संस्कृतिकिताबें डॉ. तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’: दलित जीवन, अंधविश्वास और संघर्ष की दास्तान

डॉ. तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’: दलित जीवन, अंधविश्वास और संघर्ष की दास्तान

‘मुर्दहिया’ दलित साहित्यकार डॉ.तुलसीराम की आत्मकथा है, जिसके माध्यम से लेखक ने कई सालों से दलित आत्मकथाओं में साहित्य जगत के रूढ़िवादी नियमों को तोड़कर अपने जीवन से जुड़ी सच्चाई और भेदभाव की घटनाओं को खुल कर व्यक्त किया है।

‘मुर्दहिया दलित साहित्यकार डॉ.तुलसीराम की आत्मकथा है, जिसके माध्यम से लेखक ने कई सालों से दलित आत्मकथाओं में साहित्य जगत के रूढ़िवादी नियमों को तोड़कर अपने जीवन से जुड़ी सच्चाई और भेदभाव की घटनाओं को खुल कर व्यक्त किया है। जो एक दलित बच्चे के बचपन से लेकर उसके शिक्षित और जागरूक बनने तक की यात्रा को दिखाती है। इसमें लेखक ने अपने जीवन के अनुभवों के माध्यम से जातिगत भेदभाव, गरीबी, अंधविश्वास और सामाजिक अन्याय की सच्चाई को दिखाया है। इसके बारे में बताते हुए वह लिखते हैं, ‘मुर्दहिया हमारे गांव धरमपुर की बहुउद्देशीय कर्मस्थली थी। चरवाही से लेकर हरवाही यानी हल जोतने वाला व्यक्ति तक के सारे रास्ते वहीं से होकर गुजरते थे। हमारे जीवन से लेकर मरण तक सारी गतिविधियां मुर्दहिया समेट लेती थी। यह मानव और पशु में कोई फर्क नहीं करती थी। हमारी तथाकथित दलित बस्ती के अनगिनत व्यक्ति हज़ारों दुख -दर्द अपने अंदर लिये मुर्दहिया में दफन हो गये थे। अगर उनमें से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो उसका शीर्षक ‘मुर्दहिया’ ही होता। यह सही मायने में हमारी दलित बस्ती की जिंदगी थी।’ मुर्दहिया तुलसीराम के गांव की दलित बस्ती का मैदानी इलाका था। 

इस आत्मकथा का पहला खंड ‘भुतही पारिवारिक पृष्ठभूमि’ में वह अंधविश्वास का ज़िक्र करते हैं, जिसमें जातिगत हिंसा का वर्णन करते हुए अपने दादा की मृत्यु के बारे में बताते हुए लिखते हैं कि उनके दादा खेत की रखवाली करते थे। उन्होंने एक रोज़, एक साही को मटर की फली खाते देखकर उसे लाठी से मार दिया था, जिसके बाद अगले दिन वह साही उनके दादा को खलिहान में अकेले सोता देख लाठी लेकर आता है और उनकी पीट -पीट कर हत्या कर देता है। कौन था वह साही? जिसकी चोरी पकड़े जाने के बाद उसे अपमान महसूस हुआ। उनके दलित बस्ती के लोगों का कहना था वह साही भूत था। ज़ाहिर है उस घोर अन्धविश्वासी परिवेश में तुलसीराम की सोच इससे अलग नहीं थी। 

मुर्दहिया हमारे गांव धरमपुर की बहुउद्देशीय कर्मस्थली थी। चरवाही से लेकर हरवाही यानी हल जोतने वाला व्यक्ति तक के सारे रास्ते वहीं से होकर गुजरते थे। हमारे जीवन से लेकर मरण तक सारी गतिविधियां मुर्दहिया समेट लेती थी। यह मानव और पशु में कोई फर्क नहीं करती थी।

