भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं होती। यह किसी समाज का इतिहास, संस्कृति, पहचान और आत्म-सम्मान अपने भीतर समेटे होती है। विशेष रूप से हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए भाषा केवल बोलने का साधन नहीं, बल्कि उनकी जड़ों, भूमि और अस्तित्व से जुड़ा है। हाल ही में केंद्रीय सरकार ने राष्ट्रीय आदिवासी छात्र शिक्षा समिति (एनईएसटीएस) ने देशभर के एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालयों (ईएमआरएस) के प्राचार्यों को एक परिपत्र जारी किया जिसमें निर्देश दिया गया कि वे आदिवासी विद्यार्थियों में हिंदी भाषा के प्रति रुचि बढ़ाने के लिए अभियान चलाएं। सरकार ने ये भी कहा कि भाषा सिखाने की जिम्मेदारी सिर्फ़ भाषा शिक्षकों की नहीं, बल्कि सभी शिक्षकों की साझा जिम्मेदारी है। यह पहल यह चिंता उठाती है कि अगर स्थानीय और मातृभाषाओं के बिना हिंदी को बढ़ावा दिया गया, तो यह पहल भाषाई विविधता के बजाय एकरूपता थोपने का माध्यम बन सकती है। भारत जैसे बहुभाषी देश में, जहां हर बोली अपने साथ एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत लाती है, वहां ज़रूरी है कि शिक्षा नीति हिंदी को बढ़ावा देने के साथ-साथ आदिवासी भाषाओं को भी बराबर स्थान दे।
भाषा केवल पढ़ने-लिखने का उपकरण नहीं, बल्कि पहचान और गरिमा का आधार होती है। मातृभाषा के विषय पर बातचीत करते हुए, आदिवासी कार्यकर्ता और लेखिका वंदना टेटे कहती हैं, “साल 1952 से ही भाषाओं को महत्व देने की बातें होती रही हैं, लेकिन आज़ादी के इतने सालों बाद भी हमारे देश में कोई ठोस भाषा नीति नहीं बन सकी। आदिवासी मातृभाषाओं का जो ह्रास हुआ है, वह हमारी लापरवाही से नहीं, बल्कि सरकारी नीतियों के कारण हुआ है। हमने हमेशा भाषा आयोग की मांग की, अपनी भाषाओं के संरक्षण की बात उठाई, लेकिन शासन ने भाषा और संस्कृति को लगातार हाशिए पर रखा। शिक्षा की शुरुआत हमेशा मातृभाषा से होनी चाहिए। पहले बच्चे को उसकी अपनी भाषा में पढ़ाइए, फिर धीरे-धीरे हिंदी और अंग्रेज़ी सिखाइए। जब बच्चा अपनी भाषा में पढ़ ही नहीं पाता, तो वह परीक्षा में अच्छा कैसे करेगा? यही कारण है कि बच्चे हिंदी या अंग्रेज़ी में पढ़ते हुए अपनी जड़ों से दूर हो जाते हैं।”
जब हिंदी शिक्षक पढ़ाते हैं, तो वे पर्व, संस्कार और प्रतीकों को हिंदू दृष्टिकोण से समझाते हैं। हमारे समुदाय में त्योहारों का रूप अलग होता है। जहां हिंदी शिक्षक दिवाली या होली का उदाहरण देते हैं, वहीं हम ‘फग्गू’ मनाते हैं।
भाषा को केवल एक संचार का माध्यम मानना भूल है। जब किसी एक भाषा को प्राथमिकता दी जाती है, तो उसके साथ उस भाषा बोलने वाले समुदाय को भी राजनीतिक, सामाजिक और संस्थागत मान्यता मिलती है। भाषा के हाशियाकरण का सबसे पहला असर किसी मातृभाषा को कमतर समझने में दिखता है। जब किसी समुदाय की भाषा को कमतर आंका जाता है, तो उसकी सांस्कृतिक पूंजी और परंपरा भी उपेक्षित होने लगती है। कई शोध बताते हैं कि जब बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाता है, तो वे अधिक आत्मविश्वास और समझ के साथ सीखते हैं। लेकिन जब उन्हें शुरुआत से ही किसी अपरिचित भाषा में पढ़ने को कहा जाता है, तो उनमें असुरक्षा, झिझक और हीन-भावना पैदा हो सकती है। मातृभाषा में बच्चे अपनी भाषा में सोचते और संवाद करते हैं, जिससे उनका आत्मविश्वास और जुड़ाव दोनों बढ़ता है। भाषा के ज़रिए वे अपने अनुभव, संस्कृति और समाज की समझ को स्कूल के माहौल में ला पाते हैं।
