बैठती हैं, न ही समाज उन्हें मेहनतकश मज़दूर के रूप में स्वीकार करता है। उनके अनुभवों को समझना, उनके संघर्षों को पहचानना और उन्हें आवाज़ देना आज ज़रूरी है। प्रवासी महिलाएं  केवल मजदूर  नहीं एक माँ भी होती हैं।  उनके लिए प्रवास सिर्फ रोजगार की तलाश नहीं, बल्कि मातृत्व और जीविका के बीच लगातार जूझते  रहने का एक संघर्ष भी है। 

मातृत्व और प्रवास, दोनों ही जीवन के बेहद संवेदनशील पहलू  हैं।  लेकिन जब कोई महिला इन दोनों को एक साथ जीती है, तो उसका संघर्ष कई गुना बढ़ जाता है। हमारे  पितृसत्तात्मक समाज में वही महिला अच्छी माँ और एक अच्छी औरत  मानी जाती है,  जो समाज के बनाए हुए पुरुष प्रधान  नियमों के अनुसार चले।  वे  घरों को संभालती है और निर्माण स्थलों जैसे जगहों पर काम करती हैं। लेकिन, वे काम से लौटकर दोबारा काम पर जाती हैं और अपने बच्चों को संभालने में लग जाती है। अमूमन इन महिलाओं की थकान, भावनाओं की उलझन और समाज की बेरुखी पर बात नहीं होती। उनकी  ज़िंदगी में न कोई  मातृत्व अवकाश होता है, न डे-केयर, और न ही मानसिक स्वास्थ्य  समस्या के लिए कोई उपाए। उनके हिस्से कोई स्वास्थ्य सुविधा या वैतनिक छुट्टी नहीं आती।

वे  घरों को संभालती है और निर्माण स्थलों जैसे जगहों पर काम करती हैं। लेकिन, वे काम से लौटकर दोबारा काम पर जाती हैं और अपने बच्चों को संभालने में लग जाती है।

श्रमिक महिलाओं का पलायन और अवैतनिक काम का बोझ

साल 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की  लगभग  1.21 अरब आबादी में प्रवासियों की संख्या 455.8  लाख थी, जो कुल जनसंख्या का 37.68 प्रतिशत थी।  इसमें भारत के अलग-अलग राज्यों के प्रवासी शामिल थे।  455.8 अरब प्रवासियों में से 67.93 फीसद महिलाएं और 32.07 फीसद पुरुष थे। महिलाओं के प्रवास के मुख्य कारणों में शादी थी जोकि हमारे पितृसत्तात्मक समाज की सोच को जाहिर करती है। शादी से जुड़ा पलायन लैंगिक असमानता का एक प्रमुख उदाहरण है जहां  यह महिलाओं को अपने परिवार और समुदाय से अलग करता है। प्रवासी महिलाएं पितृसत्तात्मक समाज के तय किए गए सभी ‘अच्छी मां’ होने के मानकों को पूरा करने की कोशिश करती हैं। वे बच्चों की देखभाल, घर के अवैतनिक कार्य और सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने के साथ-साथ निर्माण स्थलों, खेतों, ईंट-भट्ठों और दूसरे लोगों के घरों में भी मज़दूरी करती हैं। लेकिन, इतने सारे कामों के बीच उनका मातृत्व अक्सर अनदेखा रह जाता है।

तस्वीर साभार: सविता

जिन प्रवासी महिलाओं के छोटे बच्चे होते हैं, उन्हें मज़दूरी के मौके कम मिलते हैं। अगर कहीं काम मिलता भी है, तो उन्हें पुरुषों की तुलना में कम मज़दूरी दी जाती है। भारत सरकार के नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) के साल 2019 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 15 से 60 वर्ष की महिलाएं और लड़कियां हर दिन औसतन 7.2 घंटे घरेलू काम करती हैं। वहीं पुरुषों का योगदान इसका आधा भी नहीं होता। यहां तक कि जो महिलाएं बाहर नौकरी या मज़दूरी करती हैं, वे भी पुरुषों की तुलना में घर के काम में दोगुना समय लगाती हैं। घरेलू श्रम को अक्सर ‘काम’ माना ही नहीं जाता। महिलाओं को बार-बार यह याद दिलाया जाता है कि घर का काम तो उसकी जिम्मेदारी है।

