विश्व सिनेमा के फलक पर ईरानी सिनेमा अपने क्लासिक और श्रेष्ठतम सिनेमा के लिए जाना जाता है। ईरान की फिल्में आपकी गठन में कला के साथ कहीं न कहीं गहरे सामाजिक सरोकारों और जन-पक्षधरता से जुड़ी होती हैं। मनुष्य के कोमल मानवीय संवेदनाओं, भावनाओं की बेहतरीन अभिव्यक्ति ईरानी फिल्मों की विशेषता है। ईरानी फ़िल्म निर्देशक घोलमरेज़ा रमज़ानी निर्देशित ‘हयात’ एक ईरानी फ़िल्म है, जिसमें 12 वर्ष की बच्ची हयात के जीवन संघर्ष के एक दिन को दिखाया गया है। यह दिन हयात के एक्जाम का दिन है। आज भी सामाजिक व्यवस्था और रूढ़िवादी व्यवस्था में स्त्री-शिक्षा कठिनाइयों से भरा है। इतिहास और वर्तमान में भी महिलाएं यहां संघर्ष ही कर रही हैं। उसी कड़ी में एक नया अध्याय जोड़ती है ये शानदार ईरानी फ़िल्म ‘हयात’। हयात का मतलब होता है जिंदगी। फ़िल्म में जिंदगी का मतलब क्या होता है, और एक 12 साल की बच्ची जिंदगी के उन अर्थों से कैसे जूझती है, कैसे उसे पार करके अपने लक्ष्य को पाती है, इसी की कहानी है यह फ़िल्म।
एक किशोर लड़की के दृढ़संकल्प, संघर्ष, आकांक्षा, आत्मविश्वास, धैर्य और उसकी मासूमियत के जीवंत दृश्यों की गाथा है निर्देशक ने बखूबी दिखाई है। फ़िल्म हयात के दृश्यों को देखते हुए लगता रहा जैसे भारत के ही किसी सुदूर गाँव के दृश्य हों। दरअसल भारत और ईरान की सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि काफी हद तक मिलती-जुलती है। इसलिए, कई बार ईरानी फिल्में देखते हुए लगता है कि यह हमारे देश के ही किसी हिस्से की कहानी है। भौगोलिक रूप से देशों की सीमाएं और सरहदें सरकारें बनाती हैं लेकिन गरीबी, अशिक्षा और असमानताओं की कोई सरहद नहीं है। वो दुनिया के देशों में कहीं भी मौजूद हो सकती है। ईरानी फ़िल्म हयात में संघर्षों से भरा हयात का जीवन किसी देश-सीमा में नहीं बंधता। वो दुनिया के किसी भी हिस्से की गरीब बच्ची का जीवन हो सकता है।
यह फिल्म हर व्यक्ति के जीवन का दर्पण है, जिसे हम एक बच्ची के दृढ़संकल्प, संघर्ष, आकांक्षा, आत्मविश्वास, धैर्य और मासूमियत के माध्यम से देखते हैं। दुनिया भर में महिलाओं की शिक्षा को लेकर जितनी बातें होती हों लेकिन असल में पुरुषों की अपेक्षा उनकी शिक्षा समाज में आज भी बहुत कठिन है।
बच्चों के किरदारों को लेकर ईरान में बेमिसाल फिल्में बनाई गई हैं। बच्चों के जीवन से जुड़े कथानकों पर फिल्म बनाने में ईरानी फिल्मकार अद्भुत और बेजोड़ हैं। फिल्म हयात को बाल फिल्मों की श्रेणी में रखा जाता है किंतु हर उम्र के दर्शकों के लिए यह एक बेहतरीन फिल्म है। यह फिल्म हर व्यक्ति के जीवन का दर्पण है, जिसे हम एक बच्ची के दृढ़संकल्प, संघर्ष, आकांक्षा, आत्मविश्वास, धैर्य और मासूमियत के माध्यम से देखते हैं। दुनिया भर में महिलाओं की शिक्षा को लेकर जितनी बातें होती हों लेकिन असल में पुरुषों की अपेक्षा उनकी शिक्षा समाज में आज भी बहुत कठिन है। शिक्षा के लिए इतने तरह की चुनौतियों से महिलाओं और किशोरियों को बचपन से ही जूझना पड़ता है, जो पुरुषों को उनके विशेषाधिकार के कारण सहज ही मिल जाता है। ईरान की फ़िल्म हयात में 12 साल की बच्ची हयात का स्कूल का इम्तिहान देने के लिए किए संघर्ष के दृश्यों पर ही फ़िल्म केंद्रित है।
