नीरज घेवान का नाम आते ही सबसे पहले मसान याद आती है। साल 2015 की इस फिल्म ने दुनिया भर के बड़े पर्दों पर सराहना बटोरी और भारतीय सिनेमा में एक नई दृष्टि जोड़ी। मसान में विक्की कौशल ने दलित समुदाय के एक युवक का किरदार निभाया था। यह एक ऐसा चरित्र था जिसे समाज, साहित्य और सिनेमा ने लंबे समय तक नज़रअंदाज़ किया। नीरज घेवान ने इस किरदार के ज़रिए उस हाशिए पर खड़ी पहचान को केंद्र में लाने का साहसी कदम उठाया। मसान से शुरू हुई नीरज घेवान की यह यात्रा अब होमबाउंड जैसी फिल्मों तक पहुंच चुकी है।
यह फिल्म उनके सामाजिक सरोकारों को और गहराई से सामने लाती है। होमबाउंड में उन्होंने समाज की उन परतों को उजागर किया है, जिन पर अब तक कम बात हुई थी। नीरज की फिल्मों में सच्चाई और संवेदना एक साथ चलती हैं। वे अपने पात्रों की पीड़ा को केवल दिखाते नहीं, बल्कि दर्शकों को उस अनुभव से जोड़ते हैं। साल 2020 में सोशल मीडिया पर मध्य प्रदेश की एक तस्वीर ने लोगों का ध्यान खींचा था। तस्वीर में तपती सड़क पर एक व्यक्ति अपने साथी को गोद में लिए बैठा था। पास में एक लाल बैग और आधी खाली पानी की बोतल रखी थी।
यह फिल्म उनके सामाजिक सरोकारों को और गहराई से सामने लाती है। होमबाउंड में उन्होंने समाज की उन परतों को उजागर किया है, जिन पर अब तक कम बात हुई थी। नीरज की फिल्मों में सच्चाई और संवेदना एक साथ चलती हैं। वे अपने पात्रों की पीड़ा को केवल दिखाते नहीं, बल्कि दर्शकों को उस अनुभव से जोड़ते हैं।
उस व्यक्ति की आंखों में चिंता और थकान साफ झलक रही थी। वह अपने दोस्त के चेहरे पर ज़िंदगी के अंतिम निशान खोज रहा था। इस तस्वीर की कहानी बाद में पत्रकार बशरात पीर ने न्यूयॉर्क टाइम्स में अपने निबंध ‘ए फ्रेंडशिप, ए पैंडेमिक एंड ए डेथ बिसाइड द हाइवे’ और ‘टेकिंग होम अमित’ में लिखी। यह कहानी न सिर्फ़ कोविड महामारी के दर्द की गवाही थी, बल्कि दोस्ती, असमानता और उस दौर की बेबसी की भी झलक थी। नीरज ने होमबाउंड के ज़रिए इसी संवेदना को आगे बढ़ाया है। इस फिल्म में कोरोना महामारी को बेहद संवेदनशीलता और बारीकी से दिखाया गया है। फिल्म सिर्फ़ महामारी की त्रासदी को नहीं, बल्कि समाज के कई पहलुओं को छूती है- दोस्ती, रोजगार, सम्मान, अधिकार और प्यार जैसी बुनियादी मानवीय भावनाओं के साथ-साथ क्रिकेट, अचार और बिरयानी जैसे छोटे-छोटे प्रसंगों के ज़रिए भी मानवीय रिश्तों की गहराई को उजागर करती है।
फिल्म की पृष्ठभूमि
‘होमबाउंड’ की कहानी दो दोस्तों चंदन और शोएब के इर्द-गिर्द घूमती है। चंदन एक दलित परिवार से है, जबकि शोएब मुसलमान है। दोनों एक ही गांव में रहते हैं, और उनके घरों के बीच बस कुछ ही दूरी है। दोनों का सपना एक ही है कि किसी भी तरह पुलिस की वर्दी पहनना। उनके लिए यह सपना सिर्फ़ नौकरी नहीं, बल्कि सम्मान और पहचान से जुड़ा है। चंदन मानता है कि वर्दी पहन लेने के बाद उसकी जाति की पहचान पीछे छूट जाएगी। उसके घर की कच्ची दीवारें पक्की बन जाएंगी, और उसकी माँ के फटे पैरों की बिवाइयाँ नई चप्पलों से ढक जाएंगी। फिल्म में यह सपना एक प्रतीक बनकर उभरता है। उस आकांक्षा का जो समाज के अमूमन कथित निचले तबकों के युवाओं में बराबरी और गरिमा के लिए लगातार पलती रहती है। दूसरी ओर, शोएब वर्दी पहनकर यह साबित करना चाहता है कि वह भी इसी देश का हिस्सा है। उसके लिए वर्दी सिर्फ नौकरी नहीं, बल्कि सम्मान और पहचान का प्रतीक है। उसे उम्मीद है कि पुलिस की नौकरी मिलने से घर की आर्थिक स्थिति सुधर जाएगी। शोएब और उसके परिवार को भरोसा है कि यह नौकरी न सिर्फ़ उनकी ज़िंदगी बदलेगी, बल्कि समाज में उन्हें एक नई जगह भी दिलाएगी।