भाषा का सवाल केवल समझ या संवाद का नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक सुरक्षा, आत्मसम्मान और पहचान का भी है। इस विषय पर आदिवासी कवि और लेखक महादेव टोप्पो कहते हैं, “जब हिंदी शिक्षक पढ़ाते हैं, तो वे पर्व, संस्कार और प्रतीकों को हिंदू दृष्टिकोण से समझाते हैं। हमारे समुदाय में त्योहारों का रूप अलग होता है। जहां हिंदी शिक्षक दिवाली या होली का उदाहरण देते हैं, वहीं हम ‘फग्गू’ मनाते हैं। जब शिक्षक इन संदर्भों को नहीं समझते, तो शिक्षा की भाषा हमारे जीवन से कट जाती है। हमारी मातृभाषा में पुरुष और ईश्वर को छोड़कर बाकी सब कुछ स्त्रीलिंग में होता है। अब जब कोई बच्चा हिंदी सीखता है, तो उसे बहुत-सी चीज़ें नई तरह से समझनी पड़ती हैं। यहीं से उसके भीतर भ्रम और असुरक्षा पैदा होती है। हम इसी का विरोध करते हैं। एक कहावत है कि माँ भी तभी दूध देती है जब बच्चा रोता है। हमारी भाषाएं अब वही रोता हुआ बच्चा हैं जिन्हें सुना और समझा जाना बहुत ज़रूरी है।”
लोग कहते हैं कि आदिवासी की आवाज़ जंगल, जल और ज़मीन की आवाज़ है, लेकिन मैं कहता हूं कि यह केवल जंगल, जल और ज़मीन की आवाज़ नहीं, बल्कि ज़मीर और ज़ुबान की भी आवाज़ है। यह भाषा का संघर्ष है और आत्मसम्मान की लड़ाई भी।
जल, जंगल, ज़मीन और भाषाई लड़ाई
आज शिक्षा की मुख्यधारा और आदिवासी अनुभव के बीच जो दूरी है, उसे मिटाना जरूरी है। जब शिक्षा से भाषा और अनुभव कट जाते हैं, तो आत्म-अलगाव और हीनभावना जन्म लेती है। भाषाई विविधता को सम्मान देना केवल संस्कृति का संरक्षण नहीं, बल्कि समानता और गरिमा की दिशा में एक ज़रूरी कदम है। भाषा का संघर्ष सिर्फ़ बोलने या लिखने की क्षमता तक सीमित नहीं है, यह असल में अस्तित्व और आत्म-सम्मान की लड़ाई है। टोप्पो कहते हैं, “लोग कहते हैं कि आदिवासी की आवाज़ जंगल, जल और ज़मीन की आवाज़ है, लेकिन मैं कहता हूं कि यह केवल जंगल, जल और ज़मीन की आवाज़ नहीं, बल्कि ज़मीर और ज़ुबान की भी आवाज़ है। यह भाषा का संघर्ष है और आत्मसम्मान की लड़ाई भी।” भाषा की यह लड़ाई केवल सामाजिक या भौतिक अधिकारों तक सीमित नहीं, बल्कि पहचान और सम्मान से जुड़ी है। जब किसी समुदाय की यह आवाज़ दबा दी जाती है या अनसुनी कर दी जाती है, तो यह हाशियाकरण और मिटाए जाने की पहली सीढ़ी होती है।
आखिर क्यों गैर हिन्दी भाषी पर हिन्दी थोपी जा रही है