इम्तिहान में कठिनाई और किशोरियों का जीवन
लड़कियों की पढ़ाई आज भी उनके लिए कड़ी लड़ाई होती है। लैंगिक असमानता से बने समाज में वे आज भी इस भेदभाव का सामना कर रही हैं। इसी साल झारखंड की एक लड़की का बेहद मार्मिक वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत वायरल हुआ था, जिसे देखकर हर किसी की आंख भर आयी थी। वीडियो में एक महिला रिपोर्टर से लड़की अपनी पढ़ाई को लेकर अपने माता-पिता के भेदभाव करने की बात कहते हुए रो पड़ती है। फ़िल्म के धुंधले दृश्य जैसे जेहन में समाज के उन दृश्यों की याद दिलाते हैं जो व्यवस्था की दृष्टि में धुंधले रहते हैं। फ़िल्म में इम्तिहान के दिन की उस सुबह लड़की के पिता को हॉस्पिटलाइज किया जाता है। लड़की को इम्तिहान देने जाना है। उसकी माँ ने उसकी छोटी बहन नाबाद की जिम्मेदारी उसे दी है। साथ ही हिदायत देते हुए जाती हैं कि बच्ची नाबाद को उसके छोटे भाई के भरोसे न छोड़े क्योंकि वो लापरवाह होने के साथ-साथ अभी छोटा भी है। एक नन्हें बच्चे को लेकर वो मदद के लिए रिश्ते और पहचान की कई महिलाओं के पास भटकती है। लेकिन, कोई उसकी मदद नहीं करता क्योंकि उन पुराने विचार वाली महिलाओं को उसका इम्तिहान देना ही फ़िज़ूल लगता है।
फ़िल्म में इम्तिहान के दिन की उस सुबह लड़की के पिता को हॉस्पिटलाइज किया जाता है। लड़की को इम्तिहान देने जाना है। उसकी माँ ने उसकी छोटी बहन नाबाद की जिम्मेदारी उसे दी है। साथ ही हिदायत देते हुए जाती हैं कि बच्ची नाबाद को उसके छोटे भाई के भरोसे न छोड़े क्योंकि वो लापरवाह होने के साथ-साथ अभी छोटा भी है।
वे सब कहतीं हैं कि माँ नहीं हैं, तो तुम्हारा इम्तिहान देना जरूरी नहीं है। कुछ वृद्ध महिलाएं कहती हैं कि पढ़ाई छोड़कर उसे घर का काम करना चाहिए। सिलाई-कढ़ाई सीखनी चाहिए। फ़िल्म में ये बात बहुत रोचक तरीके से समझाई गयी है। लेकिन, अखिकारकार हयात को इम्तिहान देने में वे महिलाएं मदद करती हैं जो प्रगतिशील सोच वाली महिलाएं हैं। ये शिक्षित और आधुनिक स्त्रियां हैं। फ़िल्म जहां से शुरू होती है, वो एकदम सुबह का पहर है। हयात का पूरा परिवार सो रहा है। हयात की माँ सबसे पहले उठकर घर के काम कर रही हैं। भैंस को चारा और सानी-पानी करते हुए बच्ची हयात को उठाकर पढ़ने के लिए कह रही हैं। आज उसकी परीक्षा है। इसलिए हयात के छोटे भाई को सहेज रही हैं कि हयात को सोने न देना अब। घर के निचले वाले हिस्से में पालतू जानवरों के रहने की जगह है। माँ सीढ़ियों से नीचे उतरती हैं और जानवरों को सानी-पानी देकर उनका दूध निकालती हैं। ऊपर कमरे में आकर अपने पति को जगाती हैं। लेकिन, वह नहीं उठता है। कई बार बुलाने के बाद जब करीब जाती हैं तो देखती हैं कि वह बेहोश हैं।
छोटी सी हयात अपने गोद में रोते हुई छोटी बहन को संभालती है। रोने का दृश्य बेहद मार्मिक है। हयात की माँ घर के कामकाज, पशुपालन और बच्चों को बड़ा करने के साथ-साथ कहीं और काम भी करती हैं। हयात माँ के साथ सारे काम में हाथ भी बंटाती है और साथ ही स्कूल में पढ़ाई करती है। जिस तरह से हयात माँ के घर में न होने पर, घर की तमाम जिम्मेदारियों को निभाने की कोशिश कर रही है, वो दृश्य भारत के कितने ही गरीब घरों की बच्चियों के कठिन जीवन की याद दिलाता है। वो भैंस का दूध दुहने की कोशिश करती है, दूध को गर्म करके बच्ची के बॉटल में भरती है और एक वृद्ध औरत के पास जाकर निवेदन करती है कि वो दो घंटे के लिए उसकी बहन को संभाल ले। लेकिन बूढ़ी औरत बीमार रहती है। वो हयात से पानी मांगती है और हयात उनके घर में पानी ढूंढने लगती है। इसी बीच इस बूढ़ी औरत को तेजी से खांसी आती है और वो बच्ची नाबाद का सारा दूध पी जाती है।
