इतिहास बुधनी मंझियाइन: पितृसत्ता और परंपरा को चुनौती देने वाली आदिवासी महिला | #IndianWomenInHistory

बुधनी मंझियाइन: पितृसत्ता और परंपरा को चुनौती देने वाली आदिवासी महिला | #IndianWomenInHistory

समारोह के बाद, जब वह अपने गांव करबोना लौटीं तो गांव के बुजुर्गों ने उन्हें बताया कि नेहरू को माला पहनाकर उन्होंने उनसे विवाह कर लिया है और चूंकि उन्होंने एक गैर संथाली से विवाह किया था, इसलिए संथाली बुजुर्गों ने उन्हें गांव से निकाल दिया और गांव छोड़ने को कहा।

बुधनी मंझियाइन, एक संथाली आदिवासी महिला, जिनका नाम भारतीय इतिहास में एक अनोखी घटना के साथ जुड़ा। साल 1959 में, जब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ पंचेत डैम का उद्घाटन किया, तो यह क्षण उनके लिए सम्मान का नहीं, बल्कि जीवनभर के सामाजिक बहिष्कार और कष्ट का कारण बन गया। उनकी कहानी नारीवादी नजरिए से न केवल आदिवासी महिलाओं की असमान स्थिति को उजागर करती है, बल्कि यह भी प्रश्न उठाती है कि कैसे पितृसत्तात्मक और सामुदायिक नियम एक महिला की एजेंसी और पहचान पर हावी हो जाते हैं।

कौन थीं बुधनी मंझियाइन?

बुधनी का जन्म लगभग साल लगभग साल 1943-1944 में हुआ था। वे संथाल समुदाय से थीं और उनका पैतृक गांव खोरबोना (तत्कालीन मानभूम जिला) था, जो डैम निर्माण के दौरान विस्थापित हो गया। वे भारतीय इतिहास में एक अनोखी घटना के लिए प्रसिद्ध हुईं, जब 1959 में मात्र 15-16 वर्ष की उम्र में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ दामोदर वैली कॉर्पोरेशन (डीवीसी) के पंचेत डैम और हाइड्रो पावर प्लांट का उद्घाटन किया। इस घटना ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई, लेकिन साथ ही उनके जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया। उन्हें अक्सर ‘नेहरू की आदिवासी पत्नी’ कहा जाता था, जो उनके सामाजिक बहिष्कार का कारण बन गया।

वे भारतीय इतिहास में एक अनोखी घटना के लिए प्रसिद्ध हुईं, जब 1959 में मात्र 15-16 वर्ष की उम्र में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ दामोदर वैली कॉर्पोरेशन (डीवीसी) के पंचेत डैम और हाइड्रो पावर प्लांट का उद्घाटन किया।

क्या थी घटना

6 दिसंबर 1959 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू झारखंड के धनबाद जिले में डीवीसी की ओर से निर्मित पंचेत डैम और हाईडल पावर प्लांट का उद्घाटन करने पहुंचे थे। ये तय हुआ कि पंडित नेहरू का स्वागत झारखंड के संथाली आदिवासी समाज की लड़की बुधनी मांझी करेगी। उस वक्त उनकी उम्र करीब 15-16 साल थी। पारंपरिक आदिवासी परिधान पहने बुधनी ने पंडित नेहरू का स्वागत करते हुए उन्हें माला पहनाया था। पंडित नेहरू ने बुधनी का सम्मान करते हुए अपने गले की माला उतारकर उसके गले में डाल दी। पंडित नेहरू ने पनबिजली प्लांट का उद्घाटन भी बुधनी के हाथों बटन दबाकर कराया। यह नेहरू का आम लोगों से जुड़ाव का प्रतीक था। लेकिन, इस घटना की तस्वीरें अखबारों के पहले पेज पर छपीं और बुधनी रातोंरात प्रसिद्ध हो गईं। लेकिन, तब 15 साल की इस लड़की को कहां पता था कि प्रधानमंत्री की मौजूदगी में मिला सम्मान उसके अपने ही समाज में उसके तिरस्कार और बहिष्कार की वजह बन जाएगा? 

