समाजकैंपस कैंपस में वर्ग और भाषागत भेदभाव के बीच दिल्ली में पढ़ने की मेरी जिद

कैंपस में वर्ग और भाषागत भेदभाव के बीच दिल्ली में पढ़ने की मेरी जिद

कॉलेज की सोसाइटीज में जहां यह आशा लेकर गई थी कि कुछ नया सीखने और जानने को मिलेगा, वहां भी अभिजात वर्ग, ग्रामीण और शहरी में बंटवारे की ही एक अभिव्यक्ति देखने को मिली जिससे मन निराश हो गया। 

हर गांव में रह रही किशोरी के तरह मेरे भी सपने थे कि दिल्ली पढ़ने जाऊं। यह बात कहने और सोचने में जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल। मेरा भी छोटे से गांव से दिल्ली जाकर कॉलेज में पढ़ने का सिलसिला आसान नहीं रहा। बाकि कई तरुण– तरुणियों की तरह कॉलेज को लेकर मेरे मन में भी कई प्रकार की जिज्ञासाएं थीं। जैसे ही बारहवीं का रिजल्ट आया, मुझे यकीन हो गया था कि इतने अच्छे अंकों के साथ मेरा दाखिला दिल्ली विश्वविद्यालय में हो जाएगा। अपने मनचाहे कॉलेज और कोर्स में एडमिशन लेने के बाद खुशी और भी बढ़ गई। आज तृतीय वर्ष में पहुंचने के बाद समझ आता है कि कितनी ही सीख मिली, अनुभव हुए, नारीवादी सिद्धांतों से रूबरू होने के बाद अपने विचारों को, पुराने अनुभवों को बताने के लिए एक नई शब्दावली भी मिली। घर की लड़की को इतने दूर, एक बड़े शहर में पढ़ने भेजने में सबको झिझक हुई, लेकिन मेरी बहुत जिद के बाद सब इस शर्त पर राजी हुए कि मैं गर्ल्स कॉलेज में पढूंगी। कॉलेज में आने के बाद कई तरह के अनुभव हुए। अच्छे और बुरे। पहली बार घर से, अपने गांव से अपने प्रदेश से बाहर कदम रखा था। पहली बार ट्रेन में बैठी थी। घर से दो सूटकेस में कुछ कपड़े, बहुत सारी किताबें, मां के बनाए हुए लड्डू और अपनी कद से ऊंचे सपने लेकर अपने हॉस्टल पहुंची थी।

कॉलेज में समझी एक्सपोजर का मतलब

एक्सपोजर का मतलब कॉलेज में ही पहली बार समझ आया। पुस्तकों में कई सिद्धांत पढ़ने को मिला, इतिहास जानने को मिला, दर्शनशात्र से भी रूबरू हुई। लेकिन कॉलेज में शिक्षा किताबों से कहीं आगे चली जाती है। कक्षा में देश के विभिन्न कोनों से आई हुई सहपाठियों से परिचय हुआ। हर कोई अलग-अलग परिवेश, पहचान और भाषाएं बोलने वाली थीं। यह सब कुछ मेरे लिए बहुत नया था। शुरूआत में एक सामाजिक विज्ञान की विधार्थी और नारीवादी परिवेश में होने के कारण सबसे मिलने-जुलने का खूब उत्साह था। लेकिन बहुत सारे कड़वे अनुभव भी हुए, जिसका असर न सिर्फ मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर हुआ बल्कि उसकी वजह से मेरे अंदर एक विशेष प्रहार की हीन भावना भी आई। धीरे-धीरे इसका असर मेरे पढ़ने-लिखने की गतिविधियों पर भी हुआ। 

एक ऐसी लड़की जिसे कहीं आने-जाने के लिए घर के पुरुषों पर निर्भर होना पड़ता था, आज एक बड़े शहर में अपनी मर्जी के मुताबिक कहीं भी आ-जा सकती थी। वास्तव में खुद से कहीं घूम आना भी ना जाने कितनी ही लड़कियों के लिए किसी विशेषाधिकार से कम नहीं है।

