इतिहास गौरा पंत ‘शिवानी’: पितृसत्ता को चुनौती देने वाली सशक्त लेखिका| #IndianWomenInHistory

गौरा पंत ‘शिवानी’: पितृसत्ता को चुनौती देने वाली सशक्त लेखिका| #IndianWomenInHistory

शिवानी हिन्दी साहित्य की एक लेखिका और उपन्यासकार थीं। उनका असली नाम 'गौरा पंत' था, लेकिन वो 'शिवानी' नाम से लेखन किया करती थीं। उनका जन्म 17 अक्टूबर, साल 1923 को राजकोट (गुजरात) में हुआ था।

हिंदी साहित्य की दुनिया तक पहुंच बना पाना महिलाओं के लिए आसान नहीं था। लेकिन इतिहास में बहुत सी महिलाएं ऐसी हुई हैं, जिन्होंने पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी परंपराओं को चुनौती दी। साथ ही अपनी लेखनी के माध्यम से समाज को नई दिशा दी और पाठकों के जेहन में अमिट छाप छोड़ी। उन्हीं में से एक हैं, गौरा पंत ‘शिवानी’ एक ऐसी लेखिका जिनकी कहानियां केवल भावनाओं तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उस दौर की सामाजिक सच्चाइयों की एक झलक भी हैं। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से भारतीय महिलाओं की संवेदनाओं, संघर्षों और आत्मसम्मान को बड़ी सहजता से शब्दों में पिरोया है। उनकी कहानियों में पहाड़ों की मिट्टी की खुशबू और महिलाओं के जीवन की गहराई एक साथ मिलकर पाठक को भीतर तक छू जाती है। उन्होंने यह दिखाया कि एक महिला केवल परिवार की सीमाओं में बंधी नहीं होती, बल्कि वह भी सोच सकती है, निर्णय ले सकती है और समाज में अपनी पहचान बना सकती है।

शुरुआती जीवन और लेखन की शुरुआत 

शिवानी हिन्दी की एक लेखिका और उपन्यासकार थीं। उनका असली नाम ‘गौरा पंत’ था, लेकिन वो ‘शिवानी’ नाम से लेखन किया करती थीं। उनका जन्म 17 अक्टूबर, साल 1923 को राजकोट (गुजरात) में हुआ था। उनके पिता अश्विनी कुमार पांडे राजकोट रियासत में शिक्षक थे और उनकी माँ संस्कृत की विदुषी थीं। इसलिए पढ़ने और लिखने का माहौल उन्हें अपने परिवार में बचपन से ही मिल गया। उनके बड़े भाई-बहनों के साथ, गौरा को शांतिनिकेतन में रवींद्रनाथ टैगोर के विश्वभारती विश्वविद्यालय में पढ़ने  के लिए भेजा गया था। उन्होंने लगभग एक दशक तक वहां पढ़ाई की। उन्हें बचपन से ही लिखने का बहुत शौक था ।

शिवानी हिन्दी साहित्य की एक लेखिका और उपन्यासकार थीं। उनका असली नाम ‘गौरा पंत’ था, लेकिन वो ‘शिवानी’ नाम से लेखन किया करती थीं। उनका जन्म 17 अक्टूबर, साल 1923 को राजकोट (गुजरात) में हुआ था।

 जिसके चलते साल 1935 में, उनकी पहली कहानी 12 साल की उम्र में हिंदी बाल पत्रिका नटखट में छपी थी। साल 1943 में उन्होंने शांतिनिकेतन में स्नातक की पढ़ाई पूरी कर ली। वहां बिताए हुए समय के दौरान उन्होंने लेखन की शुरुआत की। इसी समय उन्होंने पूरी लगन से लेखन को अपनाया और उनकी संवेदनशील लेखनी पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। इस दौर का उन्होंने अपनी किताब ‘आमदेर शांतिनिकेतन’ में विस्तार से जिक्र किया है। वह रवींद्रनाथ टैगोर और बंगाली संस्कृति से बहुत प्रभावित थीं और यह उनकी “कृष्णकली” जैसी रचनाओं में साफ तौर पर दिखाई देता है। 

