समाजकैंपस शिक्षा के लिए शहर तक का कठिन सफर तय करती ग्रामीण लड़कियां

शिक्षा के लिए शहर तक का कठिन सफर तय करती ग्रामीण लड़कियां

शिक्षा का अधिकार मिलने से लड़कियों की स्कूलों तक पहुंच आसान तो हुई है। लेकिन यह कहना ही काफी नहीं है कि अब तो सारी लड़कियां स्कूल जाती हैं। ग्रामीण भारत की आज भी बहुत सारी लड़कियां कॉलेज आने के लिए संघर्ष कर रहीं हैं।

कभी भी गांव से शहर पहुंचने तक का सफर आसान नहीं होता है। यह ज़्यादा कठिन तब हो जाता है, जब लड़कियों के कॉलेज या उच्च शिक्षा के लिए शहर जाने की बात होती है। शिक्षा का अधिकार मिलने से लड़कियों की स्कूलों तक पहुंच आसान तो हुई है। लेकिन यह कहना ही काफी नहीं है कि अब तो सारी लड़कियां स्कूल जाती हैं। ग्रामीण भारत की आज भी बहुत सारी लड़कियां कॉलेज आने के लिए संघर्ष कर रहीं हैं। किसी तरह वह कॉलेज पहुंच भी रहीं हैं तो उनका शहर में रहना अपने आप में एक चुनौती है।

किसी भी देश के विकास के लिए जरूरी है कि उसके सभी नागरिकों को समान रूप से शिक्षा का अवसर मिले। वह भी बिना किसी भेदभाव के किसी भी क्षेत्र में समानता तब ही आ सकती है, जब लड़कियों के लिए हर अवसर तक पहुंच आसान हो और यह बदलाव सिर्फ और सिर्फ तब ही आ सकता है, जब लड़कियों को समान शिक्षा का अवसर मिले। इसलिए स्कूल का होना ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए जरूरी है, उन सब पहलुओं में काम किया जाए जो लड़कियों को अवसर तक पहुंचने में बाधा उत्पन्न करते हैं।

शिक्षा का अधिकार मिलने से लड़कियों की स्कूलों तक पहुंच आसान तो हुई है। लेकिन यह कहना ही काफी नहीं है कि अब तो सारी लड़कियां स्कूल जाती हैं। ग्रामीण भारत की आज भी बहुत सारी लड़कियां कॉलेज आने के लिए संघर्ष कर रहीं हैं।

उच्च शिक्षा में क्यों पीछे रह जाती है ग्रामीण लड़कियां

ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियों के उच्च शिक्षा तक पहुंच में काफी अंतर देखने को मिलता है। ग्रामीण परिवेश में लड़कियों के लिए घर परिवार के कामों में हाथ बंटाना जरूरी माना जाता है। लड़कियों को सशक्त होने के लिए नहीं अब भी शादी के योग्य होने के लिए पढ़ाते हैं। उन पर स्कूल के साथ घर के काम में हाथ बंटाने की जिम्मेदारी रहती है। आज भी माना जाता है कि लड़कियों को घर के सारे काम आने चाहिए। वही लड़की अच्छी मानी जाती है, जो सारे काम करती हो। ऐसे में बहुत बार तो गांव की लड़कियों के लिए स्वयं घर की जिम्मेदारी ही उनका नैतिक धर्म बन जाता है। जिस कारण वह स्कूल भी नहीं जा पाती हैं। इसका सीधा असर उनकी शिक्षा में पड़ता है। 

द मूकनायक में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग 86 फीसदी महिलाएं और लड़कियां रोज़ किसी न किसी घरेलू काम में हिस्सा लेती हैं, जबकि पुरुषों में यह संख्या सिर्फ 66 फीसदी है। इससे साफ पता चलता है कि घर के कामों का बोझ अब भी ज़्यादातर महिलाओं पर ही रहता है जिस कारण वह पढ़ाई छोड़ देती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, 14 साल की उम्र तक ज़्यादातर बच्चे पढ़ाई में जुड़े रहते हैं। इस उम्र में केवल  3.9 फीसदी बच्चे ही स्कूल या कॉलेज में नामांकित नहीं होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, पढ़ाई छोड़ने वालों की संख्या भी बढ़ने लगती है। 18 साल की उम्र तक पहुंचते – पहुंचते लगभग 32.6 फीसदी युवा किसी भी शैक्षणिक संस्थान में नामांकित नहीं रहते इनमें से 33.4 फीसदी लड़कियां और 31.6 फीसदी  लड़के होते हैं। 

दीदी के ससुराल वाले भी मेरे रोज कॉलेज जाने में प्रश्न उठाते थे। शाम को आने में देर हो जाती तो दीदी भी बात नहीं करती थी। मेरे घर में शिकायत कर देती थी कि मैं इतना देरी से आई हूं। मेरे ऊपर हमेशा समय से घर पहुंचने का दबाव बना रहता था। वह माहौल मेरे लिए कठिन था। जहां मैं जबरदस्ती जाती थी।