दलित समुदाय और अंधविश्वास

गांव में कथित दलित समुदाय के व्यक्तियों का पढ़ा -लिखा न होने के कारण जब वह चिठ्ठी या ज़रूरी काग़ज पढवाने तथाकथित स्वर्ण टोली में जाते थे, तब उन्हें बहुत अपमान सहन करना पड़ता था। जिस अपमान का परिणाम यह हुआ कि तुलसीराम को स्कूल भेजने का फैलसा लिया गया ताकि वह चिट्ठी पढ़ने योग्य हो जायें। वह दलित समाज में फैले अंधविश्वासों का ज़िक्र भी आलोचनात्मक ढंग से करते हुए नज़र आये हैं। आज़ादी के बाद दलित समुदाय में डांगर यानी मरे हुए पशुओं के मांस को खाने पर रोक लगा दी गई थी। ऐसा करते हुए पकड़े जाने पर पंचायत सजा के तौर पर दोषी और उसके परिवार को कुजाति घोषित कर दिया जाता था या बिरादरी से बाहर कर दिया जाता था। बिरादरी में वापस आने की प्रक्रिया पूरे दलित समाज को सूअर भात खिला कर पश्चताप करना पड़ता था।

तब जाकर उस डांगर खाने वाले व्यक्ति की बिरादरी में वापसी होती थी।आमतौर पर बिरादरी से निकाले गए व्यक्ति को अपनी बिरादरी में वापस आने और पश्चताप की प्रक्रिया में भारी कर्ज हो जाता था। शादी से पहले अगर कोई महिला गर्भवती हो जाती थी तब भी उसके परिवार को बिरादरी से बाहर कर दिया जाता था और दंड के रूप में उस गर्भवती महिला का बड़ी बर्बरता से गांव की महिलाएं एबॉर्शन करवा देती थीं। बिरादरी में वापस आने की वही प्रक्रिया सूअर भात खिला कर दोहराई जाती थी। इस अंधविश्वास जिसके चलते न केवल कथित स्वर्णों ने दलित समुदाय के व्यक्तियों का शोषण किया है, बल्कि ख़ुद दलित समाज के लोग भी अपने लोगों पर बर्बरता दिखाते थे। लेखक ने खुल कर इसकी निंदा की है।

आज़ादी के बाद दलित समुदाय में मरे हुए पशुओं के मांस को खाने पर रोक लगा दी गई थी। ऐसा करते हुए पकड़े जाने पर पंचायत सजा के तौर पर दोषी और उसके परिवार को बिरादरी से बाहर कर दिया जाता था। बिरादरी में वापस आने की प्रक्रिया पूरे दलित समाज को सूअर भात खिला कर पश्चताप करना पड़ता था।

जातिगत अपमान और शिक्षा का संघर्ष

दूसरे खंड यानी ‘मुर्दहिया तथा स्कूली जीवन’ में अध्यापकों नें कथित दलित समुदाय के विद्यार्थियों का किस प्रकार शोषण किया, इसका वर्णन किया गया है।लेखक स्कूल के अध्यापक मुंशी का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि ‘ वह उपस्थित शब्द का उच्चारण नहीं कर पाते थे जिस पर मुंशी जी गालियों की बौछार कर देते थे। खासकर, दलित बच्चों को वे ‘चमरकिट’ कहकर अपना गुस्सा प्रगट करते थे।’ तुलसीराम जहां कथित स्वर्णों के अत्याचार को लिख रहे होते हैं, वहीं साकारात्मक रूप में अपने सहपाठी संकठा सिंह का भी ज़िक्र करते हैं। संकठा सिंह बड़े क्षत्रिय ज़मींदार के बेटे थे किन्तु उनकी दयालु प्रकृति की वजह से उनकी बड़ाई करते हुए लिखते हैं, ‘उन्होंने ही मुझे एक तरह से मजबूर करके लिखना सिखाया था। मेरे लिये कक्षा एक में संकठा सिंह मुंशी जी से कहीं ज्यादा सफल शिक्षक सिद्ध हुए।’