भारत सरकार के नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) के साल 2019 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 15 से 60 वर्ष की महिलाएं और लड़कियां हर दिन औसतन 7.2 घंटे घरेलू काम करती हैं। वहीं पुरुषों का योगदान इसका आधा भी नहीं होता।

मातृत्व में भी नहीं मिलता विश्राम

प्रवासी श्रमिक महिलाएं अक्सर प्रसव से कुछ ही दिन पहले तक काम करती हैं। इससे न केवल उनके शरीर पर असर पड़ता है, बल्कि गर्भ में पल रहे शिशु के स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसका परिणाम समय से पहले प्रसव, बच्चे का कम वजन से लेकर बच्चे की मौत के रूप में भी हो सकता है। प्रसव के कुछ ही दिनों बाद महिलाएं फिर से मज़दूरी पर लौटने को मजबूर होती हैं। उन्हें वह विश्राम नहीं मिल पाता जिसकी हर मां को ज़रूरत होती है। डबल्यूएचओ के अनुसार नवजात को छह महीने तक स्तनपान कराना आवश्यक है, क्योंकि यह शिशु के संपूर्ण विकास के लिए बेहद लाभकारी होता है। लेकिन, जब महिला को पर्याप्त आराम और समर्थन ही नहीं मिलता, तो वह अपने बच्चे को ज़रूरत के अनुसार स्तनपान नहीं करा पाती।

बुनियादी सुविधाओं से वंचित प्रवासी माँएं

व्यापार और मानवाधिकार केंद्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, अहमदाबाद की प्रवासी महिला निर्माण श्रमिकों को मातृत्व लाभ और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। अक्सर उनके पास ज़रूरी दस्तावेज़ जैसे आधार कार्ड, मातृत्व स्वास्थ्य कार्ड या अन्य पहचान पत्र नहीं होते। इसके अलावा, खराब रहन-सहन की स्थिति, ठेकेदारों के शोषण और यौन हिंसा की घटनाएं भी उनके कामकाजी जगह और जीवन को असुरक्षित बनाती हैं। इन परिस्थितियों में महिलाएं मातृत्व स्वास्थ्य सेवाओं की असमान पहुंच और संस्थागत उपेक्षा का बोझ अकेले उठाने को मजबूर हैं। न तो उन्हें सुरक्षित माहौल मिलता है, न ही संवेदनशीलता से तैयार की गई सरकारी सेवाएं।

प्रवासी श्रमिक महिलाएं अक्सर प्रसव से कुछ ही दिन पहले तक काम करती हैं। इससे न केवल उनके शरीर पर असर पड़ता है, बल्कि गर्भ में पल रहे शिशु के स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

बच्चों के साथ काम करने की मजबूरी

तस्वीर साभार: सविता

प्रवासी महिलाएं अक्सर अपने छोटे बच्चों को काम की जगहों पर साथ लेकर जाती हैं, क्योंकि उनके पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जहां वे अपने बच्चों को सुरक्षित छोड़कर काम कर सकें। निर्माण स्थलों, ईंट भट्ठों, खेतों और फैक्ट्रियों के आस-पास फटे टेंटों या मिट्टी के ढेरों के नीचे खेलते या बैठे हुए बच्चे आम दृश्य बन गए हैं। ये दृश्य केवल गरीबी का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि यह सामाजिक उपेक्षा और भेदभाव को भी बताते हैं। इन बच्चों के पास न खेलने की सुरक्षित जगह होती है, न पौष्टिक खाना, और न ही कोई देखभाल की व्यवस्था। इसका सीधा असर उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर भी पड़ता है। कई बच्चे कम उम्र में ही काम में लग जाते हैं और उनका बचपन श्रम के बोझ तले दब जाता है।