शिवानी का संघर्षपूर्ण जीवन 

शिवानी की शादी उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में कार्यरत शिक्षक शुक देव पंत से हुई थी। उनके पति की कम उम्र में ही मृत्यु हो गई, जिससे उन्हें चार बच्चों की देखभाल का भार अकेले उठाना पड़ा। उनके बच्चे उन्हें दीदी कहकर पुकारा करते थे। उन्होंने ऐसे उपन्यास और कहानियां लिखीं जिनमें सशक्त महिला पात्र थीं, जिन्होंने सभी पितृसत्तात्मक मूल्यों और सामाजिक असमानताओं के खिलाफ विद्रोह किया। वह रेडियो के लिए गाने भी गाया करती थीं। लेकिन शादी के बाद उन्होंने रेडियो के लिए गाना छोड़ दिया क्योंकि उनके ससुर (पति के पिता ) को गाकर पैसे कमाने वाली बहु पसंद नहीं थीं। इसलिए उन्होंने अपने लेखन के लिए ‘शिवानी’ नाम अपनाया, ताकि उन्हें  यह आपत्ति न हो कि वे लिखकर कमाई कर रही हैं।

लेकिन शादी के बाद उन्होंने रेडियो के लिए गाना छोड़ दिया क्योंकि उनके ससुर (पति के पिता ) को गाकर पैसे कमाने वाली बहु पसंद नहीं थीं। इसलिए उन्होंने अपने लेखन के लिए ‘शिवानी’ नाम अपनाया, ताकि उन्हें  यह आपत्ति न हो कि वे लिखकर कमाई कर रही हैं।

इससे यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि उस समय पितृसत्ता कितनी हावी थी, जिस कारण उन्हें काम करने के लिए भी अपना असली नाम छुपाना पड़ा। मानुषी मैगज़ीन में उनकी बेटी इरा पांडे ने लिखा है कि दिद्दी के रहस्य को सुलझाने की कोशिश में, उन्हें उनके छद्म नाम (पेन नेम), के रहस्य से जूझना पड़ा। शुरू में ‘शिवानी’ केवल एक नाम जैसा लगा, जो उन्हें गुमनामी की सुरक्षा देता था, लेकिन असलियत में यह उससे कहीं ज्यादा था। उन्हें एहसास हुआ कि दिद्दी असल में दो इंसान थीं, और उन्होंने इस दोहरे व्यक्तित्व का इस्तेमाल जुड़वा बहनों की तरह किया। खुद उन्हें भी पता नहीं था कि वह असल में कौन हैं। वह जो थीं, वह जो बनना चाहती थीं, और वह जो हम सभी के लिए अजनबी थीं। उन्होंने अपने डर और दर्द को सब से छुपा लिया, यहां तक कि खुद से भी। उनके लिए लिखना उन बातों और लोगों को याद रखने का तरीका था, जिनके बारे में वे खुलकर नहीं बोल सकती थीं। कुछ दुख उन्होंने अपनी कहानियों में छिपा दिए, और बाकी अपने दिल में रख लिए।

साहित्य क्षेत्र में योगदान

हिंदी साहित्य जगत में शिवानी एक ऐसी शख्सियत रहीं, जिनकी हिंदी, संस्कृत, गुजराती, बंगाली, उर्दू और अंग्रेजी पर अच्छी पकड रही। वह अपनी रचनाओं में उत्तर भारत के कुमाऊं क्षेत्र के आसपास की लोक-संस्कृति की झलक दिखाने और किरदारों के बेमिसाल चित्रण करने के लिए जानी गई। उनकी ज्यादातर कहानियां और उपन्यास महिलाओं पर आधारित रहे। वे ऐसे ढंग से लिखती थीं कि लोगों में उनकी रचनाएं पढ़ने की उत्सुकता जाग जाती थी। उनकी भाषा कुछ हद तक महादेवी वर्मा जैसी थी, लेकिन उनके लेखन में एक अलग, आम लोगों को जोड़ने वाली शैली थी। साल 1951 में उनकी लघु कहानी ‘मैं मुर्गा हूं’ (या ‘मैं मुर्गी हूं’) पत्रिका धर्मयुग में ‘शिवानी’ नाम से प्रकाशित हुई। उन्होंने साठ के दशक में अपना पहला उपन्यास ‘लाल हवेली’ प्रकाशित किया, और अगले दस सालों में उन्होंने कई प्रमुख रचनाएं लिखीं, जो धर्मयुग में धारावाहिक रूप से छपीं। 