चंदन मानता है कि वर्दी पहन लेने के बाद उसकी जाति की पहचान पीछे छूट जाएगी। उसके घर की कच्ची दीवारें पक्की बन जाएंगी, और उसकी माँ के फटे पैरों की बिवाइयाँ नई चप्पलों से ढक जाएंगी। फिल्म में यह सपना एक प्रतीक बनकर उभरता है।
स्थगित परीक्षाएं और बिखरते सपने
साल 2024 में इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीते पांच सालों में लगभग 41 सरकारी परीक्षाएं अलग-अलग कारणों से स्थगित हुईं। कुछ रिपोर्टों के अनुसार यह संख्या 50 से भी ज़्यादा है। इन रद्द और टली हुई परीक्षाओं का असर हर साल करोड़ों विद्यार्थियों पर पड़ता है। कई युवाओं के सपने अधूरे रह जाते हैं और वे अपनी योग्यता के उलट काम करने को मजबूर हो जाते हैं। फिल्म में उत्तर प्रदेश के दो युवकों- चंदन और शोएब की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। पुलिस भर्ती परीक्षा का परिणाम आता है। चंदन का चयन हो जाता है, जबकि शोएब असफल रहता है।
यह दृश्य बहुत सहज और मानवीय तरीके से दिखाया गया है। जैसे कोई सामान्य व्यक्ति महसूस करता है जब उसका दोस्त सफल हो जाए और वह खुद न हो पाए। लेकिन जल्द ही खबर मिलती है कि भर्ती प्रक्रिया को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया है। यह सुनकर चंदन का दिल टूट जाता है। उसे लगता है जैसे उसका सपना और माँ की उम्मीदें दोनों ही दूर चली गई हैं। कुछ समय बाद आर्थिक तंगी बढ़ने पर चंदन अपना गाँव छोड़ देता है। वह सूरत के एक कपड़ा मिल में अपनों सपनों और जिम्मेदारियों को पूरा करने काम करने जाता है।
इस्लामोफ़ोबिक दुनिया से परे हिन्दू-मुस्लिम दोस्ती
समाज का एक तबका ऐसा है, जिसे सदियों से निचले पायदान पर रखा गया है। चंदन दलित समुदाय से आता है। वह इस तिरस्कार से बचने के लिए अक्सर अपनी जाति छिपाने की कोशिश करता है। परीक्षा फ़ॉर्म या सरकारी कागज़ों में वह उपनाम का स्थान खाली छोड़ देता है, ताकि कोई उसकी पहचान के आधार पर भेदभाव न करे। वहीं शोएब, एक भारतीय मुसलमान होने के नाते, देश की जिम्मेदारियां हर नागरिक की तरह निभाता है। फिर भी उसे बार-बार यह साबित करना पड़ता है कि यह देश उसे उतना ही प्रिय है जितना किसी और हिन्दुस्तानी को। अपनी कंपनी में उसे इस्लामोफ़ोबिक ताने और मज़ाक सहने पड़ते हैं, जो उसकी अस्मिता और देशभक्ति दोनों पर सवाल खड़े करते हैं। आर्थिक तंगी के बावजूद, वह अपमान सहने के बजाय नौकरी छोड़ने का फैसला लेता है। यह दृश्य दर्शकों को भीतर तक झकझोर देता है। ये दृश्य बताते हैं कि वर्तमान समय में ऐसी कहानियां ज़रूरी हैं। भले ही देश में हिन्दुत्व राजनीति ने जगह बना ली हो, लेकिन आज भी देश में ऐसी दोस्ती मौजूद हैं, जहां कोई चंदन अब भी ईद पर शोएब के घर बिरयानी खाने जा सकता है।
शोएब, एक भारतीय मुसलमान होने के नाते, देश की जिम्मेदारियां हर नागरिक की तरह निभाता है। फिर भी उसे बार-बार यह साबित करना पड़ता है कि यह देश उसे उतना ही प्रिय है जितना किसी और हिन्दुस्तानी को।
कोविड, लॉकडाउन और चुनौतियां