भावनात्मक श्रम और मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी

प्रवासी महिलाएं आमतौर पर अस्थायी और बेहद असुरक्षित बस्तियों में रहती हैं। ये बस्तियां अक्सर निर्माण स्थलों या खेतों के पास बनाई जाती हैं, जहां न बिजली होती है, न साफ़ पानी, न शौचालय, और न ही कोई स्वास्थ्य सेवा। वहीं, उनके काम की जगहों पर सुरक्षा के इंतज़ाम नहीं होते, मातृत्व अवकाश नहीं मिलता, और लगातार शोषण का डर बना रहता है। ऐसे हालात में जब महिलाएं अपने छोटे बच्चों को साथ लेकर या उन्हें छोड़कर काम पर जाती हैं, तो उनके ऊपर काम और मातृत्व का दोहरी जिम्मेदारी का बोझ होता है। यह स्थिति उनके भीतर गहरा भावनात्मक तनाव पैदा कर सकती है। लगातार असुरक्षा, थकावट और चिंता के कारण उन्हें मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन उनके पास न तो सहायता होती है, न परामर्श, और न ही इस संघर्ष को कोई मान्यता दी जाती है।

व्यापार और मानवाधिकार केंद्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, अहमदाबाद की प्रवासी महिला निर्माण श्रमिकों को मातृत्व लाभ और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। अक्सर उनके पास ज़रूरी दस्तावेज़ जैसे आधार कार्ड, मातृत्व स्वास्थ्य कार्ड या अन्य पहचान पत्र नहीं होते।

प्रवासी महिलाओं के मातृत्व और मानसिक स्वास्थ्य की अहमियत

तस्वीर साभार: सविता

मजदूर बस्तियों और प्रवासी समुदायों तक मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। इन इलाकों में रहने वाले लोग, खासकर महिलाएं, लगातार तनाव, चिंता और भावनात्मक थकान से जूझती हैं। लेकिन उन्हें समय पर सही मदद नहीं मिल पाती। इस कमी को दूर करने के लिए, सामुदायिक मानसिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना बेहद ज़रूरी है। साथ ही ऑनलाइन काउंसलिंग सेवाओं का विस्तार, और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा प्रशिक्षण देना आवश्यक है। महिलाओं के लिए सामुदायिक सपोर्ट ग्रुप बनाया जाना चाहिए जहां वे अपने अनुभव साझा कर सकें। क्रेच (बच्चों की देखभाल केंद्र), मातृत्व सुविधाएं, और थेरैपी की सेवाएं सुदूर ग्रामीण और कस्बीय इलाकों में उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को मिलकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रवासी महिलाओं के भावनात्मक श्रम को भी ‘काम’ के रूप में मान्यता दी जाए। ये महिलाएं घर और बाहर—दोनों जगहों पर दिनरात मेहनत करती हैं। वे सिर्फ आर्थिक योगदान नहीं देतीं, बल्कि अगली पीढ़ी को भी बिना किसी सामाजिक, स्वास्थ्य या भावनात्मक सहायता के तैयार करती हैं। समाज के मुख्यधारा के उलट, प्रवासी महिलाओं के लिए मातृत्व उन्हें श्रम से आराम या कोई खिताब नहीं देता। ये उनके लिए एक बड़ी चुनौती है जहां वे पितृसत्ता, गरीबी, असुरक्षा और कठोर नीतियों से हर दिन लड़ती हैं। इसलिए समय है कि सरकार, समाज और नीतियाँ बनाने वाले मिलकर एक ऐसी व्यवस्था बनाएं, जो प्रवासी महिलाओं को न सिर्फ़ सुरक्षा और सम्मान दे, बल्कि उनके श्रम और मातृत्व को आसान, सुरक्षित और गरिमामय भी बनाए।

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