हाल ही में मंत्रालय ने यह निर्देश जारी किया है कि एकलव्य मॉडल रेजिडेंशियल स्कूल में गैर-भाषा विषयों के शिक्षक भी हिंदी का इस्तेमाल करें। यह कदम स्पष्ट रूप से दिखाता है कि हिंदी को एक बाध्यता के रूप में देखा जा रहा है। यह निर्देश नई शिक्षा नीति के अनुरूप है लेकिन यह सवाल भी उठता है कि क्या यह हिंदी थोपने की शुरुआत तो नहीं है? अगर हिंदी को सर्वोच्च स्थान देकर मातृभाषाओं को पीछे धकेला जाएगा, तो यह दूसरे भाषा को कमतर या हाशिये पर धकेलने की प्रक्रिया को और गहरा कर सकता है। टेटे इस पर कहती हैं, “हमें हिंदी से कोई विरोध नहीं है। लेकिन मातृभाषा घर की ज़मीन होती है, जो घर में ही सीखी जाती है। अगर हम अपनी मातृभाषाओं को रोक देंगे, तो कहीं न कहीं हिंदी का विकास भी रुक जाएगा। हिंदी की खूबसूरती यही है कि उसमें क्षेत्रीय भाषाओं की झलक मिलती है, उसमें सैकड़ों स्थानीय शब्द शामिल हैं। अगर आप आदिवासी भाषाओं को कमजोर करेंगे, तो आप हिंदी को भी गरीब बना देंगे।”
हिन्दी को बाध्य करने के विषय में टोप्पो कहते हैं, “हिंदी माध्यम में शिक्षा कार्यक्रम आदिवासी संस्कृति और संदर्भ से मेल नहीं खा सकता। मुख्यधारा की भाषा में बिना तैयारी के डाल दिए जाने से आदिवासी विद्यार्थियों में हीन भावना और असमर्थता का भाव पैदा हो सकता है।” इसलिए, शिक्षा नीति में हिंदी को प्रमुख बनाने का कदम यदि मातृभाषा शिक्षण को नज़रअंदाज़ करता है, तो यह आदिवासी भाषाओं को हाशिए पर धकेलने का उपकरण बन सकता है। भाषा नीति का उद्देश्य किसी एक भाषा के केंद्रीकरण का नहीं होना चाहिए।
हिंदी माध्यम में शिक्षा कार्यक्रम आदिवासी संस्कृति और संदर्भ से मेल नहीं खा सकता। मुख्यधारा की भाषा में बिना तैयारी के डाल दिए जाने से आदिवासी विद्यार्थियों में हीन भावना और असमर्थता का भाव पैदा हो सकता है।
त्रिभाषा सूत्र और भाषाई न्याय
भारत की शिक्षा नीति में ‘त्रिभाषा सूत्र’ का विचार सबसे पहले साल 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में आया था। इसका उद्देश्य था भारत की भाषाई विविधता को बनाए रखना और छात्रों में बहुभाषिकता की क्षमता विकसित करना। विचार के स्तर पर यह योजना बहुत सुंदर थी। बच्चों को अपनी मातृभाषा, हिंदी और अंग्रेज़ी (या अन्य भाषाओं) का अध्ययन कराना, ताकि वे स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर संवाद करने में सक्षम बन सकें। लेकिन, जब इस सिद्धांत को व्यवहार में लागू किया गया, तो इसका शक्ति-संतुलन बिगड़ गया। मातृभाषा, जो इस त्रिकोण का सबसे मूल और स्वाभाविक आधार होनी चाहिए थी, धीरे-धीरे हाशिए पर चली गई।
हिंदी और अंग्रेज़ी को ‘प्रमुख भाषाओं’ के रूप में संस्थागत समर्थन मिला, जबकि आदिवासी भाषाएं ‘वैकल्पिक’ या ‘अनौपचारिक’ श्रेणी में सिमट गईं। यहीं से त्रिभाषा सूत्र, जिसका उद्देश्य विविधता की रक्षा करना था, कई बार एकरूपता का औज़ार बन गया। इस विषय पर टेटे कहती हैं, “त्रिभाषी फार्मूले से हमें आपत्ति नहीं है, आपत्ति प्राथमिकता के क्रम पर है। आदिवासियों ने कभी किसी भाषा से द्वेष नहीं रखा, लेकिन यह मांग हमेशा रही है कि सबसे पहले मातृभाषा को प्राथमिकता दी जाए क्योंकि सबसे ऊपर तो मां ही होती है। मातृभाषा व्यक्ति के इतिहास से जुड़ी होती है और वो कैसा इंसान होगा जिसका अपना इतिहास ही नहीं?”