तुलसीराम अपने घर की मौजूदा उपलब्धियों के बारे में जब लिखते हैं तो वह जीवन नामुमकिन सा लगता है। अकाल के दिनों में जब कुछ भी खाने की वस्तु घर में उपलब्ध नहीं होती तो मैदानी चूहों को बरसात के अकाल में सभी दलित दाल-सब्जी की तरह खा कर गुजारा करते थे। बरसात की उस गरीबी में घरों के चूने से सारी रात भीगते और जागते रहते थे। सर्दियों में भी वही दशा
होती थी न ओढ़ने के लिए कंबल होता था न बिछाने के लिए बिस्तर। पुआल बिछा कर और ओढ़ कर पूरी रात ठिठुरते हुए निकाल देते थे। लेखक ने बचपन में अपनी दादी से लगाव का बहुत अधिक वर्णन किया है। उनकी दादी तरह- तरह के उपचार का ज्ञान रखती थीं। एक तरह से वो वैद्य थीं। दलित समुदाय के पूजने वाले देवी देवता भी कथित उच्च वर्ग के देवी- देवताओं से अलग होते थे। तुलसीराम को उनकी दादी के बताये जाने पर चमरिया माई में अटूट आस्था थी।उनके पिता सुदेस्सर पांडे के यहां हरवाही करते थे।

लेखक स्कूल के अध्यापक मुंशी का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि, वह उपस्थित शब्द का उच्चारण नहीं कर पाते थे जिस पर मुंशी जी गालियों की बौछार कर देते थे। खासकर, दलित बच्चों को वे ‘चमरकिट’ कहकर अपना गुस्सा प्रगट करते थे।

 जिसकी माँ की मृत्यु भादों में हुई थी। इस वजह से पन्द्रह दिन के लिए उनकी लाश को मुर्दहिया में दफन कर दिया गया था। खरवांस खतम होने के बाद तुलसीराम और उनके पिता, उसकी मां की लाश को बाहर निकाला जिसमें से बदबू आ रही थी। सुदेस्सर पांडे ने लाश को हाथ से छुआ तक नहीं था। यहां तक कि चिता पर लिटाते समय तक सारा काम स्वयं तुलसीराम और उनके पिता ने किया था। लाश को कब्र से निकालने की घटना पर सुदेस्सर पांडे ने कहा कि,  ‘सोने वाली मुनरी को पहले ढूंढ कर कफ़न से निकाल लें।’ वह चकित होकर इस घटना पर लिखते हैं कि उस दिन मुझे पहली बार यह बात समझ में आई थी कि किसी के लिए मां की लाश की बजाय सोना कितना प्रिय है।

प्रशासन की विफलता और ग्रामीण जीवन

‘अकाल में अंधविश्वास’ खंड में लेखक बताते हैं कि जो मजदूर जिसके यहां हरवाही यानी हल जोतने का काम करता था उससे अनाज उधार लेता तो मालिक उससे टेढ़ गुना वापस लेता था। इस तरह जो कहीं हरवाही नहीं करते थे। उस जाति के लोग जैसे नाई, धोबी आदि वह पूरे साल सवर्णों का काम मुफ़्त में करते थे और बदले में रबी और खरीफ फसल की कटाई के बाद उन्हें सिर्फ एक केड़ा मिलता था। इससे गुज़ारा भी नहीं होता था। कथित सवर्णों के समाज में कथित निम्न जाति के लोगों के साथ छुआछूत चरम पर था। ‘मुर्दहिया के गिद्ध तथा लोकजीवन’ में लेखक पांचवी कक्षा के अंतिम चरण में प्रवेश हो चुके थे। परीक्षा देने के बाद पढाई छूट जाने के डर से नानी के घर भाग जाते हैं। जहां बड़ी विचित्र घटना उनके सामने आती है। दरअसल उनके नाना के घर के सामने पुलिस चौकी थी। जहां से सब कुछ साफ़ दिखाई देता था। वह सब कुछ देखते हुए लिखते हैं कि ‘हुआ यह था कि छत पर मार।