तस्वीर साभार: Star of Mysore

समारोह के बाद, जब वह अपने गांव करबोना लौटीं तो गांव के बुजुर्गों ने उन्हें बताया कि नेहरू को माला पहनाकर उन्होंने उनसे विवाह कर लिया है और चूंकि उन्होंने एक गैर संथाली से विवाह किया था, इसलिए संथाली बुजुर्गों ने उन्हें गांव से निकाल दिया और गांव छोड़ने को कहा। नेहरू के माला पहनाए जाने को उनके समुदाय ने समुदाय से बाहर शादी के रूप में देखा। नतीजतन, बुधनी को उनके परिवार और समुदाय ने बहिष्कृत कर दिया। उन्हें ‘नेहरू की दूसरी पत्नी’ या ‘आदिवासी पत्नी’ कहकर ताने दिए जाते रहे। वे 60-70 सालों तक इस बहिष्कार का दंश झेलती रहीं, जिससे उन्हें सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक कष्ट सहना पड़ा। 

समारोह के बाद, जब वह अपने गांव करबोना लौटीं तो गांव के बुजुर्गों ने उन्हें बताया कि नेहरू को माला पहनाकर उन्होंने उनसे विवाह कर लिया है और चूंकि उन्होंने एक गैर संथाली से विवाह किया था, इसलिए संथाली बुजुर्गों ने उन्हें गांव से निकाल दिया और गांव छोड़ने को कहा।

नारीवादी दृष्टिकोण से बुधनी की कहानी को समझने के लिए हमें सबसे पहले उनके सामाजिक संदर्भ को देखना होगा। एक संथाली आदिवासी महिला के रूप में, बुधनी पहले से ही उन सामाजिक संरचनाओं में हाशिए पर थीं, जो न केवल जाति और वर्ग, बल्कि लिंग के आधार पर भी भेदभाव करती थीं। संथाल समुदाय में महिलाओं को परंपरागत रूप से कुछ स्वायत्तता मिलती है, लेकिन सामुदायिक नियमों और पितृसत्तात्मक संरचनाओं के दायरे में। बुधनी का डैम उद्घाटन में भाग लेना, जिसमें उन्होंने नेहरू को माला पहनाई और उनके साथ बटन दबाकर डैम का उद्घाटन किया, एक ऐतिहासिक क्षण था। यह एक ऐसी महिला की सार्वजनिक उपस्थिति थी, जो आम तौर पर समाज में हिस्सेदारी या ऐसी भूमिकाओं और अवसरों से वंचित रहती थी। लेकिन यह सम्मानजनक क्षण जल्द ही उनके लिए मुश्किल बन गया।

बुधनी मंझियाइन का निधन 17 नवंबर 2023 को हुआ, लेकिन उनकी कहानी आज भी प्रासंगिक है। उनकी जिंदगी एक ऐसी महिला की कहानी है, जिसने अनजाने में पितृसत्तात्मक और सामुदायिक नियमों को चुनौती दी, लेकिन इसके लिए भारी कीमत चुकाई।

नेहरू के माला पहनाए जाने को उनके समुदाय ने विवाह के रूप में समझा, जिसके कारण उन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। बुधनी की कहानी पितृसत्तात्मक संरचनाओं के क्रूर चेहरे को उजागर करती है। संथाल परंपरा में माला पहनाने का प्रतीकात्मक अर्थ विवाह से जोड़ा गया, जिसने बुधनी को ‘नेहरू की आदिवासी पत्नी’ जैसी संज्ञा दी। यह घटना नारीवादी नजरिए से इस बात का प्रतीक है कि कैसे एक महिला की सार्वजनिक भागीदारी को सामुदायिक और पितृसत्तात्मक ढांचे द्वारा दंडित किया जा सकता है। बुधनी की स्वायत्तता, जो उन्हें उस मंच पर ले गई थी, उसे उनके ही समुदाय ने छीन ली क्योंकि ये परंपरागत लैंगिक नियमों के उल्लंघन के रूप में देखा गया। 

बुधनी मंझियाइन का निधन 17 नवंबर 2023 को हुआ, लेकिन उनकी कहानी आज भी प्रासंगिक है। उनकी जिंदगी एक ऐसी महिला की कहानी है, जिसने अनजाने में पितृसत्तात्मक और सामुदायिक नियमों को चुनौती दी, लेकिन इसके लिए भारी कीमत चुकाई। उनकी कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि कैसे समाज में महिलाओं की सार्वजनिक उपस्थिति को अभी भी नियंत्रित करने की कोशिश की जाती है। उनकी जिंदगी हमें यह सिखाती है कि कैसे एक महिला की छोटी-सी कार्रवाई को सामाजिक संरचनाएं दंड में बदल सकती हैं। साथ ही, यह हमें यह भी याद दिलाती है कि महिलाओं की स्वायत्तता और सम्मान के लिए संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है। बुधनी की कहानी न केवल एक व्यक्तिगत त्रासदी है, बल्कि उन सभी आदिवासी महिलाओं की कहानी है, जो विकास, परंपरा और पितृसत्ता के बीच पिसती रही हैं। उनकी विरासत को जीवित रखना महत्वपूर्ण है ताकि भविष्य में कोई और बुधनी को सामाजिक बहिष्कार का सामना न करना पड़े।

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