त्रिभाषी फार्मूले से हमें आपत्ति नहीं है, आपत्ति प्राथमिकता के क्रम पर है। आदिवासियों ने कभी किसी भाषा से द्वेष नहीं रखा, लेकिन यह मांग हमेशा रही है कि सबसे पहले मातृभाषा को प्राथमिकता दी जाए क्योंकि सबसे ऊपर तो मां ही होती है। मातृभाषा व्यक्ति के इतिहास से जुड़ी होती है और वो कैसा इंसान होगा जिसका अपना इतिहास ही नहीं?
महादेव टोप्पो इस प्रश्न को और स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं, “हिंदी हमारे ऊपर थोपी गई, जबकि शिक्षा नीति में आदिवासी भाषाओं को उनका हकदार स्थान कभी नहीं मिला। नतीजा यह हुआ कि हमारी भाषाएँ धीरे-धीरे ‘लुप्त हो रही भाषाओं’ की श्रेणी में पहुंच गई। न हमें पूरी तरह हिंदी समाज ने अपनाया, न हमें अपनी मातृभाषा में अभिव्यक्ति का मंच मिला।” यह पूरा प्रसंग दिखाता है कि भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि पहचान, संस्कृति और इतिहास का आधार भी है। जब मातृभाषा को शिक्षा और नीति से बाहर रखा जाता है, तो केवल एक भाषा नहीं, बल्कि एक पूरी सभ्यता की स्मृति मिट जाती है।
त्रिभाषा सूत्र का असली संकट यह है कि स्कूलों में यह अब सिर्फ़ ‘द्विभाषा सूत्र’ बनकर रह गया है। ज़्यादातर स्कूलों में आदिवासी, उत्तर-पूर्वी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को तीसरी भाषा के रूप में न तो मान्यता मिली है, न ही उन भाषाओं के शिक्षक नियुक्त किए गए हैं। झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में मातृभाषाएं सिर्फ़ संस्कृति दिवस या उत्सवों तक सीमित हैं। वे शिक्षा का हिस्सा नहीं बन पातीं। यह स्थिति दिखाती है कि नीति में तीन भाषाओं की बात भले कही गई हो, पर असल में सिर्फ़ दो भाषाएं ही चल रही हैं। अगर त्रिभाषा सूत्र को सच्चा ‘भाषाई लोकतंत्र’ बनाना है, तो हमें उस बच्चे की आवाज़ सुननी होगी जो स्कूल के बाहर अपनी मातृभाषा में गा रहा है।
एकलव्य मॉडल रेजिडेंशियल स्कूल मॉडल और क्या हो आगे का रास्ता
एकलव्य मॉडल रेजिडेंशियल स्कूल आदिवासी बच्चों के लिए बड़ा अवसर हैं। इन स्कूलों में शिक्षा, खेल, तकनीक और आवास की सुविधाएं दी जाती हैं। लेकिन यह तभी सार्थक है जब यह बच्चों की भाषा और संस्कृति का सम्मान करे। सबसे ज़रूरी है कि शिक्षा की शुरुआत बच्चों की मातृभाषा में हो। शिक्षकों को भी स्थानीय भाषा और संस्कृति की समझ होनी चाहिए। पाठ्यक्रम में लोककथाएं, गीत और त्योहार शामिल किए जाएं ताकि बच्चे अपनी जड़ों से जुड़े रहें। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो यह मॉडल बच्चों को उनकी भाषा और पहचान से दूर कर सकता है। जब बच्चे अपनी मातृभाषा में सीखते हैं, तो वे अपने समुदाय और संस्कृति से जुड़ाव महसूस करते हैं। भाषा को नज़रअंदाज़ करना सिर्फ़ शब्द खोना नहीं है, बल्कि पहचान और आत्मविश्वास खोना है। अगर ईएमआरएस जैसे मॉडल मातृभाषा को प्राथमिकता देंगे और हिंदी-अंग्रेज़ी को उसके बाद रखेंगे, तो यह सच्चे अर्थों में समान शिक्षा का उदाहरण बन सकते हैं। भाषा विविधता हमारी ताकत है और जब तक ज़ुबान ज़िंदा है, तब तक पहचान भी ज़िंदा है।