हिंदी साहित्य जगत में शिवानी एक ऐसी शख्सियत रहीं, जिनकी हिंदी, संस्कृत, गुजराती, बंगाली, उर्दू और अंग्रेजी पर अच्छी पकड रही। वह अपनी रचनाओं में उत्तर भारत के कुमाऊं क्षेत्र के आसपास की लोक-संस्कृति की झलक दिखाने और किरदारों के बेमिसाल चित्रण करने के लिए जानी गई।

उन्होंने 40 से ज़्यादा उपन्यास, कई कहानियां और सैकड़ों लेख लिखे। उनकी मशहूर रचनाओं में चौदह फेरे, कृष्णकली, लाल हवेली, श्मशान चंपा, भारवि, रति विलाप, विषकन्या और अप्राधिनी शामिल हैं। उन्होंने अपनी लंदन यात्रा पर ‘यात्रिकी’ और रूस यात्रा पर ‘चारेवती’ नाम से किताबें भी लिखीं। अपने जीवन के आख़िरी सालों में शिवानी ने आत्मकथा लिखना शुरू किया। इसका पहला रूप उनकी किताब ‘शिवानी की श्रेष्ठ कहानियां’ में दिखा। बाद में उन्होंने दो हिस्सों में अपनी यादों की किताबें लिखीं ‘स्मृति कलश’ और ‘सोने दे’। ‘सोने दे’ का नाम उन्होंने 18वीं शताब्दी के उर्दू कवि नज़ीर अकबराबादी की कविता से लिया था। इस तरह से उन्होंने एक के बाद एक रचनाओं पर काम किया जिन्हें बार पढ़ने का मन करता है।  

पुरस्कार और विरासत 

उन्हें साल 1982 में हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा उनके लेखन के लिए हमेशा सम्मान मिलता रहा । उन्होंने अपने अंतिम दिनों तक लिखना जारी रखा और लंबी बीमारी के बाद 21 मार्च 2003 को नई दिल्ली में उनकी मृत्यु हो गई । साल 2005 में उनकी बेटी और हिंदी लेखिका इरा पांडे ने अपनी माँ शिवानी पर एक किताब लिखी ‘दीदी: माई मदर्स वॉइस’। कुमाऊंनी भाषा में ‘दीदी’ का मतलब बड़ी बहन होता है। साल 2021 में आईआईटी कानपुर ने हिंदी और भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए ‘शिवानी सेंटर’ की स्थापना की। इसके बाद साल 2023 में उनकी जन्म दिवस पर आईआईटी कानपुर में एक साहित्यिक उत्सव आयोजित किया गया। इससे यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि वो हमारे बीच नहीं है लेकिन अपनी रचनाओं और साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने जो योगदान दिया है। उसके माध्यम से वो हमेशा के लिए हर एक साहित्य प्रेमी के दिल में जिंदा रहेंगी। 

शिवानी यानी गौरा पंत का जीवन और लेखन यह दिखाता है कि पितृसत्तात्मक समाज में भी महिला सशक्तिकरण और साहित्यिक योगदान की राह संभव है। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से न केवल महिलाओं की संवेदनाओं, संघर्षों और आत्मसम्मान को सामने रखा, बल्कि समाज की सच्चाई को भी पाठकों के सामने रखा। उनके पात्र सशक्त, आजाद और सोचने-समझने वाली महिलाएं थीं, जिन्होंने समाज की रूढ़ियों और असमानताओं को चुनौती दी। उन्होंने पाबंदियों और बाधाओं के बावजूद साहित्य की दुनिया में अपनी जगह बनाई और इसे पीढ़ियों तक प्रेरणा का स्रोत बनाया। उनके जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि हर एक महिला का सशक्त होना कितना ज़रूरी है। यह जरूरी नहीं है कि हम बोल कर ही सामाजिक बदलाव ला सकते हैं। शिवानी एक ऐसी उदाहरण हैं जिन्होंने अपने लेखन के माध्यम से महिलाओं से जुड़ी बातें सामने रखी और सामाजिक सच्चाई को सामने लाने में अपनी भूमिका निभाई।  

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