मेट्रो में सफर करने की झिझक

शुरुआती दिनों में दिल्ली शहर से जुड़े कई प्रकार के भय मन में थे, इसलिए ज्यादातर समय बाहर जाने से डर लगता था। मुझे आज भी याद है कि मेट्रो में सफर करने की समझ नहीं होने के कारण साथी लड़कियों के सामने शर्मिंदगी महसूस हुई थी। कैसे मेरे अठारह वर्षीय मन को आहत पहुंची थी कि मेरे घरवालों ने मुझे कुछ क्यों नहीं सिखाया। मैं इतने पिछड़े इलाके से क्यों आती हूं! लेकिन बाद में एक सहेली ने मुझे मेट्रो से सफर करना सिखाया, जिसके बाद एक अलग तरह का आत्मविश्वास खुद के अंदर आया। एक ऐसी लड़की जिसे कहीं आने-जाने के लिए घर के पुरुषों पर निर्भर होना पड़ता था, आज एक बड़े शहर में अपनी मर्जी के मुताबिक कहीं भी आ-जा सकती थी। वास्तव में खुद से कहीं घूम आना भी ना जाने कितनी ही लड़कियों के लिए किसी विशेषाधिकार से कम नहीं है।

अंग्रेजी न जानने के कारण आत्मविश्वास में कमी

कक्षा में शुरुआती दिनों में प्रश्न पुछने में हिचक नहीं महसूस होती थी क्योंकि साथ में बहुत सारा आत्मविश्वास लेकर गई थी। लेकिन धीरे-धीरे मेरी बोलने की शैली, मेरी भाषा, मेरी ग्रामीण पहचान और अंग्रेजी में मजबूत पकड़ नहीं होने के कारण कक्षा में प्रश्न पुछने में हिचकने लगी। कई बार साथी विद्यार्थियों ने मेरे बोलने की शैली का मजाक भी उड़ाया जिससे बहुत मनोबल टूटा। यह अक्सर सुनने को मिलता रहता कि अरे, उस प्रोफेसर को अंग्रेजी में पढ़ना नहीं आता। वो अनपढ़ है। इससे मन में एक विशेष प्रकार का भय हो जाता कि हिंदी को लेकर आगे बढ़ने के बाद भी इस तरह की टिप्पणियां सुनने को मिलेगी, जिससे शर्मिंदगी का एहसास बढ़ता गया। हालांकि भाषा की समस्या सिर्फ मेरी अकेली की नहीं थी। मेरी मलयालम भाषी सहेली मुझे एक रोज अपने अंक में गड़बड़ी होने के कारण कॉलेज प्रशासन कार्यालय में ले कर गईं ताकि मैं उनकी बात हिंदी में समझा सकूं। लेकिन अनुवाद करने में कई सारी बातें व्यक्त नहीं हो पाई। सही ढंग से खुद को अभिव्यक्त न कर पाने की वजह से और गलत अंक का अपने पोर्टल पर दाखिल होने के भय से, मेरी सहेली अपनी बात न समझा पाने की विवशता के कारण भावुक हो गईं।

धीरे-धीरे मेरी बोलने की शैली, मेरी भाषा, मेरी ग्रामीण पहचान और अंग्रेजी में मजबूत पकड़ नहीं होने के कारण कक्षा में प्रश्न पुछने में हिचकने लगी। कई बार साथी विद्यार्थियों ने मेरे बोलने की शैली का मजाक भी उड़ाया जिससे बहुत मनोबल टूटा।

गांव से निकलकर शहर में बसने की जद्दोजहद

इस तरह के अनुभव मन में कई तरह के प्रश्न खड़े करते हैं कि क्या किसी भाषा विशेष की जानकारी रखने से ही आगे बढ़ सकते हैं? आखिर इस तरह की समस्या क्या समाधान हो सकता? ऐसे कई ख्याल आते रहते हैं। भाषा संबंधी समस्या से होने वाली मानसिक परेशानियों के बारे में बात करने के लिए कैंपस में एक विशेष तरह का शर्म व्याप्त है। कक्षा में अध्ययन के इतर, और कोई भी ज्यादा जानकारी नहीं मिल पाती है। जैसेकि करियर काउंसलिंग या इंटर्नशिप से जुड़ी हुई जानकारियां। ग्रामीण परिवेश से आने के कारण इंटर्नशिप,सी.वी. बनाना या लिंकडिन प्रोफाइल बनाना जैसी जानकारियां नहीं थी। इस तरह की असमर्थता के कारण मेरे अठारह वर्षीय किशोरी स्वरूप को ऐसा लगता था कि मानों भविष्य के सारे रास्ते बंद हो गए हैं। अपने परिवार की पहली सदस्य जो शहर में पढ़ाई करने पहुंची हो, उसके लिए ये सारे अनुभव नए थे। घर-परिवार से इस प्रकार की मानसिक चिंताओं और परेशानियों के बारे में बात करने का माहौल नहीं होने के कारण कई बार बेघर होने जैसा अनुभव भी हुआ। यह कहने पर कि पढ़ाई में मन नहीं लग पा रहा है, डर लगता है और घबराहट होती है, परिवार वालों ने शादी के लिए सोचना शुरू कर दिया था।