मजदूर जिसके यहां हरवाही यानी हल जोतने का काम करता था उससे अनाज उधार लेता तो मालिक उससे टेढ़ गुना वापस लेता था। इस तरह जो कहीं हरवाही नहीं करते थे। उस जाति के लोग जैसे नाई, धोबी आदि वह पूरे साल सवर्णों का काम मुफ़्त में करते थे।

खाता-खाता एक मुजरिम नीचे गिर गया और उसी वक्त मर जाने की वजह से उसकी चिल्लाहट यकायक बंद हो गई थी।’ प्रसाशन की खुली नाकामी का यह आंखों देखा केवल एक उदहारण है। अफवाह हो या सत्य सदियों से उसकी भेट केवल महिलाएं ही चढ़ाई गई है। बरसात के महीने में स्कूल जाते समय रास्ते में पानी भर जाने की वजह से चल पाने में समस्या होती थी। तुलसीराम के स्कूल में सुदेस्सर पांडे की बेटी भी पढ़ रही थी, जो उनकी ही हम उम्र थी। ऐसे ही बरसाती पानी से भरे रास्ते को एक दिन पांडे जी की बेटी को उठा कर सुरक्षित तुलसीराम पार करा रहे थे, जिसे देख कर लोगों ने पूरे गांव में तरह तरह की अफवाहें फ़ैला दी। परिणामस्वरुप पढाई छुडवा कर उस लड़की की शादी करवा दी गई। हालांकि वह तुलसीराम को ‘भैया’ कहकर बुलाती थी। 

महिलाओं का साहस और देशभक्ति

ग्रामीण इलाकों में चुनाव के समय के लोकगीतों का भी ज़िक्र किया है। जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का गीत जिसे लिखते हुए ग्रामीण जीवन के दुखों को दिखाया गया है। ‘ललका झंडा, मोटका डंडा कब उठइबा बलमू? जमींदरवा लुटेरवा,कब भगइबा बलमू। ललका झंडा, मोटका डंडा कब उठइबा बलमू?’ हालांकि उस उम्र में तुलसीराम को राजनीति का बहुत अधिक ज्ञान नहीं था फिर भी वह कम्युनिस्ट की तरफ झुकाव महसूस कर रहे थे। उनके पिता ने जब दो रूपए के बदले किसी और पार्टी को वोट दे दिया उस समय उन्हें बहुत तकलीफ़ हुई थी। हालांकि उम्र बहुत छोटी थी। साल 1962 का समय जब भारत और चीन के मध्य युद्ध की घोषणा हो गई थी। उस समय सुरक्षा कोष में महिलाओं ने अपने गहने और बेटों को भारत के सुपुर्द कर दिया था। उस समय लोगों के भीतर किस स्तर की देश भक्ति थी अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

महिलाओं का योगदान और उनका साहस अतुलनीय था। जबकि वे देश की स्थिति से बहुत अधिक परिचित नहीं थीं। इसी के साथ यह कहा जा सकता है कि मुर्दहिया तुलसीराम के अकेले की आत्मकथा न होकर लोकजीवन की कथा भी है। यह एक दलित परिवार के संघर्ष और सच्चाई की कहानी है। इसमें उन्होंने गरीबी, जातिवाद और अंधविश्वास से भरे समाज की तस्वीर दिखाई है। यह आत्मकथा बताती है कि शिक्षा ही वह रास्ता है जो इंसान को अंधविश्वास और भेदभाव से बाहर निकाल सकती है। तुलसीराम की कहानी सिर्फ उनकी नहीं, बल्कि पूरे दलित समाज की आवाज़ है जो दर्द झेलते हुए भी आगे बढ़ना सीखता है।

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