ग्रामीण लड़कियों की कॉलेज जाने में चुनौतियां

 द हिन्दू में छपी रिपोर्ट के अनुसार, कॉलेज स्तर पर कुल नामांकन (जीइआर ) की बात करें तो महिलाओं का अनुपात पुरुषों से थोड़ा ज़्यादा है। लेकिन अगर क्षेत्र और विषय के हिसाब से देखें तो तस्वीर बदल जाती है। उदाहरण के लिए, स्नातक से पीएचडी तक एसटीईएम (विज्ञान, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, गणित) विषयों में केवल 42.5 फीसदी छात्राएं नामांकित हैं। यानी कि अब भी लड़कियों को इन विषयों को चुनने के लिए और प्रोत्साहित करने की जरूरत है। साल 2011 की अंतिम जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, कुल 64.63 फीसदी  महिलाएं साक्षर थीं, जबकि पुरुषों में यह संख्या 80.88 फीसदी थी। गांव में जब लड़कियां बारहवीं पास हो जाती हैं। तब उनके माता पिता लड़कियों को शहर भेजने के पक्ष में नहीं होते हैं।

एक तो इसके पीछे वही पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी सोच काम करती है, जो यह कहती है कि लड़कियां शहर जाकर बिगड़ जाती हैं। लड़कियों के ऊपर घर समाज की इज्जत का अतिरिक्त बोझ डाल दिया जाता है। गांव और घरों में यह कहा जाता है कि जो हम अभी इसके आगे के कॉलेज के लिए खर्चा करेंगे, उन्हीं पैसों से इसकी शादी हो जाएगी। उनके लिए प्राथमिकता उनकी शादी हो जाती है न कि उनकी उच्च शिक्षा। इन सब परिस्थितियों के बीच लड़कियों का एडमिशन कॉलेज में नाम मात्र के लिए कर तो दिया जाता है, लेकिन वह कभी कभार ही कॉलेज जा पाती हैं। ज्यादातर सिर्फ पेपर देने के लिए ही कॉलेज में पहुंच पाती है। ऐसे में यह कहना कि कॉलेज में लड़कियों के पंजीकरण की संख्या में वृद्धि हुई है। यह आंकड़े दिखाकर लोगों को भटकाने की नीति लगती है। 

हम तो चाहते हैं हमारी बच्चियां पढ़े ,आगे बढ़ें। लेकिन हमारे भीतर भी सामाजिक दबाव बना रहता है । आए दिन लड़कियों से जुड़ी खबरें आती हैं, जहां कॉलेज में लड़कियों के साथ यौन हिंसा होती है। वह हमें डराती है। आखिर हमारी लड़कियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा? जिस तरीके से कॉलेज की छवि को पेश किया गया है यह महिला विरोधी है। इसलिए लड़कियों की शादी करना हम सबसे सुरक्षित मानते हैं।

किन हिदायतों के साथ कुछ लड़कियां पहुंच पाती है कॉलेज

बहुत सी हिदायतों के बीच जब कुछ लड़कियां कॉलेज का सफर तय करती हैं। तब उन्हें बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ता  है। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के भट्टयू डा में रहने वाली सुनीता (बदला हुआ नाम)बताती हैं,  “मेरे घर वाले चाहते तो थे कि मैं कॉलेज में पढ़ाई करूं। लेकिन वह मेरे लिए शहर में कमरा लेकर रहने के पक्ष में बिल्कुल भी नहीं थे। मुझे कहा गया कि कभी- कभी घर से ही चली जाया करो या फिर किसी रिश्तेदार के यहां रह लेना। मेरी दीदी का ससुराल वहीं शहर में था तो मुझे वहां रहना पड़ा। दीदी के ससुराल वाले भी मेरे रोज कॉलेज जाने में प्रश्न उठाते थे। शाम को आने में देर हो जाती तो दीदी भी बात नहीं करती थी। मेरे घर में शिकायत कर देती थी कि मैं इतना देरी से आई हूं। मेरे ऊपर हमेशा समय से घर पहुंचने का दबाव बना रहता था। वह माहौल मेरे लिए कठिन था। जहां मैं जबरदस्ती जाती थी। दीदी के ससुराल वाले मुझे लेकर उसे ताने मारते थे। एक दिन तो बात इतनी बिगड़ गई कि दीदी ने खुद बोल दिया। तू जा कभी मत आना यहां।”

आगे वह कहती हैं,” मेरे लिए यह सब सदमे की तरह था। मैं जाऊं भी तो कहां। इसका असर मेरे मानसिक स्वास्थ्य में पड़ा। मैं उदास रहती किसी से बात नहीं करती थी। घर में भी नहीं। वहां से छोड़ तो दिया था लेकिन जाती कहां इसका कोई अंदाजा नहीं था। मुझे  याद है वह तीन दिन जो मैने बड़ी मुश्किल से अलग अलग लोगों के यहां बिताए। दिन तो कहीं भी कट जाता था। रात डराने लगती थी। मेरी ही दीदी ने मुझे बताया कि शहर में एक कमरा है,वहां पूछकर आना। घर वालों को भी उसने मनाया। मेरे लिए बड़ी मुश्किल से एक कमरा लिया गया और फिर से  वही समस्या आने लगी अकेला कैसे छोड़ दें कोई तो साथ होना चाहिए। “