अखिकारकार हयात को इम्तिहान देने में वे महिलाएं मदद करती हैं जो प्रगतिशील सोच वाली महिलाएं हैं। ये शिक्षित और आधुनिक स्त्रियां हैं। फ़िल्म जहां से शुरू होती है, वो एकदम सुबह का पहर है। हयात का पूरा परिवार सो रहा है। हयात की माँ सबसे पहले उठकर घर के काम कर रही हैं।
ऐसा होते देख हयात रो पड़ती है कि अब वो बिना दूध के बच्ची को कहां छोड़ेगी। वह अपनी आठ माह की बहन को गोद में लेकर गाँव की कई महिलाओं के पास जाती है। लेकिन, सबने उसे निराश किया। फ़िल्म के इस दृश्य को देखते हुए दर्शकों को जरूर हजारों उन गरीब और मजदूर औरतों के बच्चों को काम की जगह पर जमीन पर पड़े रहने का दृश्य याद आ जाता है। अक्सर गरीबी महिलाओं को उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित करती है, समाज में उनकी स्थिति को और कमज़ोर बनाती है और उन्हें हाशिए पर जीने को मजबूर करती है। साल 2005 में बनी फिल्म हयात के निर्देशक घोलमरेज़ा रमज़ानी ने इन परतों को बहुत बारीकी से दिखाया है। हयात का किरदार निभाने वाली बाल कलाकार ने अदभुत अभिनय किया। फ़िल्म की पटकथा अद्भुत है। सुबह से प्रारंभ होकर दोपहर तक का एक दिन।
छोटी बहन को लेकर परीक्षा देने की हयात की कोशिश
फ़िल्म के आखिरी के दृश्यों में दर्शकों के दिल थमने जैसी स्थिति हो जाती है। हयात एक्जाम में जाने के लिए अपनी छोटी बहन नाबाद को लेकर जगह-जगह भटक रही है। लेकिन कोई भी उसकी बहन को संभालने के लिए तैयार नहीं हुआ। अंत तक वो एक्जाम देने के लिए बच्ची को लेकर स्कूल जाती है जहां टीचर उसे देखते ही डांटते हैं कि घर जाकर बच्चे को छोड़कर आओ। तब हयात बताती है कि घर पर उसकी छोटी बहन को देखने वाला कोई नहीं। हयात घर से बच्चे का झूला लेकर आयी थी। स्कूल में पेड़ की डालों पर झूला बांधकर बच्चे को उसमें लिटाकर वो एक्ज़ाम रूम में जाती है। छोटी बच्ची बाहर लगातार रो रही है। हयात की दोस्तों और टीचर्स ने उसकी मदद की।
अंत का दृश्य आश्वस्ति का दृश्य है जहां एक्जाम हॉल में खिड़की के पास खड़ी महिला टीचर बच्ची का झूला हिला रही है। बच्ची रोना छोड़कर हंसने लगती है। एक्ज़ाम रूम की सारी लड़कियों के चेहरे पर प्रसन्नता आ जाती है और तभी स्कूल के बल्ब जल उठते हैं और सब रोशन हो जाता है। लड़कियों की शिक्षा उनके कठिन संघर्ष और स्त्री-बहनापे की बेहतरीन मिशाल है ये फ़िल्म। जो लोग लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई या उनको मिले आरक्षण पर तंज करते हैं, उनको ये फ़िल्म देखनी चाहिए कि कितनी कठिनाइयों को पार करके वो पुरुषों के समकक्ष बैठती हैं। लैंगिक असमानता की लड़ाइयों की अनगिनत परतों को भेदकर वो वहां पहुंचती हैं, जहां पहुंचने के लिए पुरूष को उस तरह के किसी संघर्ष से जूझना नहीं पड़ता।