यह कहानी उस शहर की है जो कुछ दिन पहले लंबी गाड़ियों और भीड़ से भरा हुआ था। आज लॉकडाउन की वजह से वहां सन्नाटा पसरा है। रास्तों में पुलिस तैनात है, फैक्ट्री बंद हैं और प्रवासी मजदूरों के रहने वाले कमरे खाली पड़े हैं। राशन की कतारें लंबी हैं, लेकिन सामान मिलने की संभावना कम ही नजर आती है। ऐसी स्थिति में दो दोस्तों, चंदन और शोएब, ने घर लौटने का फैसला किया। किसी तरह ट्रक चालक को राज़ी किया कि वह उन्हें ट्रक की छत पर बिठा दे। लेकिन कुछ ही दूरी तय करने के बाद चंदन को तेज खांसी और बुखार हो गया। जब वह ट्रक में बैठना चाहता है, लोग उसे धकेल देते हैं।
घर अभी भी 400 किलोमीटर दूर था, लेकिन ड्राइवर उन्हें वापस ट्रक में नहीं बिठाता। चंदन की हालत और बिगड़ने लगती है। शोएब उसे कंधे पर उठाकर चलता है। निर्देशक ने मानवता को धर्म और जाति से ऊपर रखा है। चंदन की प्यास और थकान दर्शकों को भी महसूस होती है। वह बार-बार पानी की गुहार लगाता है। तभी एक नंगे पाँव, फटी एड़ियों वाली औरत घर से निकलती है और उन्हें पानी पिलाती है। यह दृश्य फिल्म का सबसे मार्मिक पल है, जहां एक स्त्री मानवता की आखिरी परत बचाए रखती है। लेकिन, कुछ किलोमीटर बाद चंदन की मौत हो जाती है। फिल्म यह सवाल उठाती है कि क्या घर लौटना भी एक विशेषाधिकार है।
चंदन की प्यास और थकान दर्शकों को भी महसूस होती है। वह बार-बार पानी की गुहार लगाता है। तभी एक नंगे पाँव, फटी एड़ियों वाली औरत घर से निकलती है और उन्हें पानी पिलाती है। यह दृश्य फिल्म का सबसे मार्मिक पल है, जहां एक स्त्री मानवता की आखिरी परत बचाए रखती है।
फिल्म में महिलाओं को कितना दिया गया स्क्रीनटाइम
हालांकि फिल्म में महिलाओं का स्क्रीन टाइम कुछ हद तक सीमित है। चंदन की मां मिड-डे मील बनाती हैं। एक दिन कथित ऊंची जातियों के लोग विरोध करते हैं कि उनके बच्चे चंदन की मां के हाथ का खाना नहीं खाएंगे। यही वही जगह है जहां समानता की शिक्षा दी जाती है। मां को लगता है कि बेटे की सरकारी वर्दी ही इस अपमान का जवाब होगी। यह वर्दी उसे समाज में सम्मान और अधिकार दिलाएगी। शालिनी वत्स की एक्टिंग कमाल की है। चंदन की मौत के बाद उनका रोना देखकर दर्शक का कलेजा पसीज सकता है। उसी सरकारी स्कूल में चंदन की बहन साफ-सफाई का काम करती है। उसकी आंखों में कई सपने हैं। वह चंदन से सवाल करती है कि पढ़ाई का विकल्प सिर्फ तुम्हें ही क्यों मिला? क्यों तुम्हें ही वर्दी पहनने और कॉलेज में दाखिला लेने का अधिकार है? यह सवाल आज भी कई भारतीय महिलाओं के मन में गूंजता है।
सुधा, जो चंदन की दोस्त है और दलित समुदाय से आती है, अंबेडकर के विचारों को मानती है। उसे लगता है कि उच्च शिक्षा ही मुक्ति का रास्ता है। वह खुद भी और चंदन को भी उसी राह पर चलने के लिए प्रेरित करती है। फिल्म में तीन दलित महिलाएं हैं। एक ही समाज से होने के बावजूद उनकी सामाजिक स्थिति अलग-अलग है। फिल्म यह स्पष्ट रूप से दिखाती है कि पढ़ी-लिखी और समृद्ध महिलाओं के विशेषाधिकार अन्य महिलाओं से कैसे अलग होते हैं। होमबाउंड केवल कोरोना या लॉकडाउन की कहानी नहीं है। यह दोस्ती, जाति, धर्म, आर्थिक असमानता और मानवीय संवेदनाओं की भी कहानी है। फिल्म हमें दिखाती है कि कैसे सामान्य लोग असाधारण परिस्थितियों में साहस, करुणा और मानवता का परिचय देते हैं। चंदन और शोएब की दोस्ती धर्म और जाति की दीवारों को पार करती है, जबकि उनके सपने और संघर्ष समाज की व्यापक असमानताओं को उजागर करते हैं। महिलाओं के सीमित स्क्रीन टाइम के बावजूद उनकी कहानियां फिल्म की संवेदना और सामाजिक संदेश को मजबूत करती हैं। यह फिल्म हमें याद दिलाती है कि सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज के हाशिए पर खड़े व्यक्तियों की आवाज़ उठाने का माध्यम भी हो सकता है।