एक तो हमारे परिवार वालों के ऊपर यह आर्थिक दबाव रहता है, वह इतना किराया नहीं दे सकते कि हम रोज कॉलेज आना जाना कर सकें। कभी देर हो गई तो गांव के लिए गाड़ी मिलना कठिन हो जाता है। बाकी सामाजिक दबाव तो हमारी परवरिश का हिस्सा ही है जो हमें स्वयं बताता है कि हमने क्या करना है क्या नहीं।

जब इस विषय पर हमने भट्ट यूडा गांव की रेखा से बात की, जो खुद दो लड़कियों की मां हैं, तो वो कहती हैं, “हम तो चाहते हैं हमारी बच्चियां पढ़ें, आगे बढ़ें। लेकिन हमारे भीतर भी सामाजिक दबाव बना रहता है। आए दिन लड़कियों से जुड़ी खबरें आती हैं, जहां कॉलेज में लड़कियों के साथ यौन हिंसा होती है। वह हमें डराती है। आखिर हमारी लड़कियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा? जिस तरीके से कॉलेज की छवि को पेश किया गया है यह महिला विरोधी है। इसलिए लड़कियों की शादी करना हम सबसे सुरक्षित मानते हैं। मैं चाहती हूं कि उन पर भरोसा करूं। उन्हें शहर जाने की छूट दूं। जो सब मुझे सहन करना पड़ा उन्हें न करना पड़े। मेरी लड़कियां आत्मनिर्भर बनें। इन सब के बीच समाज बहुत डरा देता है। शहर जाकर लड़की बिना किसी डर के अपनी मनमर्जी करने लग जाएगी। इसलिए मुझे भी लगता है कि लड़कियों को अकेले नहीं छोड़ना चाहिए। उनके साथ कोई घर का व्यक्ति हो जो उनकी देखरेख कर सके। यह हमारे लिए भी अच्छा है।”

क्यों ग्रामीण लोग नहीं जुड़ पा रहे शहरों के कॉलेज से

द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, स्कूल आने-जाने का परिवहन भी एक बाधा हो सकता है, और हरियाणा, पंजाब और तमिलनाडु जैसे राज्यों में स्कूली छात्राओं के लिए मुफ़्त बस पास, साथ ही बिहार और अन्य राज्यों में लड़कियों को मुफ़्त साइकिल देने की योजना ने नामांकन में सुधार किया है, हालांकि राजस्थान में यह उतना कारगर नहीं रहा है। इसी तरह यह उत्तराखंड के लिए भी उतना अच्छा साबित नहीं हुआ है क्योंकि यहां सड़कें और स्कूल या कॉलेज  गांव से काफ़ी दूर हैं। गांव अभी भी मुख्य शहरों से बहुत कटे हुए हैं। इसका सीधा असर वहां की जनसंख्या के आम जीवन पर पड़ता है। भौतिक सुख सुविधाओं से वंचित गांव, बेहतर संचार व्यवस्था,स्वास्थ्य,शिक्षा,परिवहन में भी पिछड़ जाते हैं। इसका खामियाजा मासूम लोगों को उठाना होता है। क्या गांवों से रोज कॉलेज पहुंचा जा सकता है? इस सवाल पर इसी वर्ष कॉलेज में दाखिला लिए हुए दिया बताती हैं, ”एक तो हमारे परिवार वालों के ऊपर यह आर्थिक दबाव रहता है, वह इतना किराया नहीं दे सकते कि हम रोज कॉलेज आना जाना कर सकें। कभी देर हो गई तो गांव के लिए गाड़ी मिलना कठिन हो जाता है। बाकी सामाजिक दबाव तो हमारी परवरिश का हिस्सा ही है जो हमें स्वयं बताता है कि हमने क्या करना है क्या नहीं।” 

जब तक परिवार और समाज की सोच नहीं बदलेगी, तब तक ग्रामीण लड़कियों की उच्च शिक्षा तक की राह आसान नहीं होगी। शिक्षा सिर्फ किताबों तक सीमित नहीं है। यह आज़ाद सोच, आत्मनिर्भरता और निर्णय लेने की क्षमता देती है। लेकिन जब लड़कियों के हर कदम पर ‘इज्जत’, ‘मर्यादा’ और ‘डर’ का पहरा बैठा दिया जाता है, तो वे अपनी असली क्षमता तक पहुंच ही नहीं पातीं हैं। परिवारों को यह एहसास होना चाहिए कि बेटी की पढ़ाई का मतलब केवल डिग्री लेना नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा उपकरण है जो उसे जीवन के हर मोड़ पर सशक्त बनाता है। समाज में भी यह संदेश फैलाना होगा कि लड़की की सुरक्षा का मतलब उसे बंद कमरों में कैद करना नहीं है, बल्कि ऐसे माहौल का निर्माण करना है जहां वह बिना भय के अपनी पढ़ाई और जीवन के फैसले ले सके और आगे बढ़ सके।  

Comments:

  1. BHAWAN singh says:

    Well done seetal sis

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