तस्वीर साभारः Sroll.in

वर्ग, वेशभूषा और भाषा से जुड़ी शर्मिंदगी

इन चिंताओं को सुनने के लिए कैंपस में नियुक्त काउंसलर से भी ज्यादा मदद नहीं मिल पाई। अपनी पहचान, भाषा की वजह से होने वाली शर्मिंदगी, अपने वर्ग से होने वाली शर्मिंदगी, गांव से होने की शर्मिंदगी, पिछड़ेपन की शर्मिंदगी और वेशभूषा से जुड़ी शर्म को दर्ज करने की हिम्मत नहीं हुई। काफी समय तक सुरक्षित माहौल का अनुभव नहीं हुआ, जहां अपने अनुभवों को खुलकर बोल सकूं। अपने तरह के परिवेश से आए साथियों के साथ काम करके और दिव्यांग साथियों के साथ काम करके यह अनुभव हुआ कि वंचित पृष्ठभूमि से आए विधार्थियों को खुद के लिए बोलने में अब भी झिझक होती है। ज्यादातर को पहली बार विश्वविद्यालय आकर ही समावेशी परिवेश की समझ आई। ऐसे में एक समावेशी परिवेश के नाम पर हमें हमारे लिए जो कुछ मिलता है, उतना ही स्वीकार करके थम जातें हैं। 

अपने परिवार में पहली सदस्य जो शहर में पढ़ाई करने पहुंची हो, उसके लिए ये सारे अनुभव नए थे। घर-परिवार से इस प्रकार की मानसिक चिंताओं और परेशानियों के बारे में बात करने का माहौल नहीं होने के कारण कई बार बेघर होने जैसा अनुभव भी हुआ। यह कहने पर कि पढ़ाई में मन नहीं लग पा रहा है, डर लगता है और घबराहट होती है, परिवार वालों ने शादी के लिए सोचना शुरू कर दिया था।

कैंपस के कड़वे अनुभव के बीच मिले दोस्त

कॉलेज की सोसाइटीज में जहां यह आशा लेकर गई थी कि कुछ नया सीखने और जानने को मिलेगा, वहां भी अभिजात वर्ग, ग्रामीण और शहरी में बंटवारे की ही एक अभिव्यक्ति देखने को मिली जिससे मन निराश हो गया। कई बार अपनी काबिलियत पर प्रश्न उठाए, मन में यह प्रश्न आए कि क्या मैं इस परिवेश के लायक भी हूं या नहीं। मैं यह भी स्वीकार करना चाहूंगी कि अपनी समस्याओं का, अपने अनुभवों का इस तरह से आंकलन करने की समझ भी कॉलेज में ही विकसित हुई। कई सहेलियों से मुलाकात हुई, जिन्होंने खुद के ऊपर अडिग विश्वास रखना सिखाया। मुझे मेरे रंग से प्यार करना सिखाया, खुद को समझने में मदद की, फैसला लेना सिखाया, सहायता करने और सहायता मांगने का एक खूबसूरत माहौल तैयार किया। बेघर होने जैसे ख्याल आने पर कैंपस की यही चार दिवारियां, यही सहेलियां और यही माहौल घर बना। 

लेकिन कक्षा में पढ़ाए गए ‘कैपेसिटी बिल्डिंग’ के सिद्धांत या समावेशी नारीवादी सिद्धांत कुछ हद तक सिर्फ कक्षा में पढ़ाए गए सिद्धांत ही रह जाते हैं। कक्षा से बाहर निकलने के बाद सब अपने बनाए हुए वर्गीय समूहों में चले जाते हैं। कई बार बातचीत की कोशिश करने पर भी हमेशा से एक विशेष प्रकार के अंतर होने की खाई कभी नहीं खत्म होती दिखाई पड़ती है। शायद सिद्धांत पढ़कर ये खाई सतही तौर पर ढकने की एक कोशिश की जा सके। लेकिन समावेशिता अब भी नहीं है।

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